Newslaundry Hindi
मगही पान: बिहार के मुंह की लाली, पान किसानों की बदहाली
‘चैत में पान रोपे हैं, तब से रोज़ाना सुबह सात बजे से शाम पांच बजे तक खेत में ही लगे रहते हैं. पान की खेती के लिए बांस से लेकर एरकी (सरपत या मूंज) सबकुछ बाज़ार से खरीदना पड़ता है. अब तो इतनी मेहनत के बाद भी साल में 20-30 हजार रुपये की बचत नहीं हो पाती. दो बच्चे विकलांग हैं. सोच रहे थे कि पान की अच्छी खेती हुई तो इस बार दोनों बच्चों को डॉक्टर को दिखाएंगे, पर अब तक इस खेती के लिए ही 20 हज़ार रुपये कर्ज़ ले चुके हैं. क्या करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा.’ दुबली कदकाठी वाले 32 वर्षीय सुनील कुमार पान के तने की गोलिअउनी (तने को घुमाकर सरपत में बांधा जाता है ताकि वह ऊपर की तरफ न बढे. स्थानीय भाषा में इसे ही गोलिअउनी कहा जाता है) करते हुए एक सांस में अपनी व्यथा बता गए. आगे वह बमुश्किल दो-तीन वाक्य ही बोल पाये, उनका गला रुंध गया.
सुनील बिहार के नवादा जिले में पड़ने वाले हिसुआ ब्लॉक के एक छोटे-से गांव ढेउरी में मगही पान की खेती करते हैं. बाप-दादा से विरासत में उन्हें पान की खेती मिली है. ढेउरी गांव मुख्य सड़क से दो किलोमीटर भीतर है. यहां के 100 से अधिक किसान क़रीब 40 बीघे में पान की खेती करते हैं.
यह बिहार का मगध का इलाका है. इस पूरे इलाके में खेती के एक बड़े भू-भाग पर विश्व प्रसिद्ध मगही पान की खेती होती है. समय बदलने के साथ पान की खेती की लागत कई गुना बढ़ गई है लेकिन बाजार में उचित मूल्य न मिल पाने के कारण मगही पान के ज्यादातर किसान इसी तरह की समस्या से घिरे हैं.
मगही पान की खेती मुख्य रूप से मगध इलाके के चार जिलों औरंगाबाद, नवादा, गया और नालंदा में बड़े पैमाने पर किसान करते हैं. इन चार जिलों के तक़रीबन पांच हजार किसान परिवार पान की खेती से जुड़े हुए हैं.
बिहार की कुछ बेहद नामचीन पहचानों में एक पहचान यहां का मशहूर मगही पान भी है. इसके बावजूद कमोबेश सभी पान किसान गुरबती, बेबसी और कर्च के कुचक्र में उसी तरह नधे हुए है जैसे देश के दूसरे हिस्सों के किसान. लेकिन इन किसानों की कहानी देश-समाज के सामने बहुत कम ही आ पाती है.
मगही पान की खोती में आई दुश्वारियों की कई वजहें हैं.
हर बार नये साज़-सामान की खरीद
सुनील बताते हैं, ‘एक कट्ठे में पान की खेती करने के लिए 1000 बांस की मोटी फट्ठी, एक हजार बांस की पतली फट्ठी, नारियल की रस्सी 8 से 10 किलो, 4000 एरकी (मूंज) और पुआल की जरूरत पड़ती है. पान का बीज नहीं होता है. पत्ते जहां से निकलते हैं, उसे ही मिट्टी में डाल दिया जाता है तो पौधा तैयार हो जाता है, इसलिए पौधा खरीदने के लिए कोई खर्च नहीं करना पड़ता है. हां, साल भर में एक क्विंटल सरसों की खली और हर 15 दिन पर कीटनाशक व फफूंदीनाशक दवाइयों का छिड़काव अनिवार्य है. ये सभी चीजें बाजार से हर साल खरीदनी पड़ती हैं. एक साल में कम से कम 80 बार पान की सिंचाई की जाती है. अगर गर्मी ज्यादा पड़ जाये, तो अधिक सिंचाई की दरकार पड़ती है. सिंचाई के लिए मोटर भाड़े पर लाना पड़ता है. कुल मिलाकर एक साल में एक कट्ठे में 30 हजार रुपये की लागत आती है. इस लागत में हमारी मेहनत शामिल नहीं है.’
