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ये फेसबुक की बिगड़ी हुई लड़कियां
मेरी पढ़ाई एक ऐसे स्कूल में हुई, जिसे ‘को-एड’ कहते हैं-यानी जहां लड़के-लड़कियां साथ पढ़ा करते थे. लेकिन इस साथ पढ़ने की हकीकत बस इतनी थी कि हम सब एक क्लास में बैठते थे. वरना लड़कियों की बेंच अलग होती थी, उनका समूह अलग होता था और स्कूल के आठ घंटों के दौरान या आते-जाते रास्ते पर हम लोगों में आपस में कोई बातचीत नहीं होती थी. लड़के-लड़कियों का आपस में बात करना किसी अपराध से कम नहीं था.
कॉलेज के दिनों में यही स्थिति बनी रही. एमए में बेशक, कुछ लड़कियों से दोस्ती हुई, लेकिन इसको भी पूरी क्लास बिल्कुल शत्रु भाव से देखा करती थी. हम लोगों को आपसी सहजता के बावजूद इस बात के लिए सतर्क रहना पड़ता था कि कोई हमें बातचीत करते देख या सुन तो नहीं रहा है.
ऐसे में जब घर-परिवार के बाहर की किसी लड़की से किसी इत्तिफाक से बात करना पड़ जाता तो अचानक रोमांच और हकलाहट के बीच की स्थिति बन जाती. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह स्थिति लड़कियों की भी होती. हां और ना से आगे जाना उनको बिल्कुल सहमे हुए माहौल में पहुंचा देता था.
यह संकट पूरे भारतीय समाज का है. हमारे यहां शुरू से ही लड़के और लड़कियों के बीच ऐसी सहज बातचीत संभव नहीं होने दी जाती है जिसमें वे एक-दूसरे की लैंगिक पहचान से मुक्त होकर सिर्फ मनुष्य की तरह एक-दूसरे को समझें या जानें. बुरा यह है कि इस आपसी संवाद की कमी से मर्द और औरत के बारे में कई तरह की भ्रांत धारणाएं लगातार सबके भीतर पुष्ट होती गई हैं- मर्द मज़बूत और बहादुर होते हैं, रोते नहीं हैं, शर्माते नहीं हैं, घर में दुबक कर बैठे नहीं रहते जबकि औरतें कमज़ोर होती हैं, बात-बात पर रो पड़ती हैं, शर्मीली होती हैं आदि-आदि.
कहने की ज़रूरत नहीं कि इन धारणाओं का विस्तार एक खास तरह की पितृसत्तात्मकता को लगातार मज़बूती देता है और स्त्रियों को परनिर्भर बनाता चलता है. निस्संदेह जैसे-जैसे सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है, वैसे-वैसे इन धारणाओं में कमी आई है, लेकिन कुल मिलाकर स्त्रियों-पुरुषों को सहजता से आपस में बात करना, एक-दूसरे का बराबरी पर सम्मान करना नहीं आया.
इस लिहाज से हमें सोशल मीडिया का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने बराबरी के संवाद का मौक़ा सुलभ कराया और हमें लड़कियों से बात करना सिखाया.
फेसबुक की आभासी दुनिया में बड़ी तादाद पर जो महिलाएं मित्र बनीं, उन पर तो पहले उनके पुरुष मित्र जैसे बिल्कुल टूट पड़े- हर कोई प्रेम का इतना भूखा लगा कि हर मैत्री अनुरोध को अपने लिए वह प्रेम का संकेत समझता नजर आया. लेकिन दस साल के इस अंतराल में धीरे-धीरे आपसी समझ बढ़ी है, सहज संवाद भी बढ़ा है. बेशक, इस मामले में लड़कियां ज़्यादा परिपक्व और भरोसेमंद साबित हुईं कि उन्होंने अपने संबंधों को सहज रहने दिया. लेकिन पुरुषों को संवाद की इस प्रक्रिया में जितना बदलना चाहिए, उतना वे बदलते नज़र नहीं आते. अब भी लड़कियों की यह शिकायत आम है कि उनसे मैत्री करने वाले फौरन सुबह शाम गुड मॉर्निंग-गुड ईवनिंग से लेकर तरह-तरह के प्रस्तावों तक पहुंच जाते हैं.
