Newslaundry Hindi
राजस्थान पत्रिका और करणी करतूत का जश्न
विदेशों में महिलाओं की मीडिया में भागीदारी कितनी है यह मुझे नहीं मालूम पर भारतीय मीडिया में महिलाओं की स्थिति दयनीय है, इसका एहसास महिला होने के नाते मुझे है. यह बहस अगर छोड़ भी दें कि कितनी महिलाएं मीडिया को करियर के तौर पर चुनतीं हैं, तमाम मीडिया के मालिकों/संपादकों के पास इसका जबाव नहीं होगा कि वे महिलाओं को कैसे दर्शाते हैं.
चुंकि मैंने चार साल एक प्रतिष्ठित हिंदी अखबार में काम किया है, मैं जानती हूं न्यूज़रूम कितना घोर मर्दवादी चपेट में है. उनकी बातचीत और ख़बरों को लिखने का दृष्टिकोण, उनकी पितृसत्तात्मक समझ की देन होती है. ये बातें आज मैं अनर्गल नहीं लिख रही हूं, इसका कारण 31 जनवरी, 2018 के राजस्थान पत्रिका का अंक है.
कुछ दिनों पहले 2017 का इंडियन रीडरशिप सर्वे आया है. उसमें टॉप 20 में हिंदी के 8 अख़बार थे. राजस्थान पत्रिका 7वें स्थान पर था. उसकी पाठक संख्या सर्वेक्षण के मुताबिक 1,63,26,000 थी. नतीजों के अगले दिन तमाम अख़बारों ने अपने पाठकों के नाम बधाई संदेश भी छापे. लेकिन इस जश्न में राजस्थान पत्रिका एक कदम और आगे निकल गया. समूह ने इंडियन रीडरशिप सर्वे का जिक्र करते हुए बताया, वह ‘राजस्थान में मर्दों की पहली पसंद है.’
एक बड़े अख़बार (राजस्थान पत्रिका) के इस दावे पर एक महिला खुश हो या दुखी? क्या राजस्थान पत्रिका के संपादक यह बता सकते हैं कि राजस्थान के अलावा बाकी राज्यों (जहां भी पत्रिका की सर्कुलेशन हो) में महिलाओं की पहली पसंद पत्रिका है? ये भी छोड़ दीजिए, सवाल और भी संपादकों और मालिकों के लिए खोल दिया जाए- किस अख़बार की पाठक संख्या में महिलाएं आगे हैं? या कम से कम बराबरी के करीब भी हैं? वह कौन सा पैमाना या मानक है जिसके आधार पर राजस्थान पत्रिका इस निष्कर्ष तक पहुंचा कि वह मर्दों की पहली पसंद है? यह कैसे ज्ञात हो सका कि सिर्फ राजस्थान में पत्रिका पुरुषों की पहली पसंद है और बाकी जगहों पर आधी आबादी के समानता का संघर्ष कामयाब है?
असल में पत्रिका का यह विज्ञापन ही बेढंगा है. उसे तो बाकी राज्यों में महिलाओं की पहली पसंद पत्रिका है, ऐसा कुछ विज्ञापन देना चाहिए था? कटु सत्य तो यह है कि पत्रिका हो या कोई भी अखबार, न्यूज़रूम, डिजिटल पोर्टल हर जगह मर्दों का वर्चस्व है. यहां तक कि पत्रिकाएं भी इससे मुक्त नहीं हैं. जिन पत्रिकाओं में महिलाओं की संख्या ज्यादा है वे पत्रिकाएं महिला केंद्रित विषयों पर छपती हैं. इसलिए पत्रिका का यह मूंछों वाला विज्ञापन दुर्भाग्यपूर्ण है. यह जश्न के बजाय चिंता का विषय होना चाहिए.
अखबारों के लैंगिक, सामाजिक और धार्मिक चरित्र पर पिछले दो-तीन महीनों से न्यूज़लॉन्ड्री के सर्वे में कुछ तथ्यों का पता चलता है कि करीब सत्तर फीसदी संपादकीय पुरुषों द्वारा लिखे जाते हैं. एक ऐसे ही सर्वेक्षण के संदर्भ में न्यूज़लॉन्ड्री ने लिखा- “जो महिलाएं संपादकीय पन्ने पर छप रही हैं उसमें पचास फीसदी से ज्यादा लेख वे महिला केंद्रित विषयों पर लिख रही हैं.”
