Newslaundry Hindi
बाबरी की बरसी अगर प्रभाष जोशी होते तो ‘हिन्दू होने का धर्म’ बताते और गालियां खाते
‘विहिप, बजरंग दल और शिवसेना ने भाजपा और संघ के हिन्दुत्व के नारे के साथ बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का जो ज़हर फैलाया है, वह बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने से उतरा नहीं है. हज़ार फनों वाला वह कालिया नाग देश को डंस कर बिल में घुस गया है. अभी उसे शक है कि कोई ओझा उसका जहर उतार देगा. अभी उसे डर है कि देश की आत्मा का कृष्ण उसे नाथ देगा. लेकिन केन्द्र की अस्थिरता और ढुलमुलपन से अगर उसे मौका और वक्त मिल गया तो वह मुस्लिम सांप्रदायिकता का सामने करने के नाम पर फिर ज़हर उगलने लगेगा. दंगे में मारे जा रहे लोगों के बच्चों, बीवियों और बड़े-बूढ़ों की तरफ से हाथ जोड़ कर इन राजनैतिकों से प्रार्थना है कि भगवान और भारत के लिए राजनीति के पांसे हथेलियों से गिराइए और हाथों में बालटियां उठाकर यह आग बुझाइए. देश पर मेहरबानी कीजिए. यह सांप्रदायिक दंगों में मरने वालों का ही नहीं आपका भी देश है.’
अयोध्या में विवादित ढांचा गिराने जाने के दो दिन बाद यानी 8 दिसंबर, 1992 को जनसत्ता में ‘यह आपका भी देश है” शीर्षक से प्रभाष जोशी के लिखे लेख का हिस्सा है.
इस लेख में प्रभाष जोशी ने उन सभी दलों की लानत-मलामत की, जो देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंककर अपनी रोटिंया सेंकने में मशगूल थे. हालांकि उनके निशाने पर मुख्य रूप से बीजेपी और संघ परिवार के नेता ही थे क्योंकि प्रभाष जोशी का मानना था कि इन लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में दिए वचन का पालन नहीं किया और ढांचे को गिरा दिया. बेहद तल्ख अंदाज में लिखे अग्रलेख में प्रभाष जोशी ने लिखा-
“कल्याण सिंह को शर्म से डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी नहीं मिला और लालकृष्ण आडवाणी सरयू के पानी का अर्घ्य दे कर अपने वचन की रक्षा नहीं कर सके इसलिए विपक्ष के नेता पद से हट गए. दोनों ने कहा कि हम अयोध्या कांड की नौतिक जिम्मेदारी लेते हैं लेकिन इसमें कौन सी नैतिकता है. जिसकी जिम्मेदारी इनने ली? ढांचे को बचाने का वचन निभाने के लिए इन दोनों ने क्या किया? मन से सोलहवीं सदी के मठों और छावनियों में बैठे महंतों को मध्ययुगीन बदला लेने का मौका दे कर अपने पदों से हट गए हैं.”
इसी लेख में प्रभाष जोशी देश में दंगे फैलने और उसके विस्तार पाने की आहट को लेकर बेहद चिंतित दिखे. ढांचा गिरने के तुरंत बाद देश के कई हिस्सों में तनाव और दंगे की खबरें आने लगी थीं. कई राज्यों में हिंसा फैल गई थी. दंगों में करीब दो सौ लोगों के मारे जाने की बात कही जा रही थी.
इससे पहले प्रभाष जोशी सात दिसंबर को अयोध्या की घटना के खिलाफ ‘राम की अग्नि परीक्षा’ नाम से पहला लेख लिख चुके थे. इस लेख की पहली ही लाइन थी-
‘राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीत पर अयोध्या में कालिख पोत दी.’