वह आगे कहते हैं, ‘बांस व अन्य सामान एक साल बाद काम लायक नहीं रहते हैं इसलिए उन्हें जलावन बना दिया जाता है और नये सिरे से सामान खरीदना पड़ता है, क्योंकि मगही पान की खेती एक ही खेत में लगातार नहीं की जा सकती है. इससे इसकी गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ता है.’
मौसम से मुठभेड़
पान उसमें भी मगही पान बेहद नाजुक मिजाज पौधा है. इसे न ज्यादा गर्मी चाहिए, न ज्यादा ठंड और न ज्यादा पानी. 9 कट्ठे में पान की खेती कर रहे ढेउरी के ही किसान उपेंद्र कुमार बताते हैं, ‘गर्मी के मौसम में हमें अपना पैर सिर पर रख लेना होता है. लोग लू के थपेड़ों से बचने के लिए घरों में दुबके होते हैं, तो हम लोग खेत में पान पर नजरें गड़ाये रहते हैं. बहुत गर्मी पड़ने पर कई बार पानी का छिड़काव करना पड़ता है. अगर एक घंटे के लिए भी ध्यान हटा तो पान, गोबर बन जायेगा. वहीं, ज्यादा सर्दी होने पर भी पान खराब हो जाता है. गर्मी में तो पानी देकर किसी तरह पान को बचाया जा सकता है, लेकिन सर्दी में अगर तापमान 5 डिग्री सेल्सियस से नीचे उतरा, तो पान का बचना नामुमकिन हो जाता है.’ उपेंद्र की बातों का समर्थन करते हुए सुनील जोड़ते हैं, ‘अगर भारी बारिश हो गयी या तूफान आ गया, तो भी पान बर्बाद हो जाता है.’
कीट-पतंग और बीमारियों का कहर
मौसम की मार से अगर पान बच भी गया, तो कीट व संक्रमण रोगों से उसे बचाने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है. अक्सर किसान इन चुनौतियों से जीत भी जाते हैं, लेकिन कबी-कभी उन्हें हारना भी होता है. पिछले दिनों जिस वक्त बिहार के कृषि मंत्री डॉ प्रेम कुमार प्रेस को यह सूचना दे रहे थे कि मगही पान को जीआई टैग मिलने जा रहा है, उसी वक्त राजधानी पटना से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर हिसुआ ब्लॉक के ही डफलपुरा गांव के आधा दर्जन किसान उजड़ चुके पान के भीटे या बरेजा (पान के खेत को चारों तरफ और ऊपर से पुआल लगाकर घेर दिया जाता है. उसे किसान बरेजा कहते हैं) के भीतर सिसक रहे थे.
काले पड़ चुके पान के डंठल को दिखाते हुए डफलपुरा गांव के 35 वर्षीय किसान रणवीर बताते हैं, ‘मैंने आठ कट्ठे में पान की खेती की थी. करीब तीन लाख रुपये लगा चुका था. दो-तीन महीने बाद ही पान के पत्ते तोड़े जाने जाने थे. एक सुबह देखा कि अचानक पान के तने सूख गये हैं. छोटी-छोटी पत्तियां रह गयी हैं, जिनका कोई खरीदार नहीं मिलेगा.’ 3 लाख रुपये का जो नुकसान हो गया, उसकी भरपाई कैसे होगी? इस सवाल के जवाब में रणवीर कुछ पल खामोश रहते हैं और फिर कहते हैं, ‘क्या करेंगे, पान की खेती ही छोड़ देंगे.’
रणवीर के खेत के पास ही जीतेंद्र कुमार का भी खेत है, जिसमें उन्होंने पान की खेती कर रखी थी. उनका पान भी बर्बाद हो गया है. मायूस जीतेंद्र कहते हैं, ‘बच्चा जन्म लेता है और उसे जितना जतन कर पाला जाता है, उससे ज्यादा मेहनत हमलोग मगही पान की करते हैं. इस तरह अगर पान की लहलहाती फसल बर्बाद हो जाती है, तो हमारे पास कर्ज लेने या खेत बेचने के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं बचता है. पान की खेती से नुकसान के कारण कई किसान दूसरे राज्य में पलायन कर गये हैं. अगर हालात ऐसे ही रहे, हमें भी शहर-शहर मारे फिरने को मजबूर हो जाना पड़ेगा.’
