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राहुल गांधी को 90 साल पुराना नेहरू का यह भाषण जरूर पढ़ना चाहिए
राहुल गांधी का 87वां कांग्रेस अध्यक्ष बनना तय है. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनकी पहली बड़ी परीक्षा 2019 के लोकसभा चुनाव होंगे. यह दिलचस्प संयोग है जब राहुल अपनी सबसे कठिन परीक्षा से मुखातिब होंगे उसके ठीक 90 साल पहले उनके परनाना जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बने थे. नेहरू की राह में उस समय का कांग्रेस का ओल्ड गार्ड्स खड़ा था. अकेले महात्मा गांधी उनके समर्थन में थे. नेहरू के वामोन्मुखी सोशलिस्ट विचारों से ज्यादातर कांग्रेसी सशंकित थे.
काफी समय से राजनीति कर रहे 47 वर्षीय राहुल गांधी अभी भी राजनीतिक रूप से खुद को स्थापित नहीं कर पाए हैं. उनके कंधे पर कांग्रेस को एक रखने, उसे फिर से देश की सत्ता की धुरी बनाने की भारी-भरकम जिम्मेदारी है. उनके सामने पार्टी अध्यक्ष के रूप में 2019 के लोकसभा चुनाव की चुनौती भी है.
इस लिहाज से अपेक्षाओं का भारी बोझ उनके कंधों पर है. 132 साल के कांग्रेस के इतिहास में नेहरू-गांधी परिवार ने चार दशक से ज्यादा समय तक पार्टी की कमान अपने हाथ में रखी है. मोतीलाल नेहरू दो साल तक पार्टी के अध्यक्ष रहे. राहुल के परनाना जवाहरलाल नेहरू 11 साल तक काग्रेस अध्यक्ष रहे. उनकी दादी इंदिरा सात साल, पिता राजीव छह साल और उनकी मां सोनिया गांधी सबसे ज्यादा 19 साल तक इस पद पर रह चुकी हैं. सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस दस साल तक केंद्र की सत्ता में रही. लेकिन कांग्रेस ने अपना सबसे बुरा दौर भी उन्हीं सोनिया गांधी के कार्यकाल में देखा. आज कांग्रेस लोकसभा में सिर्फ 44 सांसदों तक सिमट गई है.
मां की छाया से बाहर निकल कर राहुल गांधी को अपने दम पर आगे की राजनीति करनी है. जाहिर है उनकी राह में परिवारवाद, पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र और भ्रष्टाचार सरीखी तमाम आलोचनाएं मुंह बाए खड़ी होंगी.
आज जब राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन रहे हैं तब कांग्रेस की स्थिति भिन्न है. आज़ादी के आंदोलन की अगुवा रही कांग्रेस आज अस्तित्व के संकट से दो-चार है. कांग्रेस मुक्त भारत के जुमले वाले दौर में जीर्ण-शीर्ण कांग्रेस को जिंदा रख पाना, उसे आगे बढ़ाना राहुल गांधी के लिए एवरेस्ट सरीखी चुनौती है. विशेषकर अब तक उनके राजनीतिक दर्शन के लेकर कोई साफ तस्वीर नहीं उभर पायी है.
एक नज़रिए से पोस्ट लिबरल दौर में यही कांग्रेसी दर्शन है जिसे मध्यमार्ग कहा जाता है. न तो यह पूरी तरह सोशलिस्ट है न पूरी तरह पूंजीवादी. न यह पूरी तरह वामपंथी है न पूरी तरह दक्षिणपंथी. न यह पूरी तरह हिंदुस्तानी है न पूरी तरह विदेशी. इसी मध्यमार्ग से होते हुए राहुल को अपनी गाड़ी आगे बढ़ानी है.
आज जब 90 साल बाद परनाती नेहरू-गांधी की विरासत को आगे बढ़ाने जा रहा है तब 90 साल पहले नेहरू का कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वो पहला प्रभावशाली, विचारपूर्ण भाषण उन्हें जरूर याद रखना चाहिए. नेहरू ने ये भाषण 29 दिसंबर, 1929 को लाहौर के ऐतिहासिक अधिवेशन में दिया था. इस भाषण से राहुल गांधी अपनी आगे की वैचारिक और राजनैतिक यात्रा के सूत्र ढूंढ़ सकते हैं.
