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समीक्षा: मीडिया का जातिवाद या जातिवादी मीडिया!
हिंदी अख़बारों के संपादकीय पन्नों की समीक्षा संबंधी न्यूज़लॉन्ड्री की दूसरी किस्त किसी भी रूप में मुझे चौंकाती नहीं है. आखिर परिवर्तन होने की गुंजाइश कहां थी कि अखबारों के पन्ने पर किसी को परिवर्तन दिखाई पड़ता!
हिन्दी अखबारों के संपादकीय पेज पर नवम्बर के महीने में हालांकि मुसलमानों की उपस्थिति थोड़ी बढ़ी दिख रही है लेकिन इसका कारण तीन तलाक़ पर लाया जाने वाला कानून है, और तीन तलाक से ‘मुसलमान बहनों’ को हिन्दू विद्वानों व लिबरलों ने ‘मुक्ति दिलाने’ का बीड़ा उठाया है.
उसी तरह जो मुसलमान लेखक अखबारों के पेज पर दिख रहे हैं उनके बारे में यह भी साबित करना है कि देखिए, हम हिन्दू लोग मुसलमान महिलाओं की कितनी शिद्दत के साथ मुक्ति चाहते हैं लेकिन मुसलमान पुरुष लगातार अपनी औरतों को गर्त में रखना चाहते हैं! इसलिए अगर हिन्दी अखबार में कुछ मुसलमान लेखक दिख रहे हैं तो उनके लेख अनिवार्यतः इस विषय के चर्चा में रहने के चलते ही हुए हैं.
इसके पीछे एक वजह हमारे संपादकों की निजी सोच भी है जो यह बताने से गुरेज नहीं कर रहे कि मुसलमानों की सोच ही ‘डेवलप’ नहीं हो पाई है. जबकि हकीकत यह है कि उन्हीं संपादकों के पास कई-कई मुसलमानों के बहुत ही बेहतरीन लेख आए होगें लेकिन उसे न छापकर उन्होंने अपने मन को सुहाने वाला लेख छापा होगा जिससे कि पूरी मुसलमान कौम को और अधिक कुढ़मगज, धर्मांध और बेवकूफ साबित किया जा सके!
हंस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव ने अपने संपादकीय ‘तेरी, मेरी, उसकी बात’ में इस बात का जिक्र किया था कि जब अज्ञेयजी अपने समय के सबसे प्रतिष्ठित अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक थे तो उन्होंने ‘काला जल’ पुस्तक लिखने वाले मशहूर कथाकार ‘शानी’ को अपने अखबार का फीचर संपादक नियुक्त किया था. यह बात 1978 की है. शानी का नियुक्ति पत्र राजेन्द्र यादव लेकर भोपाल गए थे.
यह बिल्कुल अलग कहानी है कि शानी नवभारत टाइम्स में मात्र छह महीने ही रह पाए थे क्योंकि तबतक अज्ञेय ने अखबार छोड़ दिया था. महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि शानी वहां सिर्फ छह महीने ही रह पाए थे, महत्वपूर्ण बात यह है कि शानी नवभारत टाइम्स अखबार में नौकरी पाने वाले पहले मुसलमान पत्रकार थे. हकीकत यह भी है कि शानी को अज्ञेय ने मुसलमान होने की वजह से नहीं बल्कि बहुत बड़े साहित्यकार होने की वजह से नौकरी दी थी.
हिन्दी के दूसरे सबसे बड़ा अखबार ‘हिन्दुस्तान’ के मालिक बिड़लाजी हैं. वहां की हालत तो और भी खराब, क्योंकि जो काम नवभारत टाइम्स ने 1978 में किया था उसी काम को करने में (मतलब किसी मुसलमान को नौकरी देने में) उस समूह को 14 साल और लग गए, अर्थात हिन्दुस्तान में किसी मुसलमान पत्रकार की नियु्क्ति 1992-93 में हुई, वह भी काफी छोटे पद पर. इतने दिनों के बाद भी अपवाद को छोड़कर मुसलमान पत्रकार उन संस्थानों में नाममात्र के हैं.