इसी गांव के धीरेंद्र कुमार चौरसिया ने साढ़े चार लाख रुपये कर्ज लेकर 15 कट्ठे में पान की खेती की थी. जड़ों में कीड़े लग जाने से उनका पूरा खेत वीरान हो गया है. धीरेंद्र कहते हैं, ‘मुझे तो डर के मारे रातों को नींद तक नहीं आती. पता नहीं, महाजन क्या सुलूक करेगा मेरे साथ!’
ये महज कुछ बानगी हैं. ऐसे किसानों की संख्या सैकड़ों में है. मगही पान उत्पादक कल्याण समिति के सचिव रणजीत चौरसिया के मुताबिक, हर साल करीब 25 फीसद किसानों का पान बर्बाद हो ही जाता है.
न मुआवजा, न सब्सिडी, न बीमा
पान की खेती में हर साल नये सिरे से पूंजी लगती है. मौसम की मार भी झेलनी पड़ती है, सो अलग और कीट-पतंग व रोगों का कहर तो है ही. कुल मिलाकर पान की खेती में जोखिम बेशुमार है, मगर बिहार सरकार की तरफ से पान किसानों के लिए न तो बीमा का प्रावधान है, न ही सब्सिडी दी जाती है और फसल बर्बाद होने की सूरत में मुआवजा भी नहीं मिलता.
गौरतलब है कि बिहार के कृषि विभाग की ओर से सब्जियों से लेकर तमाम फसलों के लिए सब्सिडी व नुकसान होने पर मुआवजा दिया जाता है, लेकिन पान के किसानों के लिए ऐसी कोई योजना नहीं है.
अगरचे, बीच में तीन वर्षों तक पान के किसानों को बिहार बागवानी मिशन की ओर से सब्सिडी दी गयी थी. रणजीत के अनुसार वर्ष 2010, 2011 और 2013 में 200 वर्गमीटर खेत के लिए 15 हजार रुपये सब्सिडी दी गयी थी. इस योजना से पान के किसानों को संजीवनी मिली और पान की खेती छोड़ चुके कई किसानों ने दोबारा खेती शुरू कर दी, पर पिछले चार साल से सब्सिडी बंद है. उन्होंने कहा, ‘पान किसानों को मुआवजा भी नहीं मिलता है और न ही वे बीमा करवा सकते हैं, क्योंकि पान को बीमा योजना में शामिल ही नहीं किया गया है.’
यहां यह भी बता देना जरूरी है कि पिछले महीने बिहार सरकार ने कृषि रोडमैप 2017-22 जारी किया है. रोडमैप में अगले पांच सालों में खेती के विकास पर 1.54 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है. लेकिन, इसमें पान की खेती के विकास पर कुछ खास चर्चा नहीं की गयी है, सिवा इसके कि सरकार पान की खेती को बढ़ावा देगी. इससे भी समझा जा सकता है कि पान के किसानों को लेकर सरकार कितनी गंभीर है.
बनारस जाते हैं पान बेचने, लुट कर लौटते हैं!
मौसम की बेरुखी और बीमारियों से जूझते हुए जब किसान पान बचा लेते हैं, तो उन्हें बेचने के लिए बनारस का रुख करना पड़ता है. पूरे बिहार में पान की कई बड़ी मंडी नहीं है. लिहाजा एक बार पान तैयार हो जाने के बाद इसे बनारस ले जाना पान किसानों की मजबूरी है. स्थानीय दुकानदार तोड़ा-बहुत पान जरूर खरीदते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर इसकी बिक्री के लिए बनारस जाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है.
पान किसानों के अनुसार, बनारस में बिचौलिये औने-पौने भाव में पान खरीदते हैं और एक बार में पूरा दाम भी नहीं देते. एक-दो साल तक झुलाकर पैसे देते हैं. ऐसा शायद ही कोई किसान होगा, जिसका पैसा बकाया नहीं. यह पूरी तरह से असंगठित क्षेत्र है. इसकी खरीद-फरोख्त के लिए कोई आधिकारिक मंडी या कृषि समिति नहीं है.