नेहरू ने जो कहा
“पूरी दुनिया इस समय एक विशाल प्रश्नवाचक चिन्ह बनी हुई है और हर देश, हर आदमी इसमें मथा जा रहा है. आस्था का काल समाप्ति की ओर है. चहुंओर दुविधा और आकुलता फैली हुई है. समाज और राज्य की बुनियादें बदलाव के दौर से गुजर रही हैं. ऐसा लगता है कि हम इतिहास के एक ऐसे दौर में हैं जिसमें दुनिया प्रसव पीड़ा के अंतिम चरण में है, इसके बाद एक नई व्यवस्था का जन्म होगा.”
नेहरू आगे कहते हैं-
“जब सभी चीजें बदल रही हैं तब यही सही समय है कि हम अपने लंबे-चौड़े इतिहास को फिर से याद करें. भारतीय समाजिक ढांचे के शानदार स्थायित्व के बीच इसमें मौजूद अनगिनत अजनबी प्रभावों, हजारों साल के बारीक परिवर्तन और टकराव इस इतिहास की खूबसूरती है. यह खूबी हमेशा इसलिए बनी रही क्योंकि हम उन अजनबी चीजों के प्रति सहिष्णु और आत्मसात करने को तैयार थे. इसका लक्ष्य उन्हें समाप्त करना नहीं बल्कि दूसरी संस्कृतियों के साथ सामंजस्य बिठाना था. आर्य और अनार्य दोनों ने इसी धरती पर एक साथ रहते हुए एक दूसरे की संस्कृति को मान्यता दी. पारसी जैसे बाहरी समुदाय का भी यहां स्वागत हुआ और वे सामाजिक ढांचे में जगह पा सके. मुस्लिमों के आगमन के साथ एक बार फिर से संतुलन बिगड़ा. लेकिन जल्द ही भारत ने खुद को संभाला और काफी हद तक सफल भी रहा. लेकिन दुर्भाग्य से यह रिश्ता अभी अपने स्थिरांक की ओर बढ़ ही रहा था कि अंग्रेजों का इस देश में आगमन हुआ और राजनीतिक ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया. हम औंधे मुंह गिर पड़े.”
“भारत की हमेशा से खासियत थी कि वो हर संकट के बाद एक स्थायी सामाजिक ढांचा विकसित कर लेता था, लेकिन इस बार वह ऐसा नहीं कर सका और तब से हमारा ढांचा चरमराया हुआ है. बराबरी और असमानता की समस्या का कोई हल नहीं निकल पाया है. भारत लंबे समय से इसे नज़रअंदाज करता रहा और इसके ऊपर असमानतापूर्ण व्यवस्था को प्राथमिकता देता रहा. इस नीति के कई दुखद परिणाम भी हमने देखे. हमारे अपने लाखों-लाख लोग शोषण का शिकार हुए और उन्हें विकास के बहुत कम अवसर मिले.”
“मैं एक हिंदू परिवार में पैदा हुआ लेकिन मुझे नहीं पता कि मेरा खुद को हिंदू कहना या हिंदुओं के प्रतिनिधि के तौर पर बोलना कितना वाजिब होगा. लेकिन इस देश में जन्म ही मायने रखता है और उस अधिकार से मैं हिंदुओं का नेता करार दिया गया और इसी नाते उन्हें नेतृत्व देने का अधिकार भी पा गया. मैं यह कल्पना नहीं कर सकता कि स्वतंत्र भारत में हिंदू कभी भी सत्ताहीन हो सकते हैं. ऐसे में मैं अपने सिख और मुस्लिम दोस्तों से यह जरूर कहूंगा कि वो जो चाहें मुझसे बिना किसी बहस मुबाहिसे के मांग सकते हैं. मैं जानता हूं कि यह समय जल्द ही आने वाला है जब इस तरह की धारणाओं और मांगों का कोई औचित्य नहीं रहेगा और हमारा संघर्ष पूरी तरह से अर्थिक वजहों पर केंद्रित होगा.”
