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शशि कपूर: एंग्री यंगमैन के दौर का सौम्य सितारा

मायानगरी मुम्बई के सबसे हैप्पनिंग इलाके जुहू के सांस्कृतिक केन्द्र ‘पृथ्वी थियेटर’ की हंगामाखेज़ उथलपुथल के बीच व्हीलचेयर पर एक स्थितप्रज्ञ सितारा. भीड़ में अनुपस्थित. अभिनेता शशि कपूर की यही अंतिम छवि रह जाएगी उनके बहुत सारे चाहनेवालों के हृदय में. पर इस छवि के साथ शशि कपूर वो सिनेमायी वृत्त भी पूरा कर गए जिससे किसी भी खूबसूरत कला फ़िल्म को सम्पूर्णता मिलती है.

पिता पृथ्वीराज कपूर के रचे इसी ‘पृथ्वी थियेटर’ के घुमंतू टोले के साथ पचास के दशक में तरुणवय शशि ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत की थी. वे सिनेमा की दुनिया में एक मजबूरी के तहत साठ के दशक में आए, और मायानगरी का सबसे चमकदार सितारा बने. लेकिन थियेटर हमेशा उनका पहला प्यार रहा और सन 1978 में पत्नी ज़ेनिफ़र कैंडल के साथ मिलकर उन्होंने ‘पृथ्वी’ थियेटर की दोबारा स्थापना की. जब तक वे स्वस्थ रहे अपने रंगमंच में होनेवाले हर नए नाटक के पहले दर्शक बने रहे.

‘विजय’ का ‘रवि’

थियेटर की दुनिया से बाहर लोकप्रिय सिनेमा जगत में उन्हें पहचाना गया अमिताभ के साथ निभायी जोड़ीदार भूमिकाओं के लिए, जिसमें अमिताभ मुखर प्रदर्शनकारी ‘विजय’ की भूमिका में थे और वे उनका नैतिक ‘अन्य’. सलीम-जावेद की लिखी ‘दीवार’ दरअसल एक और पुरानी सिनेमायी क्लासिक ‘मदर इंडिया’ की कहानी को ही नवीन परिस्थितियों में दोबारा सुना रही थी, जिसमें सुनील दत्त द्वारा निभाया विद्रोही किरदार ‘बिरजू’ अमिताभ के हिस्से आया था. लेकिन यहां नर्गिस के किरदार की नैतिक दुविधाओं को शशि कपूर के ‘रवि’ ने ओढ़ लिया था.

‘दीवार’ में शशि कपूर का निभाया ‘रवि’ और अमिताभ का निभाया ‘विजय’ दरअसल एक ही किरदार के दो पहलू हैं. ‘दीवार’ की कथा को उसकी सम्पूर्णता में ही देखा और समझा जा सकता है. यह दरअसल उस व्यवस्था का खोखलापन उजागर करती है, जिसमें स्कूल जाने को आतुर नन्हें ‘रवि’ की नैतिकता तभी सुरक्षित बचाई जा सकती है, जब उससे कुछ ही बड़ा किशोरवय ‘विजय’ अपनी अच्छाई का त्याग करे. ‘रवि’ का स्कूल जाना तभी संभव हो पाता है, जब ‘विजय’ का अपराध की ओर कदम जाता है.

‘दीवार’ की पटकथा बताती है कि गरीब के लिए मौके इस क़दर कम छोड़े गए हैं व्यवस्था में, कि उसकी ‘नैतिकता’ के साथ जीने की चॉइस भी खुद उसकी नहीं, उसके पास नहीं. अगर किसी एक रवि को गरीबी के दलदल से ‘सही’ रास्ते से निकलना है तो ज़रूरी है कि दूसरा विजय अनैतिक रास्तों पर चले, विष पिए. हां, दर्शक ‘रवि’ में बचाई गई सच्चाई से ज़्यादा उसे बचाने की कोशिश में जो विष ‘विजय’ ने पिया, उससे ज़्यादा आईडेंटिफाई करते हैं. इसलिए विजय दीवार का हीरो बना उनके लिये.