क्या यह जश्न का विषय होना चाहिए? कल को कोई अख़बार ऐसे ही मूंछों पर ताव देकर छापे कि हम तो जी लगातार वर्षों से मर्दों की पसंद बने हुए हैं! भला इससे शर्मनाक और क्या ही होगा?
दरअसल जिस बात पर राजस्थान पत्रिका गुमान कर रही है, वह करणी सेना के मर्दवादी उत्पात का ही विस्तार है. करणी सेना का फिल्म पद्मावत पर विवाद भी एक राजपूत रानी की मुक्ति या सम्मान से जुड़ा न होकर, एक महिला कैसे पुरुष वर्चस्व और पर्दे से बाहर जा सकती है, इसका विरोध ज्यादा था. हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि फिल्म ने भी बाद में यही साबित किया कि औरत कभी पुरुष संरक्षण से आज़ाद नहीं हो सकती. उसके हिस्से का जीवन और सुख भी मर्द ही तय करेगा. क्यों न वो “राजपूत रानी” ही हो.
पत्रकारिता का काम सिर्फ़ सूचनाएं और ख़बरों का प्रसार करना ही नहीं था बल्कि अपने पाठकों को और भी ज्यादा संवेदनशील, सुचिंतित इंसान बनाने का भी है. इस कार्य में तो हिंदी भाषी मीडिया बहुत पीछे छूट गया है. पर यह चकित करने वाला है कि इसी पिछड़ेपन को वह प्रचारित कर रहा है.
मीडिया के संदर्भ में ही कहें तो आज हमारी लड़ाई इस बात को लेकर है कि महिलाओं के प्रति यौन हिंसा अथवा महिलाओं से जुड़े मुद्दों की संवेदनशील रिपोर्टिंग कैसी की जाए और किन बातों का विशेष ख्याल रखा जाए. विज्ञापनों में महिलाओं को ऑब्जेक्टिफाई नहीं किया जाए-मसलन डिओड्रंट के विज्ञापन में मर्द पर गिरती महिला, बनियान के विज्ञापन पर महिलाओं का प्रदर्शन, फिल्मों में सेक्सिज्म आदि पर कितने शोध और कैंपेन चलाए जा रहे हैं. इन सबके बरक्स जब हम अपने अख़बरों को देखते हैं तो पाते हैं- मानो अख़बार चीख-चीखकर कह रहें हों- हम नहीं सुधरेंगे.
अख़बारों और खासकर हिंदी (चुंकि मैं इंग्लिश और हिंदी ही फॉलो करती हूं) में पितृसत्ता को ही पाला पोसा जाता है. उदाहरण के लिए देखिए, किन हिंदी के अखबारों ने मीटू कैंपेन, सेल्फी विदआउट मेकअप, राइट टू ब्लीड या हालिया अज़ीज अंसारी केस को रिपोर्ट किया?
भाषा और वार्ता जैसी एंजेसियों की दी हुई जानकारी पर ख़बर चलाना और ज़मीनी रिपोर्टिंग कर समझ विकसित करने के बीच में बड़ा फ़र्क है. सप्ताह में एक पन्ना महिला केंद्रित मुद्दों पर निकालना आंखों में धूल झोंकंने की एक रणनीति से ज्यादा कुछ नहीं है, क्योंकि पाठकों का नज़रिया बाकी के छह दिनों में अख़बारों के रवैये से बनता है.
अव्वल तो भारतीय परिवार में पैदा हुई लड़की की सोच-समझ की कंडीशनिंग ही ऐसी की जाती है कि वह राजनीति और राजनीतिक विषयों से दूर होती जाती है. लड़की कॉलेज पहुंचकर राजनीति के कुछ ककहरे समझने लगती है. बीए पहुंचते ही मां-बाप लड़के की तलाश शुरू कर देते हैं. ऐसे में गर अख़बार भी वही दकियानूस समझ बेंचेंगे तो आधी आबादी की मुसीबतें और एक बेहतर और प्रगतिशील समाज का निर्माण दूर की कौड़ी ही रह जाएगा.
Also Read
-
Happy Deepavali from Team NL-TNM! Thanks for lighting the way
-
TV Newsance 317 Diwali Special: Godi hai toh mumkin hai, NDTV’s Adani makeover, Taliban flip
-
Delhi’s Diwali double standard: Markets flout cracker norm, govt’s pollution plan falters
-
‘Jailing farmers doesn’t help anyone’: After floods wrecked harvest, Punjab stares at the parali puzzle
-
Let Me Explain: How Suresh Gopi’s reel rage found a new stage in politics