“मैं इस बात को आज ईमानदारी से स्वीकार करना चाहता हूं कि मैं एक समाजवादी और गणतंत्रवादी हूं. मैं किसी राजा या राजकुमार की सत्ता में यकीन नहीं रखता, या ऐसी सत्ता बनाने में यकीन नहीं करता जो नए दौर के राजा पैदा करती हो. ऐसे राजा जो पुराने दौर के सामंतों की तरह ही लालची और शोषक हों. हो सकता है कि कांग्रेस के जरिए पूर्ण समाजवादी कार्यक्रम को लागू नहीं किया जा सके. लेकिन हमें यह बात समझ लेनी होगी कि पूरी दुनिया में समाजवाद का दर्शन मौजूदा सामाजिक ढांचे में धीरे-धीरे जड़ें जमाता जा रहा है. यह सिर्फ समय और इसके लागू होने के तरीके की बात है. भारत को भी अगर अपनी गरीबी और गैर बराबरी को खत्म करना है तो उसी राह पर आगे बढ़ना होगा. भारत इस दिशा में अपने नए तरीके ईजाद कर सकता है, अपने दौर के कुशाग्र लोगों को शामिल कर यह लक्ष्य पाया जा सकता है.”
“इसलिए हमारे आर्थिक कार्यक्रम, हमारा मानव संसाधन, उसकी क्षमता पर आधारित होने चाहिए न कि पैसे के आगे हम अपने लोगों की आहूति दे दें. अगर कोई उद्योग अपने कर्मचारियों को भूखमरी में धकेले बिना नहीं चल सकता तो उसे बंद कर दिया जाना चाहिए. अगर खेत में काम करने वाले कामगारों को भरपेट भोजन नहीं मिल रहा तो उन बिचौलियों का हिस्सा पूरी तरह से जब्त कर लेना चाहिए जो कामगारों की मेहनत पर अपना पेट भरते हैं. खेत में काम करने वाला मजदूर या फैक्ट्री में काम करने वाला कामगार न्यूनतम वेज और नियत कामकाज के घंटों का हक़दार है. इससे वह सम्मानजनक जीवन जी सकेगा और साथ में अपनी क्षमता के हिसाब से मन लगाकर काम कर सकेगा.”
“लेकिन औद्योगिक मजदूर भारत की विकराल समस्याओं का सिर्फ छोटा हिस्सा है, हालांकि यह तेजी से बढ़ रहा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. हमारी नीतियां उनके परिजनों की दशा को सुधारने वाली होनी चाहिए. उनकी वर्तमान दशा को सुधार कर ही कोई बात बन सकती है. असली बदलाव भूमि व्यवस्था में सुधार करके ही लाया जा सकता है. हमारे बीच में कई बड़े-बड़े भू-स्वामी हैं. हम उनका स्वागत करते हैं. लेकिन उन्हें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि प्राचीन यूरोप के सामंती ढांचे से पैदा हुई भू-स्वामियों वाली व्यवस्था अब पूरी दुनिया से तेजी से विलुप्त होती जा रही है. यहां तक कि बड़े-बड़े पूंजीवादी देशों में भी बड़ी भूमि जोते छोटे-छोटे हिस्सों में उन्हीं काश्तकारों के बीच बंट रही हैं जो उन पर खेती करते हैं. भारत के भी कुछ हिस्सों में यह व्यवस्था पैर जमाने लगी है. हम इसे पूरे देश में फैलाने के लिए काम करेंगे.”
……
आज 90 साल बाद भारत नेहरू की समाजवादी आर्थिकी को छोड़ आगे बढ़ चुका है. लेकिन नेहरू के उठाए गैरबराबरी, जातिवाद जैसे सवाल जस के तस बने हुए हैं. नेहरू की वैचारिक धारा राहुल गांधी की राजनीतिक नाव को मुकाम तक पहुंचने का जरिया बन सकती है. उन्हें बहुत दूर नहीं जाना है. अपने आस-पास ही नज़र दौड़ानी है.
नेहरू ने जो बातें नई दुनिया के बारे में कही आज नौ दशक बाद ऐसा लगता है कि उनकी बातें जीवन का एक चक्र पूरा कर फिर से परिवर्तन के मुहाने पर आ खड़ी हुई हैं. आज धार्मिक कट्टरता और क्षेत्रीयता जैसी चीजें पूरी दुनिया के मानस पर हावी हैं. ऐसे में राहुल एक नई व्यवस्था के पैदाइश की उम्मीद कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें जमीन पर काम करना होगा.
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