बहुत सालों बाद इसी किरदारों के बंटवारे को विधु विनोद चोपड़ा की ‘परिन्दा’ में जैकी श्रॉफ़ और अनिल कपूर की जोड़ी ने जिया, जिसमें ‘किशन’ की भूमिका में जैकी ने विष पिया और ‘करन’ की भूमिका में छोटे भाई अनिल कपूर को आततायी सिस्टम से बचाया. लेकिन अस्सी के दशक के अन्त में कहानी फिर बदलती है. इस बार भोलेपन और अच्छाई की मौत होती है सिस्टम के हाथों. ‘दीवार’ में विजय मारा गया था, पर ‘परिन्दा’ में करन मारा जाता है और उसके साथ उस उम्मीद की भी अन्तिम बली चढ़ती है जिसे शशि के निभाए ‘रवि वर्मा’ ने बचाया था एक पूरी पीढ़ी के लिए.

निर्देशक का निर्माता

जब भी एक नज़र उस सफ़ल अभिनेता के व्यावसायिक रूप से ‘असफ़ल निर्माता’ वाले करियर पर डालिए, बस यह नोट कीजिए कि कैसी लेखकीय प्रतिभाओं को उन्होंने सिनेमा के परदे पर ससम्मान मंच दिया. श्याम बेनेगल निर्देशित ‘जुनून’ में रस्किन बॉन्ड, इस्मत चुगताई, सत्यदेव दुबे जैसे नाम लेखकीय क्रेडिट्स में शामिल थे. महाभारत की कथा पर आधारित ‘कलयुग’ की पटकथा गिरीश कर्नाड और श्याम बेनेगल ने मिलकर लिखी थी.

अपर्णा सेन को ‘36 चौरंगी लेन’ के साथ लेखक और निर्देशक के तौर पर पहला ब्रेक देनेवाले शशि कपूर ही थे. फिर ‘विजेता’ में कवि दिलीप चित्रे पंडित, सत्यदेव दुबे के साथ लेखकीय भूमिका में आए. और शूद्रक के नाटक ‘मृच्छकटिकम’ पर ‘उत्सव’ बनाते हुए शरद जोशी जैसे नाम फ़िल्म के लेखन से जुड़े. उनके साथ काम करनेवाले निर्देशकों में श्याम बेनेगल, गिरीश कर्नाड, गोविन्द निहलाणी, अपर्णा सेन जैसे नाम रहे. लम्बे करियर वाले इन तमाम उत्कृष्ट निर्देशकों ने शशि को ही अपना सबसे दिलदार निर्माता बताया.

मर्चेन्ट-आइवरी के साथ जुगलबन्दी

छ: दशकों में फैले अभिनय करियर के दो सिरों पर खड़ी शशि कपूर की दो नितांत भिन्न मर्चेन्ट-आइवरी फ़िल्में मेरी पसन्दीदा हैं. और आप गौर से देखें तो इन्हीं दोनों फ़िल्मों के किरदारों के मध्य शशि कपूर का पूरा फ़िल्मी जीवन सिमटा है. इनमें पहली, जेम्स आइवरी निर्देशित 1963 में आई ‘दि हाउसहोल्डर’ में युवा शशि ने कमसिन लीला नायडू के साथ मिलकर उस तरुण नायक को परदे पर जीवंत कर दिया है, जिसे दाम्पत्य जीवन का पहला पाठ अभी पढ़ना है. और इसके तक़रीबन तीस साल बाद 1994 में आई इस्माइल मर्चेन्ट निर्देशित फ़िल्म ‘मुहाफ़िज़’ शशि की सिनेमाई परदे पर अंतिम उपस्थितियों में से एक है.