जीतेंद्र बताते हैं, ‘बहुत दिक्कत है. पिछले साल का 40 हजार रुपये अब तक बकाया है. रेट भी मनमाना लगाते हैं. 50 रुपये का पान हो, तो कहते हैं कि 10 रुपये में ही खरीदेंगे. हम इतनी दूर पान बेचने जाते हैं, अगर नहीं बेचेंगे, तो उसे लेकर करेंगे क्या, इसलिए हम औने-पौने दाम पर बेचने को विवश हो जाते हैं.’
पान को तोड़ने के बाद उसे 200 की संख्या में सजाकर एक बंडल बनाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में ‘ढोली’ कहता है. एक ढोली सजाने के एवज में मजदूर 8 रुपये लेता है. एक कट्ठे में औसतन 500 से 600 ढोली पान होता है. किसान एक बार में ज्यादा से ज्यादा 100 ढोली पान ही ले जा पाता है. यानी 500 ढोली पान बेचने के लिए किसान को 5 बार बनारस जाना पड़ता है. इससे आने-जाने में काफी खर्च हो जाता है और पान बेचने में ही 15-20 दिन बर्बाद हो जाते हैं.
ये तो हुई मोटी-मोटी बातें, लेकिन वाराणसी में समस्याएं और भी महीन हैं. मगही पान उत्पादक समिति के सचिव रणजीत बताते हैं, ‘वाराणसी में बिचौलियों की मनमानी भी किसानों की परेशानी का सबब बनती है. अव्वल तो वे औना-पौना रेट लगाते हैं और दूसरा एक टोकरी (एक टोकरी में 50 से 100 ढोली पान होता है) पान बिकवाने पर 5 से 10 ढोली पान फ्री में ले लेते हैं. कमीशन एजेंट अलग से 100 रुपये में 7.50 रुपये कमीशन और एक टोकरी पर एक ढोली पान लेता है. जहां मंडी लगती है, उस जमीन के मालिक को एक टोकरी पर 20 रुपये देने पड़ते हैं. इन सबके दीगर करदा और खैरात के रूप में भी कुछ पैसा देना होता है.’
इन कदमों से बदल सकता है सूरत-ए-हाल
मगही पान किसानों की समस्याओं के मद्देनजर बिहार में पान की मंडी आधिकारिक मंडी मौजूदा वक्त की जरूरत है. धीरेंद्र कुमार कहते हैं, ‘अगर गया या पटना में सरकार पान की मंडी खोल दे और किसानों को पान की खेती के लिए सब्सिडी और फसल बर्बाद होने पर मुआवजे की व्यवस्था कर दे, तो हमारे दिन सुधर सकते हैं.’
रणजीत चौरसिया ने कहा, ‘यहां अंतरराष्ट्रीय मंडी खोलने के साथ ही सरकार अगर पान की प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित कर देती है, तो हम पान का प्रसंस्करण कर ऊंची कीमत पर उन्हें बाजार में बेच पायेंगे. जो पान हम 50 पैसे या 1 रुपये में वाराणसी में जाकर बेचते हैं, उसे ही वहां के कारोबारी प्रसंस्करण कर मोटी कीमत पर बेचकर मालामाल हो रहे हैं.’
लंबे अरसे से पान हिन्दुस्तानी तहज़ीब का एक अहम हिस्सा रहा है. तहजीब से इतर धार्मिक रीति-रिवाजों में भी इसकी गहरी घुसपैठ है. इस देश के एक ब़ड़े हिस्से में पान खाना और खिलाना समाजिक राब्ते और रिश्तों की गहराई बढ़ाने, मेहमान-नवाज़ी की रस्म का रंग चटख लाल करने का अहम ज़रिया है. इस लाली का रंग पान के उस किसान तक पहुंचे तो रंग और सुर्ख़ हो जाय. मगही पान के किसान इसी उम्मीद से हैं. वही उम्मीद जिसकी उम्मीद देश के ज्यादातर किसानों को रहती है.
Also Read
-
Delhi’s ‘Thank You Modiji’: Celebration or compulsion?
-
Dhanyavaad Modiji, for keeping independent journalism premium with 18% GST
-
DU polls: Student politics vs student concerns?
-
Margins shrunk, farmers forced to switch: Trump tariffs sinking Odisha’s shrimp industry
-
Beyond Brotherhood: Why the new Saudi-Pakistan pact matters