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जी हां, प्रधानमंत्रीजी

हालांकि समकालीन इतिहासकारों और राजनीतिक पंडितों में वर्तमान की तुलना के लिए अतीत से मिसालें ढूंढ लाने की जबर्दस्त प्रवृत्ति होती है, लेकिन वर्तमान प्रधानमंत्री आज जिस उंचाई पर हैं, वहां वे खुद को अकेला ही पाते होंगे. ऐसी मिसालें मिलना मुश्किल है.
उनके नेतृत्व की शैली और प्रकृति ने एक बात तो स्पष्ट कर दी है कि आने वाले कई वर्षों में उनके सामानांतर कोई राजनीतिक व्यक्तित्व मिलने की सम्भावना नहीं है. एक राज्य के नेता से आगे बढ़कर राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने जो लोकप्रियता अर्जित की है और चुनावी प्रचार की उनकी जो अथक क्षमता है, उसके लिहाज से मोदी खुद को इतिहास में अकेला ही पाएंगे. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी भी अपने समय में लोकप्रिय थे पर उनकी लोकप्रियता के मायने और पैमाने अलग थे.

गुजरात विधानसभा चुनाव में 22 वर्षों की सत्ताविरोधी लहर को मात देते हुए और हिमाचल प्रदेश में इसके विपरीत सत्ताविरोधी लहर पर सवार होकर जीत हासिल करना किसी प्रधानमंत्री के लिए चुनावी अवकाश का सन्देश तो कतई नहीं माना जाएगा. एक लिहाज से चुनाव अभियान से छुट्टी लेना उनके राजनीतिक व्यक्तित्व का हिस्सा ही नहीं है.
इसके बावजूद, हाल में आए चुनावी परिणाम, ख़ासकर गुजरात में मुश्किल से मिली जीत प्रधानमंत्री के लिए राहत की तरह है और हमारे समय के लिहाज से कई मायनों में रोचक भी है.

सबसे पहले एक ऐसे मापदंड का यथार्थ में प्रयोग देखना दिलचस्प रहा, लोगों ने बिना किसी ऐतिहासिक मिसाल के ही एक मापदंड मान रखा था कि एक वर्तमान प्रधानमंत्री की अपने गृह राज्य में चुनावी सम्भावनाएं प्रबल ही होंगी.

हम इस तथ्य को भूल गए इस विश्लेषण के लिए हमारे पास कोई ठोस ऐतिहासिक तर्क नहीं था. तो फिर प्रधानमंत्री की अपने ही राज्य में चुनावी प्रदर्शन की तुलना हम किस इतिहास से कर रहे थे? 70 वर्षों के हमारे स्वतंत्र चुनावी लोकतंत्र में हमारे किसी प्रधानमंत्री को किसी राज्य के सशक्त नेता के नजरिए से नहीं देखा गया. जिन प्रधानमंत्रियों की क्षेत्रीय नेता की छवि थी भी, उनका कार्यकाल या तो बेहद कम समय के लिए था या फिर बहुत ही सीमित या संबंधित राज्य के किसी छोटे हिस्से तक सिमटा हुआ था.

इस सन्दर्भ में 70 के दशक में मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह और 80 और 90 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह, पीवी नरसिम्हा राव और एचडी देवगौड़ा के नाम याद किये जा सकते हैं. इन नेताओं का सीमित क्षेत्रीय प्रभाव और राज्य नेता के तौर पर सीमित राष्ट्रीय छवि भी उतनी ही स्पष्ट है. इस मायने में एक मजबूत क्षेत्रीय नेता के तौर पर और लम्बे समय तक उस क्षेत्रीय राजनीति को अपने राजनीतिक जीवन का आधार बनाकर राष्ट्रीय छवि निर्मित करने वाले मोदी पहले और सबसे कद्दावर नेता हैं.

हम सचमुच यह नहीं जानते थे कि जब एक मजबूत क्षेत्रीय नेता अपने क्षेत्र को छोड़कर साउथ ब्लॉक के शीर्ष पद पर बैठता है तो उसकी चुनावी सम्भावनाएं अपने ही गृह राज्य में क्या होती हैं. इसलिए किसी मिसाल के अभाव में इसे चुनावी मूल्यांकन का आधार बनाना विश्लेषणात्मक रूप से अवैज्ञानिक और ऐतिहासिक रूप से गलत है.

गुजरात में भाजपा की जीत, जिसे व्यापक रूप से मोदी की जीत के तौर पर देखा जा रहा है, एक नया मापदंड पहले से गढ़ी हुई किसी कसौटी पर सफल या असफल नहीं होती.
यह एक नया आयाम है. हालांकि लोक धारणाओं में प्रधानमंत्री मोदी की साख को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भविष्य में इस पर खरा उतरने के लिए यह कठिन कसौटी होगी. इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मोदी की लोकप्रियता को कमतर करके देखने की प्रवृत्ति देश की अंग्रेजी मीडिया के एक हिस्से के संपादकीय विभागों में मौजूद है. ख़ासकर राजधानी दिल्ली के एक सीमित बौद्धिक कुनबे में यह प्रवृत्ति प्रमुखता से देखी जा सकती है. इस तथ्य को टीएन नैनन, जो देश के सबसे लम्बे समय से कार्यरत संपादकीय पेशेवरों में से एक है, ने हाल ही में प्रकाशित अपने आलेख में सामने रखा है.

