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भीमा कोरेगांव और मीडिया का सौतेला व्यवहार
मुंबई की सड़कों पर दलित प्रदर्शनकारियों का गुस्सा स्पष्ट था. यह सिर्फ महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ ही नहीं बल्कि बड़े मीडिया संस्थानों के पक्षपात के खिलाफ भी था.
बुधवार, 3 जनवरी को बड़े पैमाने पर शांतिपूर्ण बंद होने के दौरान, अम्बेडकरवादी प्रदर्शनकारियों ने एनडीटीवी के पत्रकार सुनील सिंह के खिलाफ जमकर अपना गुस्सा जाहिर किया. उन्हें कैमरा बंद करने और रिपोर्टिंग बंद करने के लिए दबाव डाला. लेकिन भीड़ ने उनको न तो मारा पीटा और ना ही उनका कैमरा क्षतिग्रस्त किया.
सुनील ने थोड़ी देर रुकने के बाद एक बार फिर से उसी अंदाज में रिपोर्टिंग शुरू कर दी.
मीडिया का भीमा कोरेगाव घटना पर बहिष्कार
प्रदर्शनकारियों का नाराज होना जायज है और दुर्भाग्य से उनके गुस्से का निशाना सुनील सिंह बन गए. सुनील सिंह को इसलिए भी निशाना बनना पड़ा क्योंकि वो उस दिन मीडिया के एक हिस्से का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो इस घटना की एकतरफा रिपोर्टिंग कर रहा था.
यह समझना महत्वपूर्ण है कि प्रदर्शनकारियों का यह क्रोध कहां से उत्पन्न हो रहा है.
कुछ दिन पहले, जब ब्रिटिश सेना की महार बटालियन द्वारा पेशवा सेना को हराकर जीत हासिल की थी उसकी दो सौवीं सालगिरह की ऐतिहासिक घटना को किसी भी हिंदी या मराठी चैनल ने कवर करने लायक नहीं समझा था.
नए साल के पहले ही दिन एक अनुमान के मुताबिक करीब दो लाख लोग पुणे से करीब 30 किमी पूर्व में स्थित भीमा कोरेगांव नामक गांव में जमा हुए थे. लेकिन जल्द ही वीरता के जश्न का यह उत्सव दु:ख में बदल गया. कुछ दलित समूहों के ऊपर भगवा ध्वज लहरा रहे युवाओं की एक भीड़ ने लक्षित हमला किया.
नीले झंडे और अशोक चक्र के निशान वाली गाड़ियों और वाहनों को निशाना बनाकर उन्हें जलाया गया और क्षतिग्रस्त कर दिया गया.
मराठी मीडिया सहित मुख्यधारा के तमाम मीडिया संगठनों से किसी ने भी एक जनवरी के इस हमले को ज्यादा तवज्जो नहीं दिया. हालांकि यह खुलेआम हो रहा था. मीडिया कवरेज की अनुपस्थिति में, कई दलितों ने फेसबुक लाइव के माध्यम से खुद ही अपने ऊपर हुए हमले और इसमें जख्मी लोगों की तस्वीरें दिखानी शुरू कर दीं. इसमें उन पर हमला करने वाले कथित हमलावरों की भी तस्वीरें सामने आईं.
उदाहरण के लिए, अम्बेडकर टीवी के फेसबुक पेज ने समता सैनिक दल के लॉन्ग मार्च को कवर कर रहे अंबेडकर टीवी के पत्रकार द्वारा दलितों पर हुए हमले का एक वीडियो अपलोड किया. उसमें जगह-जगह आगजनी, पथराव, जख्मी दलित कार्यकर्ता, जनता तथा आग के हवाले हो रही गाड़ियां दिखाई गईं.