लेकिन यह लेख ऐसे न बदलने वाले लड़कों के लिए नहीं, उन बदली हुई लड़कियों के लिए लिखा जा रहा है जिन्होंने सोशल मीडिया के ज़रिए अपनी अभिव्यक्ति के नए आयाम खोजे हैं और अपनी आज़ादी का नया अर्थ समझा और समझाया है.
अगर सीधी-सादी, अच्छी और गऊ जैसी मानी जाने वाली पारंपरिक भारतीय स्त्री छवि से तुलना करें तो ये बिल्कुल बिगड़ी हुई लड़कियां हैं जो मर्दवाद से डरती नहीं, बल्कि उसे चिढ़ाती हैं, उस पर तरस खाती हैं, उसकी पोल खोलती हैं और उस पर चाबुक चलाती हैं. अक्सर इनके कशाघातों से बिलबिलाया मर्दवाद इन्हें गालियां बकना शुरू करता है जिससे वह कुछ और फूहड़़ और कुरूप होकर प्रगट होता है.
ये साहसी और मूर्तिभंजक लड़कियां इस फेसबुक की सबसे बड़ी क्रांति हैं जिनसे यह भी पता चलता है कि हमारे समाज में लड़कियों के भीतर कितना गुस्सा और कितनी वेदना जमा है. अपनी देह, मन और आत्मा को लेकर कितने संशय और विश्वास उनके भीतर इकट्ठा हैं जिन्हें हम समझ नहीं पाते.
अगर यह मंच सुलभ न होता तो शायद कोई और मंच इन लड़कियों को इस हद तक खुल कर अपनी बात कहने के लिए नहीं मिलता.
ऐसी बागी और बिगड़ी जिस लड़की ने सबसे पहले मेरा ध्यान खींचा था, वह मनीषा पांडेय थी. इन दिनों उनकी कलम ख़ामोश है, लेकिन एक समय उन्होंने बहुत साहस के साथ हमले किए भी और झेले भी. अच्छी बात यह थी कि वे ख़ुद को स्त्रीवादी कहे बिना, स्त्री होने की रियायत मांगे बिना बहुत सहजता से वह सब लिखती और कहती रहीं जो लड़कियों के लिए वर्जित माना जाता रहा.
ऐसा नहीं कि इन्होंने हमेशा तथाकथित ‘बोल्ड’ माने जाने वाले मुद्दों पर लिखा, वे देश, समाज, परिवार, घर, मैत्री हर विषय पर सहज भाव से लिखती रहीं और मर्दवादी आग्रहों को उनकी सीमा बताती रहीं, उन्हें अंगूठा दिखाती रहीं.
हाल के दिनों में जो दो बिगड़ी हुई लड़कियां फेसबुक पर इस मर्दवाद को चिढ़ा रही हैं, वे गीता यथार्थ और रीवा सिंह हैं. उनके पोस्ट में बगावत भी होती है, शरारत भी, कहीं-कहीं कुछ अतिरेक भी, कभी-कभी अध्ययन की कमी नज़र आती है, मगर अनुभव की प्रामाणिकता और बयान की ईमानदारी इतनी खरी होती है कि वह प्रभावित करती है और अक्सर वे लोग ख़ुद को छलनी महसूस करते हैं जो यथास्थितिवादी ढंग से सोचने के आदी हैं.
हाल ही में इन लोगों ने ‘मेरी रात मेरी सड़क’ नाम की यादगार मुहिम शुरू की जिसमें देश भर की लड़कियां जुटीं. लड़कियों के लिए रात को अचानक लग जाने वाले कर्फ़्यू को तोड़ने की यह पहल साहसिक भी रही और इसके दूरगामी संकेत भी रहे.