प्रभाष जोशी साजिश करके ढांचा गिराए जाने के इतने खिलाफ थे कि उन्होंने लिखा-
“विवादित ढांचे के ढहाने को हिन्दू भावनाओं का विस्फोट बताने वाले भले ही अपने कुनबे को साधु-साध्वी, संत-महात्मा और हिन्दू हितों का रक्षक कहते हों, उनमें और इंदिरा की हत्या की ख़बर पर ब्रिटेन में तलवार निकालकर खुशी से नाचने वालों की मानसिकता में कोई फर्क नहीं है. एक नि:शस्र महिला की अपने अंगरक्षकों द्वारा हत्या पर विजय नृत्य जितना राक्षसी है, उससे कम निंदनीय, लज्जाजनक और विधर्मी एक धर्म स्थल को ध्वस्त करना नहीं है. वह धर्म स्थल बाबरी मस्जिद भी था और रामलला का मंदिर भी. ऐसे ढांचे को विश्वासघात से गिरा कर जो लोग समझते हैं कि वे राम का मंदिर बनाएंगे, वो राम को मानते, जानते और समझते नहीं हैं.”
उस दौरान अयोध्या में ढांचा गिराने जाने के खिलाफ लगातार लिख रहे प्रभाष जोशी ने 27 दिसंबर, 1992 को ‘मुक्ति और परतंत्रता के प्रतीक’ के नाम से लिखे अपने लेख में गांधी की हत्या और ढांचे को ढहाए जाने की घटना की तुलना करते लिखा-
‘ढांचे को ढहाए जाने की त्रासदी सबूत है कि गांधी के हत्यारे अभी भी पिस्तौल छिपाए घूम रहे हैं. वे प्रार्थना सभाओं में इसलिए जाते हैं कि सही मौका मिल सके. गांधी उन्हें अपनी उस कायरता का प्रतीक लगता है, जिसे मारे बिना वे वीर नहीं हो सकते. इस मानस को समझना अभी मुश्किल नहीं क्योंकि यह अपने को आसानी से उधेड़ देता है. लेकिन इसकी बीमारी को दूर करना बहुत मुश्किल है. गांधी की हत्या भी उसे कुछ समय तक ही शांत रख सकी. इस वक्त वह देश के शरीर में भूत की तरह आया हुआ है. कोई ऐसा ओझा देश में नहीं है जो इस भूत को उतार सके. इसलिए सब रास्ता देख रहे हैं कि उधम मचाकर यह थक जाए और इसकी लगाई आग शांत हो जाए तो कुछ किया जाए.’
इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा-
‘गांधी को मार कर जो लोग शांत नहीं हुए वे अयोध्या में बाबरी के ढांचे को गिराकर भी संतुष्ट नहीं हुए होंगे.’
उस दौर में प्रभाष जोशी का लिखा पढ़ें तो उनके भीतर की बेचैनियों और छटपटाहट का अंदाजा लगेगा. उतने तेवर के साथ उनके बाद किसी संपादक-लेखक ने किसी अखबार में शायद ही लिखा हो. वो भी तब जब प्रभाष जोशी खुद को खुलेआम हिन्दू कहते थे. हिन्दू होने का धर्म और मर्म समझाते थे. हिन्दू धर्म की रीतियों-परंपराओं पर रीझते दिखते थे. उन्हें जानने वाले कहते हैं कि अयोध्या की घटना के बाद वो आहत थे. उनका मानना था कि समाधान बातचीत से निकले या सहमति से लेकिन जोर-जबरदस्ती किसी सूरत में नहीं होनी चाहिए. वो अयोध्या में राम मंदिर बनने के पक्षधर भी थे लेकिन सहमति से. राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के नाम पर हो रही राजनीति के वो खिलाफ थे.
विवादित ढांचा ढहने के बाद लगातार लिखे लेखों के जरिए प्रभाष जोशी देश में फैल रही सांप्रदायिकता पर चिंतित दिख रहे थे. मंदिर के नाम पर उत्पात की हद तक जाने वाले संगठनों पर शब्दों के गोले दाग रहे थे और यही वजह है कि वो उस वक्त उग्र हिन्दुत्व के पक्षधर बहुत से संगठनों के निशाने पर थे. जब साल 1992 का आखिरी दिन बीत रहा था तो प्रभाष जोशी ‘नए साल का संकल्प’ शीर्षक से लेख लिख रहे थे.