आदर्श रूप से, इस तरह की घटनाओं की रिपोर्टिंग मुख्यधारा के मीडिया समूहों का काम है. लेकिन इसके एक बड़े वर्ग ने भीमा कोरेगांव में हिंसा को नज़रअंदाज करने का फैसला किया, जैसे कि वे अन्य अम्बेडकरवादी समारोहों को नजरअंदाज करते रहे हैं. मुंबई में 6 दिसंबर को हर साल होने वाला अंबेडकर का महापारिनिर्वाण कार्यक्रम हो या नागपुर में 14 अक्टूबर का बौद्ध धर्म स्वीकारने की सालगिरा का कार्यक्रम हो.
मीडिया ने ऐसी ख़बरों को जानबूझ कर नज़रअंदाज किया.
भीमा कोरेगांव हमले में बड़ी संख्या में लोग घायल हुए थे. इसके बावजूद मंगलवार, 2 जनवरी की शाम को जब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के पोते प्रकाश अम्बेडकर ने राज्यव्यापी बंद का आह्वान किया था, तब जाकर टीवी चैनलों की नींद टूटी. दलितों का जो विरोध छोटे-छोटे स्तर पर महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में हो रहा था उसे तब तक मीडिया नज़रअंदाज करता रहा.
चैनलों ने कहानी ही बदल दी:
टीवी चैनलों ने जब इस घटना को कवर करना शुरू भी किया तो इसका पूरा चरित्र ही ‘जाति की राजनीति’ और ‘यातायात की समस्या’ जैसे बिल्कुल अलहदा विषयों की ओर केंद्रित कर दिया.
महाराष्ट्रव्यापी बंद को ज्यादातर मीडिया ने दो जातियों के “संघर्ष” के रूप में प्रचारित किय. टीवी पर चली खबरें “यातायात की समस्याओं” से जुड़ी रही.
मंगलवार, 2 जनवरी को रिपब्लिक टीवी के अर्नब गोस्वामी ने प्रकाश अम्बेडकर को आमंत्रित किया, सिर्फ उनसे एक ही सवाल पूछने और उन्हें अपमान करने के लिए कि क्या वह “शर्मसार है?”
बोलने के लिए दो निर्बाध सेकंड भी न देते हुए, 31 दिसंबर को पुणे में आयोजित एक रैली में जेएनयू छात्र नेता उमर खालिद की मौजूदगी को लेकर अर्नब उन्हें लगातार टोकते रहे.
प्रकाश अम्बेडकर ने कहा कि वह रैली के आयोजक नहीं थे, लेकिन अर्नब ने उनकी एक नहीं सुनी. नाराज, प्रकाश अम्बेडकर ने बहस बीच में छोड़ दी. इस दरम्यान रिपब्लिक टीवी एक हैशटैग #StopCastePolitics लगातार चलाया.
दलितों पर हमले की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए, अर्नब और ‘आज तक’ के एंकर रोहित सरदाना ने एक जनवरी के हमले के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, खालिद और गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी पर आरोप लगाया. एक मिनट के लिए भी उन्होंने संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे समते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हिंदुवादी नेताओं का उल्लेख नहीं किया, जबकि उनके खिलाफ पुणे पुलिस ने दलित उत्पीड़न प्रतिबन्ध कानून के तहत शिकायत दर्ज की थी.
रिपब्लिक टीवी की प्रतियोगी “टाइम्स नाउ” की नविका कुमार भी अलग नहीं थी. उन्होंने दो जनवरी की बहस इस तरीके से शुरुआत की- “जिग्नेश मेवानी गुजरात से जाति की राजनीति महाराष्ट्र में ले आए हैं. उनके भाषण के 24 घंटों बाद क्यों हुई यह हिंसा?”
हालांकि उनके शो में भाग लेने वालों में देवाशीष जरारिया ने भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की, पर नाविका पूरी बहस को जातीय राजनीति पर टिकाये रही और कांग्रेस को दोषी ठहराती रही.