इस सूची में दो अलग से दिखने वाली लड़कियां शिखा अपराजित और कविता कृष्णपल्लवी हैं. कम्युनिज़्म में बहुत गहरी आस्था के साथ शिखा संसदीय लोकतंत्र के पाखंड और उदारवाद के नाम पर दलीय समझौतों की खिल्ली उड़ाती हैं और कविता मौक़े-बेमौक़े वामपंथ के नाम पर चलने वाले संशोधनवाद पर भी चोट करती हैं. इन दो खांटी कम्युनिस्ट लड़कियों को देख ख़ुद को वामपंथी कहने वाले शरमाएं.
कानपुर की अनीता मिश्रा के नाम का खयाल भी इसी कड़ी में आता है. वह कभी व्यंग्य में, कभी दो-टूक, मर्दवाद के अलग-अलग पहलुओं पर हमले करती है. राजनीति पर भी उनकी चुटीली टिप्पणियां लाजवाब करने वाली होती हैं.
इस स्त्री कथा को तीन और लड़कियां तीन अलग-अलग कोणों से बढ़ाती हैं. मुक्ता यानी स्वर्णकांता बड़ी संजीदगी से उन मुद्दों की बात करती हैं जहां घर और दफ़्तर की निजी और सार्वजनिक दुनिया में उनको लैंगिक संकटों और असुविधाओं का सामना करना पड़ता है.
शायद पीरियड्स की समस्या पर सबसे पहले उन्होंने ही खुल कर लिखा और बहुत संजीदगी से लिखा. साहित्य और सिनेमा पर अच्छी पकड़ रखने वाली सुदीप्ति परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व पर भी जम कर लिखती रही हैं और परंपरावादी कुढ़मगजता के साथ-साथ आधुनिकता के खोखलेपन का भी मुक़ाबला करती रही हैं.
सर्वप्रिया सांगवान ठेठ राजनीतिक और वैचारिक बहसों में भिड़ी दिखाई पड़ती हैं. उनके भीतर एक अलग प्रखरता का विकास होता दिखता है.
इसी कड़ी में नीलिमा चौहान परिवार और विवाह जैसी संस्थाओं के पुरुष वर्चस्व पर चुटीले ढंग से सवाल उठाती रही हैं. उनकी फेसबुक टिप्पणियों के विस्तार से बनी उनकी किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ हाल के दिनों में वाणी प्रकाशन की सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताबों में रही.
यह सूची बहुत लंबी है. आप एक नाम याद करते हैं, उसके साथ लगे-लगे बीस नाम और याद आ जाते हैं. ऐसा भी नहीं कि ये लड़कियां हमेशा बागी तेवरों में रहती हों या सिर्फ किसी कल्पित यौन क्रांति की बात करती हों. वे जैसे बार-बार साबित करती हैं कि जीवन और समाज के दूसरे पहलुओं पर भी उनकी नजर और पकड़ अपने पुरुष मित्रों से कहीं कम नही है.
यहां लेखक और ‘कथन’ जैसी पत्रिका के संपादक के रूप में सुपरिचित संज्ञा उपाध्याय का एक नया रूप सामने आता है- एक ऐसी फोटोग्राफर का, जिसका कोई जवाब नहीं है. यहां अपराजिता शर्मा अपनी हिमोजी के साथ मिलती है. अब जर्मनी पहुंच गई शोभा सामी यहां मित्रों को किताबें बांटती नज़र आती है.
यहां दूर-दराज के इलाकों में स्त्री-उत्पीड़न की मार्मिक कथाएं देख-खोज रही प्रियंका दुबे अचानक निर्मल वर्मा की किताबों के साथ मिलती है. ‘क से कविता’ जैसा आत्मीय आयोजन करने वाली प्रतिभा कटियार अपनी यात्राओं के ब्योरे डालती है. अणुशक्ति सिंह, मनोरमा सिंह, विमलेश शर्मा जैसी ढेर सारी और लड़कियां हैं जो इस फेसबुक का अपनी अभिव्यक्ति के लिए बेहतरीन इस्तेमाल कर रही हैं.