पहले पढ़िए कि इस लेख के आखिर में प्रभाष जोशी ने क्या लिखा-
‘हिन्दुत्व के इन नए दैविक योद्धाओं की नजर में स्वतंत्रता का संग्राम जीतने, संविधान बनाने और लोकतांत्रिक पंथ निरपेक्ष गणराज्य की स्थापना करने वाले लोग हिन्दू नहीं बाबर और मीर बाकी की तरह हिन्दुत्व का मंदिर गिराने वाले विधर्मी थे. इसलिए तो 6 दिसंबर को उनने उस सब पर हमला बोल दिया जो पांच हजार साल की धर्म परंपरा, कोई नब्बे साल के स्वतंत्रता संग्राम और बयालीस साल के लोकतात्रिक गणतंत्र में हमने प्राप्त किया है. अब लोकतंत्र के इस ढांचे को ढहाकर उस एक तंबू में वे हिन्दू धर्मतांत्रिक राष्ट्र के रामलला को बैठाना चाहते हैं. उनका हमला भारत की सर्वग्राही, उदार और सहिष्णु धर्म परंपरा के अमृत पर है. यह हमला स्वतंत्रता संग्राम के उन जीवन मूल्यों पर है, जिन्हें हमने अपने संविधान के जरिए अपने लोकतांत्रिक पंथनिरपेक्ष गणराज्य में मूर्तिमत किया है. यह हमला उस बहुधर्मी, बहुजातीय और बहुभाषी समाज पर है जो बाहर के अनगिनत हमलों और विष को पचा गया है. किसी भाजपा नेता ने कहा कि यह साल छद्म धर्मनिरपेक्षता और असली पंथ निरपेक्षता के संघर्ष का साल होगा. लेकिन अगर आप छह दिसंबर के सारे अर्थ समझ लें तो अगला साल ही नहीं आने वाले कई साल प्रतिक्रियावादी छद्म और संकीर्ण हिन्दुत्व और धर्म के संघर्ष के साल होंगे.’
जरा देखिए और सोचिए कि एक जनवरी, 1993 को प्रभाष जोशी का लिखा आज कितना सच साबित हो रहा है. उन्होंने जो लिखा कि अगर आप छह दिसंबर के सारे अर्थ समझ लें तो अगला साल ही नहीं आने वाले कई साल प्रतिक्रियावादी छद्म और संकीर्ण हिन्दुत्व और धर्म के संघर्ष के साल होंगे, वही आज भी हो रहा है. हिन्दुत्व के नाम पर खेमेबंदी में कोई राम मंदिर की सियासत कर रहा है तो कोई अपना जनेऊ दिखाकर शुद्ध सनातनी हिन्दू साबित करने की जुगत में लगा है. इस लेख के आखिर में प्रभाषजी लोगों से नए साल के लिए संकल्प लेने की अपील करते हुए लिखते हैं-
‘अगर आप नए साल का कोई संकल्प लेते हैं तो आज संकल्प लीजिए कि उस सर्वग्राही, उदार और सहिष्णु धर्म की रक्षा करेंगे जो हमारे इस बहुधर्मी, बहुजातीय और बहुभाषी समाज की रक्षा कर रहा है. यही आपका धर्म है.’
इन्हीं तेवरों के साथ प्रभाष जोशी ने लगातार कई दिनों तक लंबे-लंबे लेख लिखे. इन लेखों का असर ये हुआ कि उग्र हिन्दुत्व के पक्षधर बहुत से लोग उनसे नाराज हुए. उन्हें धमकियां और गालियां चिट्ठियों में लिखकर भेजी जानी लगी थी. उन्हें मुल्ला, मीर जाफर, जयचंद कहा जाने लगा था. यहां तक कि कुछ हिन्दूवादी उनका सिर कलम करने और जूतों से पिटाई करने जैसी मांग भी करने लगे थे. हर रोज ऐसी चिट्ठियां जनसत्ता के दफ्तरों में आती थी, जिसमें प्रभाष जोशी को हिन्दू विरोधी घोषित करते हुए उनके लिए अभद्र शब्दों की भरमार होती थी. जोशी ऐसी कई चिट्ठियां अपने अखबारों के संस्करणों में छाप भी देते थे. प्रभाष जोशी ने उन सबके जवाब में ‘हिन्दू होने का धर्म’ नाम से ये लेख लिखा था.