मुंबई मिरर अख़बार में अलका धुपकर ने लिखा, “इस बार, भिड़े और एकबोटे राज्य में दलितों के खिलाफ हिंदुत्व सेना को खड़ा किया है. पहले उन्होंने शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी राव भोसले का अंतिम संस्कार करने वाले गोविन्द महार (गायकवाड़) की समाधि का अपमान किया. यह समाधि भीमा कोरेगांव से सटके है. एक जनवरी से सिर्फ कुछ दिन पहले यह घटना हुई. इस तरह दलितों के खिलाफ भड़काने का काम भीड़े और एकबोटे के लोगो ने किया. जबकि हकीकत ये है की गोविन्द महार (दलित) ने संभाजी का अंतिम संस्कार उनके शरीर के टुकड़े इकट्ठा करके किया, जो कि अन्य कोई मुगलों के डर से नहीं कर पा रहा था.”
यह सच सामने होने के बावजूद यह आश्चर्य की बात है कि टीवी चैनलों ने भीड़े और एकबोटे की भूमिकाओं पर चर्चा नहीं करने का फैसला किया. हिंदी तथा मराठी चैनलों ने संभाजी उर्फ मनोहर भीड़े से तीखे सवाल पूछने कि बजाय उनकी तारीफ के पुल बांधने शुरू कर दिए.
फडणवीस: एक असफल मुख्यमंत्री
चैनलों ने मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को कटघरे में क्यों नहीं खड़ा किया?
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस राज्य का गृह मंत्रालय भी संभालते हैं, लेकिन जब से वे मुख्यमंत्री बने हैं, तबसे क़ानून व्यवस्था के मोर्चे पर महाराष्ट्र लगातार मुंह की खा रहा है.
दलितों पर बढ़ी हिंसा के खिलाफ मुख्यमंत्री ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की. सतारा या नाशिक में दलितों पर हमले होने के बाद सरकार के खिलाफ दलितों का असंतोष बढ़ता जा रहा था.
अहमदनगर की एक सत्र अदालत ने हाल ही में दलित युवा नितिन आगे की हत्या में सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया था. इसके बावजूद कि उसकी खुले आम हत्या कर दी गयी थी, पुलिस और स्थानीय प्रशासन इसमें न्याय दिलाने में नाकाम रहे. फडणवीस साहब इस फैसले के बाद तुरंत हरकत में आकर इस निर्णय पर उच्च न्यायलय में चुनौती देने में तत्परता नहीं दिखा पाए.
भीमा कोरेगांव हिंसा पर चर्चा के दौरान, टीवी चैनलों और एंकरों को कम से कम इन मुद्दों का विश्लेषण करने और महाराष्ट्र में दलित अत्याचार के मामलों को लेकर चर्चा करनी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने इसे गलत तरीके से पेश किया.
जब मोदी और फडणवीस की भीड़े और एकबोटे के साथ ली गयी पुरानी तस्वीरें सामने आयी तब भी मुख्यधारा के मीडिया ने न तो उसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया और न ही उस पर गौर किया.
मराठी मीडिया ने तो मनोहर भीड़े जिनके ऊपर अनेक गंभीर मामले दर्ज हैं, बजाय इसके कि उनको भीमा कोरेगांव केस में कटघरे के खड़ा करे, उनकी प्रशंसा करना शुरू किया. मशहूर स्वतंत्र पत्रकार निखिल वागले ने टीवी 9, एबीपी माझा, टीवी-18 जैसे उन मराठी मीडिया की पोल खोली जिन्होंने मनोहर भिड़े को क्लीन चिट दी थी.
अधिकांश टीवी मीडिया ने बंद के दौरान किसी भी प्रदर्शनकारी से बात करना जरूरी नहीं समझा. दलित महिलाएं बड़ी संख्या में आंदोलन के लिए बाहर निकली थीं लेकिन पत्रकारों ने उनकी शिकायतों के बारे में भी बात करना जरूरी नहीं समझा.