इसी फेसबुक से अनु सिंह, बाबुषा कोहली, रश्मि भारद्वाज, सुजाता या सीमा संगसार जैसी कवयित्रियों ने अपनी पुख्ता पहचान बनाई. इसमें वे महिलाएं शामिल नहीं हैं जो प्रिंट से या किताबों के जरिए पहले से सुख्यात हैं और अक्सर इन लड़कियों को संबल देती दिखाई पड़ती हैं.
पिछले दिनों जब यौन उत्पीड़न के अनुभव को साझा करने के लिए #metoo से एक सिलसिला शुरू हुआ तो सोशल मीडिया की इन लड़कियों को अचानक जैसे अपने लिए एक सहारा और मुहावरा मिल गया. इसके बाद तो फेसबुक-ट्विटर ऐसी कहानियों से पट गए जो बिल्कुल दिल चीर देने वाली थीं.
इन लड़कियों ने बिल्कुल सही शिनाख़्त की कि उनका उत्पीड़न किसी बाहरी, सड़क पर चलते लोगों ने नहीं, अपने बीच बैठे, अपना भरोसा बनाए लोगों ने किया- वे लोग जो उनके रिश्तेदार थे, मित्र थे, सहकर्मी थे, सहपाठी थे. इस बयान का साहस और इसके लिए ज़रूरी एकजुटता सिर्फ इसी मंच पर सुलभ थी.
यह लेख लिखने के दो ख़तरे हैं. आप एक नाम लेते हैं, कई छूटते हैं. कई ऐसे नाम भी छूट सकते हैं जो मेरी मित्र सूची में नहीं हैं. इसलिए यह न माना जाए कि यही फेसबुक की प्रतिनिधि लड़कियां हैं. दूसरी बात यह कि जब आप लड़कियों को लेकर कुछ लिखते हैं तो अचानक बहुत सारे लोगों की सामंती सड़ांध अपनी कल्पनाशीलता के चरम पर पहुंच जाती है. इस कुत्सा से निजात पाने का इकलौता तरीक़ा यही है कि इनसे बार-बार मुठभेड़ की जाए. यह लेख इसकी भी एक कोशिश है.
आख़िरी बात. इन बहुत सारी, विविध किस्म की लड़कियों में कई बातें साझा हैं- ये प्रगतिशील हैं, परंपरा के नाम पर रूढ़िवाद पर चोट करती हैं, लेकिन आधुनिकता को भी जहां ज़रूरी हो, वहां संदेह से देखती हैं. ये उग्र राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ नजर आती हैं और मानवाधिकारों के पक्ष में खड़ी होती हैं. पर्यावरण को लेकर एक संवेदनशील नज़रिया इनके पास है.
यह सारी चीजें याद दिलाती हैं कि जिस तरह- दुनिया भर में स्त्रीवाद अपने कई सखा आंदोलनों के साथ लगभग हमकदम होकर चला है- कभी वह पर्यावरण आंदोलन के साथ रहा है, कभी अश्वेत आंदोलन के साथ और कभी मानवाधिकार आंदोलन के साथ- उसी तरह भारत में भी ये लड़कियां पितृसत्ता के अलग-अलग रूपों का विरोध करती हुई अंततः बराबरी और न्याय की बड़ी लड़ाई के साथ हैं और उन समूहों के साथ जो विकास की नई परियोजनाओं में बिल्कुल हाशिए पर हैं.
ये बिगड़ी हुई लड़कियां फेसबुक को कहीं ज़्यादा मानवीय शक्ल देती हैं.
(प्रियदर्शन की फेसबुक से साभार)
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