इसी लेख में प्रभाष जोशी ने अपने हिन्दू होने के मायने भी बताए हैं-
‘मैं हिन्दू हूं और आत्मा के अमरत्व में विश्वास करता हूं. पुनर्जन्म और कर्मफल में भी मेरा विश्वास है. मेरा धर्म ही मुझे शक्ति देता है कि मैं अधर्म से निपट सकूं. प्रतिक्रिया और प्रतिशोध की कायर हिंसा के बल पर नहीं, अपनी आस्था, अपने विचार, अपनी अहिंसा और अपने धर्म की अक्षुण्ण शक्ति के बल पर. मैं हिन्दू हूं क्योंकि मैं हिन्दू जन्मा हूं. हिन्दू जन्मने पर मेरा कोई अधिकार नहीं था. जैसे चाहने पर भी मेरे माता-पिता मेरे उनके पुत्र होने के सच को नकार करके अनछुआ नहीं कर सकते, उसी तरह मैं इंकार नहीं कर सकता कि मैं हिन्दू हूं. लेकिन मान लीजिए हिन्दू धर्म में भी दीक्षित कर के लिए जाने या निंदा कर के निकाले जाने की व्यवस्था होती तो या कोई स्वेच्छा से धर्म को छोड़ या अपना सकता होता तो भी मैं हिन्दू धर्म से निकाले जाने का विरोध करता और मनसा, वाचा, कर्मणा और स्वतंत्र बुद्धि-विवेक से हिन्दू बने रहने का स्वैच्छिक निर्णय लेता. इसलिए कि हिन्दू होना अपने और भगवान के बीच सीधा संबंध रखना है. मुझे किसी पोप, आर्कविषप या फादर के जरिए उस तक नहीं पहुंचना है. मुझे किसी मुल्ला या मौलवी का फतवा नहीं लेना है. मैं किसी महंत या शंकाराचार्य के अधीन नहीं हूं. मेरा धर्म मुझे पूरी स्वतंत्रता देता है कि मैं अपना अराघ्य, अपनी पूजा या साधना पद्धति और अपनी जीवन शैली अपनी आस्था के अनुसार चुन और तय कर सकूं. जरुरी नहीं कि चोटी रखूं. जनेऊ पहनूं. धोती-कुर्ता या अंगवस्त्र धारण करुं. रोज संध्या वंदन करुं. या सुबह शाम मंदिर जाऊं. पूजा करुं, आरती उतारूं या तीर्थों में जाकर पवित्र नदियों में स्नान करुं. यह धार्मिक स्वतंत्रता ही मुझे पंथ निरपेक्ष और लोकतांत्रिक होने का जन्मजात संस्कार देती है.’
देश के ओजस्वी संपादकों में एक प्रभाष जोशी के तेवर का अंदाजा राम भक्त नेताओं को भी तब हुआ, जब वो अयोध्या से ढांचे के विध्वंस की घटना के भागीदार होकर दिल्ली लौटे. अयोध्या में जिस ढंग से ढांचा गिराया गया, प्रभाषजी उसके खिलाफ पूरे तेवर के साथ लगातार लिखते रहे. वो खुद को हिन्दू कहते -मानते थे. वो अयोध्या विवाद का हल बातचीत के जरिए हो, इसके लिए खुद भी कई स्तरों पर सक्रिय थे. लेकिन ढांचा गिरने के बाद उन्होंने बीजेपी और संघ परिवार की साजिशों पर जमकर चोट किया.
नतीजा ये हुआ कि उन्हें मंदिर समर्थकों की तरफ से आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन वो डिगे नहीं. कहते रहे कि जो हुआ, जिस तरीके से हुआ, वो गलत हुआ. उन्होंने एक अन्य लेख में लिखा-
‘अयोध्या में लंका कांड करने वालों को न तो राम का चरित मालूम है, न वे वहां राम मंदिर बनाने गए थे. राम की वानर सेना में भी उनसे ज्यादा विवेक था. गांधी को मार कर जो लोग शांत नहीं हुए, वे अयोध्या में बाबरी ढांचे को गिरा कर भी संतुष्ट नहीं होंगे.’
Also Read
-
5 dead, 50 missing: Uttarkashi floods expose cracks in Himalayan planning
-
When caste takes centre stage: How Dhadak 2 breaks Bollywood’s pattern
-
Modi govt spent Rs 70 cr on print ads in Kashmir: Tracking the front pages of top recipients
-
What’s missing from your child’s textbook? A deep dive into NCERT’s revisions in Modi years
-
August 7, 2025: Air quality at Noida’s Film City