लेकिन यह सिर्फ़ शशि कपूर की सिनेमायी जीवनयात्रा के दो सिरे ही नहीं हैं. यह आज़ादी के बाद हमारे आधुनिक हिन्दुस्तानी शहर की विलोमों से भरी कहानी के दो सिरे भी हैं. रुथ प्रवर झाबवाला लिखित ‘दि हाउसहोल्डर’ एक नए बनते आधुनिक मूल्यों वाले शहर से प्रेम का गीत है. उस तरुण पीढ़ी की कहानी, जिसने नेहरू के हिन्दुस्तान में आज़ादी का सपना देखा और एक संभावनाओं से भरे शहर को अपनी बांहों में समेटकर दिल से प्यार किया. यह पुरानी दिल्ली की बन्द गलियों में प्रेम भरी उजली छतों की तलाश करते युवा दंपत्ति की कहानी है. यह परिवार और समुदाय के जड़ सामन्ती ढांचों के मध्य प्यार, साझेदारी और बराबरी के लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करती आज़ाद भारत की पहली पीढ़ी की कथा है. यह कथा उम्मीदों से भरी है, ठीक युवा शशि की उम्मीदों भरी आंखों की तरह.

इसके विपरीत ‘मुहाफ़िज़’ मृत्यु का गीत है. उसका भोपाल हमारे नष्ट होते, अपनी सांस्कृतिक थाती को खोते उत्तर भारतीय शहर का प्रतीक है. यह उदारीकरण के ठीक बाद नब्बे का दशक है, सहेजा-संभाला जा सकने लायक सभी कुछ ख़त्म हो रहा है. यह सिर्फ़ एक भाषा के बतौर उर्दू की मौत नहीं. यह अपनी विरासत को संभालने में अक्षम एक शहर की मृत्यु है, भाषा की मृत्यु है, ज़िन्दगी जीने के एक ख़ास तरीके की मृत्यु है. और अधेड़ उम्र शायर नूर मियां की भूमिका में थुलथुल काया के साथ शशि कपूर ने इस फ़िल्म में अपने जीवन का शायद सबसे श्रेष्ठ अभिनय किया है. दिलचस्प है कि अनीता देसाई के मूल उपन्यास ‘इन कस्टडी’, फ़िल्म का अंग्रेज़ी शीर्षक यही था, में यह मरता हुआ संस्कृति का शहर भोपाल ना होकर दिल्ली ही है.

स्याह शहर की पहली तस्वीर

और इन दोनों के मध्य ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ है, मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्म. अस्सी के दशक के मध्य जब उनके समकालीन महानायक अमिताभ ‘मर्द’ और ‘जादूगर’ जैसी फ़िल्में कर रहे थे, शशि कपूर एक नए निर्देशक रमेश शर्मा के साथ ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ जैसी लाजवाब फ़िल्म कर रहे थे. इसे कुंदन शाह की कल्ट क्लासिक ‘जाने भी दो यारों’ के साथ रखकर देखें तो यह अस्सी के दशक के मोहभंग की कथाएं हैं, जो पत्रकारिता में संलग्न ईमानदार नायकों की मार्फ़त कही जा रही हैं.

‘जाने भी दो यारों’ के नायक हाशिए के किरदार हैं, लेकिन ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ के विकास पाण्डे तो सत्ता के केन्द्र में खड़े होकर इस सत्ता के खेल को देख रहे हैं. लेकिन उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब हाशिए पर मौजूद हिंसा की ज़द में खुद उनका परिवार आ गया है. यह अवैध सत्ता के वैध सत्ता में बदल जाने की कथा है. यह ‘रात के शहर’ की कथा है जहां अवैध सत्ता ही अब असल सत्ता है. बाद में इसी स्याह शहर की और प्रामाणिक तस्वीरें हम एन चंद्रा की ‘तेज़ाब’ और विधु विनोद चोपड़ा की ‘परिन्दा’ में देखते हैं, जिन्हें इतिहासकारों द्वारा लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा की दिशा बदलने वाली फ़िल्में माना गया.