मोदी के लिए राहत की बात यह है कि मतदाताओं के निर्णय दिल्ली में जड़ जमाये कॉफ़ीटेबल पत्रकारिता करने वाले संपादकों की इच्छाओं से प्रभावित नहीं होते.
यह बात भी रोचक है कि मोदी शायद ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिनके लिए हर स्तर का चुनाव- पंचायत से संसद तक- व्यक्तिगत लोकप्रियता की परीक्षा बना दी गयी है. इसके कई कारण हो सकते है. इसमें सबसे प्रमुख कारण तो विपक्षी खेमों द्वारा मोदी के चुनावी तिलिस्म को चुनौती देने की उत्कंठा या बेसब्री हो सकती है, जो किसी भी प्रतीकात्मक जीत का अवसर चुकना नहीं चाहता. इसका एक कारण यह भी है कि भाजपा हर स्तर पर चुनावी भिड़ंत में सिर्फ मोदी की छवि का प्रयोग कर रही है.

कारण कुछ भी हों, यह बात स्पष्ट है की प्रधानमंत्री को एक निरंतर चुनाव प्रचारक की भूमिका से कोई राहत मिलती नहीं दिख रही. अभी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में वोटों की गिनती जारी ही थी, तभी प्रधानमंत्री ने मिजोरम और मेघालय के 2018 विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया.

कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ अगले वर्ष प्रधानमंत्री को फिर से चुनावी दौरों में व्यस्त रखेंगे. यह एक ऐसी कीमत है जो शायद प्रधानमंत्री ने खुद ही अदा करना स्वीकार किया है, क्योंकि यह भाजपा को अपनी छवि में ढालने की उनकी व्यापक योजना का हिस्सा है. इस रणनीति में तब तक शायद कोई बदलाव न हो जब तक कि उन्हें चुनावी हार का सामना नहीं करना पड़ता. चुनावी झटकों से इसका नकारात्मक पक्ष सामने आएगा.

तीसरी दिलचस्प बात राजनीतिक कीमत और इस चुनाव के संबंध में भी देखी जा सकती है. मोदी ने कठोर आर्थिक नीतियों के चुनावी प्रभाव को सबसे जोखिम भरी चुनावी प्रयोगशालाओं में परखा. जहां नोटबंदी जैसे फैसले की चुनावी प्रतिक्रिया उत्तर प्रदेश, जो की देश के डिजिटल अर्थव्यवस्था वाले राज्यों में सबसे पिछड़ी पंक्ति में खड़ा है, में मोदी सरकार को लेनी थी वही जीएसटी की चुनावी प्रतिक्रिया गुजरात में लेनी थी जो की व्यापारी समूहों की प्रचुरता वाला राज्य है और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था (ग्रामीण और शहरी) के लिए जाना जाता है.

ऐसा नहीं है कि विपक्ष इन जोखिमों के प्रति सजग नहीं है. राहुल गांधी ने अपनी चुनावी रैलियों में जीएसटी को ‘गब्बर सिंह टैक्स’ बता कर इसके प्रति व्यापारी वर्ग में फैले असंतोष को भुनाने की कोशिश की. इसलिए यह स्पष्ट था की यह चुनाव मोदी के राजनीतिक जोखिम प्रबंधन और कठोर आर्थिक नीतियों के संतुलन की भी परीक्षा होंगे. इसे राजनीतिक भाग्य कहें या मोदी के व्यक्तित्व में संवाद कुशलता, दोनों चुनावों में मोदी कठोर निर्णयों की चुनावी कीमत चुकाने से बच गए.

यह शायद मोदी के राजनीतिक आकर्षण का भी एक हिस्सा है और वह अपनी निर्णायक क्षमता चुनावी मैदान में परोसना जानते हैं.

चौथी उल्लेखनीय बात यह रही की गुजरात के चुनावी दंगल में भाजपा एक मात्र राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर लड़ रही थी. यह और भी विडम्बना है कि उसका विपक्षी देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी थी.

शायद यह मौजूदा राष्ट्रीय परिवेश में भाजपा के चुनावी वर्चस्व का भी संकेत है. हालांकि इससे भी बड़ा कारण कांग्रेस की सामाजिक इंजीनियंरिंग की रणनीति है जिसके तहत चुनावी प्रचार स्थानीय, जाति विशेष आंदोलनों और इन आंदोलनों से जुड़े नेताओं को आउटसोर्स करने के फैसले में देखा जा सकता है.

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है की ऐसे तात्कालिक और स्थानीय गठबंधन से भाजपा के समर्थन आधार को नुक्सान हुआ. लेकिन इससे एक और महत्वपूर्ण बात यह भी हुई कि इस नुकसान को कम करने के लिए मोदी-शाह की जोड़ी ने अन्य जातीय समुहों का अपने पक्ष में काउंटर ध्रुवीकरण की रणनीति अपनाई. नतीजे बताते हैं कि वे काफी हद तक सफल भी रहे.

यह भी ध्यान देने वाली बात है कि गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अर्जित समर्थन का लाभ भाजपा को होता आया है और इसमें सेंध लगाने का कांग्रेसी प्रयास विफल हुआ है.

सरल शब्दों में बात कहने का जोखिम उठाया जाए तो यह कहा जा सकता है कि मोदी एक बार फिर से दक्ष राजनेता के रूप में उभर कर सामने आये हैं. यह कोई आश्चर्य कि बात नहीं, महत्वपूर्ण बात यह है कि वह हमारे समय के सबसे सफल राजनेता हैं.

इन सबके बीच राजनीतिक टिप्पणीकार और पर्यवेक्षक यह चूक कर जाते हैं कि मोदी के राजनीतिक कथानक का विश्लेषण ऐतिहासिक मिसालों से नहीं किया जा सकता. इससे सटीक आंकलन कि संभावनाएं कम हो जाती हैं. जैसा कि हमने पहले भी देखा है, मोदी खुद से अपने लिए अभूतपूर्व मिसाल गढ़ रहे हैं.