इसलिए बीएन उनियाल ने वर्ष 1996 के अंत में जब ‘इन सर्च ऑफ दलित जर्नलिस्ट’ नामक लेख ‘द पॉयनियर’ में लिखा था तो ऐसा नहीं था कि उन्हें कोई दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. वास्तव में, उनसे किसी विदेशी पत्रकार ने किसी दलित पत्रकार के बारे में पूछा था और तब उन्होंने दरयाफ्त करनी शुरू की थी.
अपने उस लेख में उनियाल साहब इस बात का तफ़सील से जिक्र करते हैं कि जब यही सवाल वह हिन्दी के किसी बड़े संपादक मित्र से करते हैं तो वह संपादक हत्थे से उखड़ जाता है और कहता है, “फिरंगी पत्रकारों को भारत के बारे में हवा तक नहीं है. उन्हें भारतीय इतिहास की कोई समझ ही नहीं है. वे भारत को बदनाम करने में लगे रहते हैं. और आप जैसे लोगों को वैसे तत्वों को प्रश्रय नहीं देना चाहिए.”
उनियाल के उस लेख को पूरा पढ़ जाइए, आप पाएगें कि इस बात को लेकर हिन्दी के सभी वरिष्ठ पत्रकारों में कितनी हताशा है कि अब पत्रकारों की भी जाति पूछी जाने लगी है! इतना ही नहीं, जब उनियाल यह सवाल अपने किसी ट्रेड यूनियनिस्ट वामपंथी दोस्त से पूछते हैं तो उन्हें भी उतना ही दुख होता है जितना कि हिन्दी के अन्य संपादकों को होता है. जबकि उस समय यह हकीकत आज के हकीकत से कहीं ज्यादा गहरी थी कि हिन्दी पत्रकारिता में प्रतिभा की नहीं रिश्तेदार या रिश्तेदारों की सिफारिशें ज्यादा मायने रखती थी. अन्यथा यह बिना कारण के नहीं हो सकता था कि आज से 11 साल पहले किए गए सर्वेक्षण में 88 फीसदी पत्रकार सवर्ण थे.
वैसे यह कहने के लिए मेरे पास कोई पुख्ता सबूत नहीं है, फिर भी मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि आज भी हिन्दी पत्रकारिता में वैसे लोग अच्छी पगार पाते हैं, अच्छी जगह पदस्थापित हैं जिनके पास भले ही कोई प्रोफेशनल प्रतिभा न हो लेकिन वे सवर्ण हैं. लेकिन वही स्थिति दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, महिलाओं और मुसलमानों की नहीं है. उनके पास प्रतिभा भी है और अब तो डिग्री भी है, फिर भी न्यूज़रूम में उनकी एंट्री नहीं है.
उदाहरण के लिए मुसलमानों को लीजिए. जो शिक्षा सामान्य लोगों को मिली है वही शिक्षा उन्हें भी मिली है. मतलब वही विज्ञान, वही आर्ट्स, वही गणित, वही हिन्दी और वही अंग्रेजी. लेकिन उन्हें मीडिया संस्थानों में नौकरी नहीं मिलती है जबकि उनके पास हम सबसे अतिरिक्त प्रतिभा है और वह है उर्दू भाषा का ज्ञान. लेकिन वे दलितों और पिछड़ों से भी ज्यादा अछूत हैं क्योंकि न्यूज़रूम में सजग रूप से उनके खिलाफ पक्षपात किया जाता है.
इसमें प्रबंधन तो शामिल हैं ही संपादक के पद पर बैठे लोग भी उतना ही जिम्मेदार हैं. और ये तमाम उद्धरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि हिन्दी मीडिया सवर्णों व जातिवादी लोगों का अंडरवर्ल्ड है. जब तक बुनियादी रूप से इसमें परिवर्तन नहीं होगा, यह स्थिति बनी रहेगी. आशंका तो यह भी है कि इसी से व्यवस्थित हिन्दी पत्रकारिता का पतन भी शुरु होगा क्योंकि ये माध्यम अपने पाठकों के हित के खिलाफ खड़ा है.
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