स्पॉटलाइट से परे

शशि कपूर पर लिखी गई बेहतरीन किताब ‘शशि कपूर : द हाउसहोल्डर द स्टार’ में शशि कपूर से सीधा कोई साक्षात्कार नहीं है. हाल के सालों में उनकी निरंतर गिरती सेहत ने जीवनीकार असीम छाबड़ा को इस मौके से वंचित किया. लेकिन दिलचस्प किस्सा कपूर खानदान पर प्रामाणिक पुस्तक लिखनेवाली मधु जैन की किताब से जुड़ा है, जिसका प्रस्ताव लेकर वे शशि कपूर के पास गई थीं.

उस दौर की सबसे चर्चित सिनेमा पत्रकार, इंडिया टुडे से जुड़ी मधु जैन अपनी गज़ब की बारीक़ी के साथ लिखी गई पुस्तक ‘कपूर्स’ की भूमिका में बताती हैं कि वे तो दरअसल शशि कपूर के पास उनकी जीवनी लिखने का प्रस्ताव लेकर गई थीं.

लेकिन शशि ने फ़ौरन इस प्रस्ताव को हंसी में उड़ा दिया और कहा कि पिताजी पृथ्वीराज कपूर और बड़े भाई राज कपूर जैसी शक्सियतों के घर में होते खुद उनके ऊपर कैसे कोई स्वंतंत्र किताब लिखी जा सकती है. जिस निस्संगता से वे ‘स्पॉटलाइट’ को छोड़ आगे बढ़ जाते थे, यही उनकी सबसे उजली पारसमणि चमक थी.

इस निस्संगता का एक सिरा उनके द्वारा निर्मित फ़िल्मों में खुद उनके द्वारा की गई भूमिकाओं में भी देखा जा सकता है, ख़ासकर ‘जुनून’ और ‘उत्सव’ में. ‘जुनून’ में बेशक मुख्य भूमिका उनकी थी, लेकिन फ़िल्म की सबसे चमकदार ‘एंग्री यंग मैन’ वाली भूमिका उन्होंने उस दौर के सबसे काबिल अभिनेता नसीरुद्दीन शाह को दी. खुद शशि की भूमिका फ़िल्म में स्याह शेड्स लिए थी, और उसे निभाने के लिए कमाल की अभिनय प्रतिभा की ज़रूरत थी.

आज जावेद ख़ान को देखते हुए मुझे ‘पिंजर’ के मनोज बाजपेयी और ‘1947 अर्थ’ के आमिर ख़ान की भूमिकाएं याद आती हैं. उधर ‘उत्सव’ में वह सबसे भद्दे दिखते छिछोरे अधेड़ की भूमिका स्वीकार करते हैं और उसे बखूबी निभाते भी हैं. याद रखना चाहिए कि इसी फ़िल्म के लिए उन्होंने पहली बार अपना वज़न बढ़ाया था, नहीं तो बाक़ी कपूर नायकों से उलट शशि की छवि हमेशा एक छरहरी काया वाले नायक की रही. लेकिन पत्नी की मृत्यु के बाद उदास शशि कपूर की बिगड़ी जीवनशैली ने उनसे उनका सुडौल शरीर हमेशा के लिए छीन लिया.

संगतकार

मुझे हमेशा लगता है कि कवि मंगलेश डबराल की कविता ‘संगतकार’ शशि कपूर के सिनेमायी करियर को सामने रख पढ़ी जानी चाहिए. जिस तन्मयता और खामोशी के साथ उन्होंने सत्तर के दशक में मुखर नायकों के सामने खामोशी से खड़े उनके ‘नैतिक अन्य’ का किरदार निभाया, इसमें ही उनका बड़प्पन छिपा था.

“मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर कांपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूंज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लांघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थाई को संभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बंधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए.”

~ मंगलेश डबराल (साभार, कविताकोश)