शाम को बंद की अवधि खत्म होने के बाद कई लोगों ने ट्वीट के जरिए इसे शांतिपूर्ण और अहिंसक होने की बात बताई. अंधेरी में रहने वाली संजना, ने प्रदर्शनकारियों की तस्वीरें लीं और ट्वीट किया- “महिलाओं और बच्चों का विरोध प्रदर्शन, कोई हिंसा नहीं, कोई पथराव नहीं, सिर्फ लोग अपने अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं.”
ऐसा क्यों है कि ऐसी आवाजें और चेहरे टीवी मीडिया की नज़र से बच गए? कुल मिलाकर, ऐसा प्रतीत होता है कि दलितों द्वारा किए जाने वाले विरोध प्रदर्शनों के प्रति मीडिया की कवरेज की पुरानी मानसिकता में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है. पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका से मदद न मिलने पर न्याय की अंतिम उम्मीद दलितों के लिए मीडिया है.
पुलिस प्रशासन की बेरुखी
पुलिस का रवैया हमेशा दलित प्रदर्शनकारियों के प्रति बेहद कठोर रहा है. महाराष्ट्र में ही, 1997 में, रमाबाई नगर में एक अम्बेडकर मूर्ति को अपवित्र करने का विरोध कर रहे 10 निहत्थे दलितों की पुलिस ने हत्या कर दी थी. तब भी मीडिया ने घटना के पुलिसिया संस्करण पर विश्वास करते हुए प्रदर्शनकारियों को ही दोषी ठहराया था.
पुलिस ने बताया था की भीड़ एक एलपीजी टैंकर को आग लगा रही थी इसलिए उनको मजबूरन दलितों पर फायरिंग करनी पड़ी. न्यायमूर्ति गुंडेवार की न्यायिक जांच में पुलिस की कहानी गलत साबित हुई. क्योंकि उस वक्त वहां कोई एलपीजी टैंकर मौजूद ही नहीं था और वो गोलीबारी के बाद घटनास्थल पर लाई गई थी. इस मामले में इंस्पेक्टर मनोहर कदम को कारावास की सजा सुनाई गई. दुःख की बात यह है के मनोहर कदम को सरकार ने पूरी सजा भुगतने से पहले ही स्वस्थ कारणों का बहाना बनाकर रिहा कर दिया.
2006 में, कई दलितों ने महाराष्ट्र के खैरलांजी में एक दलित परिवार पर हुए भयानक बलात्कार और हत्या के खिलाफ में सड़कों पर आंदोलन किया तब मीडिया ने खैरलांजी की ख़बर को नज़रअंदाज करके केवल दलित प्रदर्शनों में लोगो को कितनी असुविधा हुई इसकी ख़बरें चलाई. पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को अंधाधुंध जेल में डालते हुए उन पर कार्रवाई की, इसे मीडिया ने दिखाया ही नहीं.
3 जनवरी को हुए महाराष्ट्र बंद के दौरान भी करीब १० हजार प्रदर्शनकारियों को सरकार ने हिरसात में लिया है. लेकिन पुलिस और प्रशासन कि इस अतिरंजित कारवाई पर मीडिया पुरी चुप्पी साधे हुए है.
ध्यान दें कि हाल के करणी सेना और राजपूत विरोधों पर मीडिया की रिपोर्ट इसके कितना विपरीत है. टीवी वालों ने विरोध प्रदर्शन कर रहे राजपूतों को न सिर्फ पर्याप्त समय दिया बल्कि पर्याप्त रूप से वे इसके साथ सहमत होते भी दिखे. टीवी स्टूडियो में तलवार चलाने की इजाजत दी गई. मिडिया का ऐसा उदार रुख दलित विरोध प्रदर्शन के समय नदारद रहा.
अगर मीडिया ने अपनी इस तरह की दोहरी मानसिकता को नहीं बदला तो इसकी विश्वसनीयता आने वाले समय में और भी बर्बाद होगी. ठीक वैसे ही जैसे एनडीटीवी के सुनील सिंह के साथ हुआ.
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