Newslaundry Hindi
आरक्षण: वीपी सिंह के बहाने आरक्षण की ऐतिहासिक दास्तानगोई
90 के दशक में पटना के गांधी मैदान की सद्भावना रैली में देश के सभी बड़े नेताओं की मौजूदगी में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद जनसैलाब के बीच जोश-खरोश के साथ वीपी सिंह का अभिनंदन कर रहे थे:
राजा नहीं फ़कीर है
भारत की तक़दीर है.
7 अगस्त, 1990 को मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने की थी. शरद यादव, रामविलास पासवान, अजीत सिंह, जार्ज फ़र्नांडिस, मधु दंडवते, सुबोधकांत सहाय आदि की सदन के अंदर धारदार बहसों व सड़क पर लालू प्रसाद जैसे नेताओं के संघर्षों की परिणति वीपी सिंह द्वारा आरक्षण के ऐतिहासिक, साहसिक व अविस्मरणीय फ़ैसले के रूप में हुई.
कहां से शुरू हुआ आरक्षण का सफ़र
392 पन्नों की मंडल कमीशन की रिपोर्ट देश को सामाजिक-आर्थिक विषमता से निबटने का एक तरह से मुकम्मल दर्शन देती है जिसे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद बीपी मंडल ने अपने साथियों के साथ बड़ी लगन से तैयार किया था. 20 दिसंबर. 1978 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अनुच्छेद 340 के तहत नए पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा सदन में की थी. आयोग की विज्ञप्ति एक जनवरी, 1979 को जारी की गई, जिसकी रिपोर्ट आयोग ने 31 दिसंबर, 1980 को दी. 30 अप्रैल, 1982 में इसे सदन के पटल पर रखा गया.
इसके बाद अगले 10 वर्ष तक यह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी रही. वीपी सिंह की सरकार ने 7 अगस्त, 1990 को सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा की. बाद में जब मामला कोर्ट में अटका, तो लालू प्रसाद ने सबसे आगे बढ़ कर इस लड़ाई को थामा.
रामजेठमलानी जैसे तेज़तर्रार वकील को न्यायालय में मज़बूती से मंडल का पक्ष रखने के लिए मनाया और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया. 16 नवंबर, 1992 को इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने क्रीमी लेयर की बाधा के साथ आरक्षण लागू करने का निर्णय सुनाया. साथ ही, तत्कालीन सरकार द्वारा आर्थिक रूप से विपन्न अगड़ी जातियों के लिए 10% आरक्षण के नोटिफिकेशन को सिरे से खारिज़ किया. सरकार ने बयान जारी किया कि पिछड़ेपन का पैमाना महज आर्थिक नहीं हो सकता. इस मामले में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन सर्वप्रमुख क्राइटेरिया है. फ़ैसले में यह भी कहा गया कि एससी, एसटी और ओबीसी मिलाकर आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी के पार नहीं जानी चाहिए.
तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपनी जातीय सीमाओं को खारिज़ कर इसे लागू करने का फैसला किया. संदेश यही गया कि इच्छाशक्ति हो और नीयत साफ हो तो साझा सरकारें भी बड़े फ़ैसले ले सकती है.
वीपी सिंह ने जिस मंत्रालय के ज़िम्मे कमीशन की सिफारिश को अंतिम रूप देने का काम सौंपा था, उसकी लेटलतीफी को देखते हुए उन्होंने उसे रामविलास पासवान के श्रम व कल्याण विभाग मंत्रालय में डाल दिया. उस समय यह मंत्रालय काफी बड़ा हुआ करता था और अल्पसंख्यक मामले, आदिवासी मामले, सामाजिक न्याय व अधिकारिता, श्रम, कल्याण सहित आज के छह मंत्रालयों को मिलाकर एक ही मंत्रालय होता था.
पासवान की स्वीकरोक्ति है कि तत्कालीन सचिव पीएस कृष्णन, जो दक्षिण भारतीय ब्राह्मण थे; ने बेहद मनोयोग से दो महीने के अंदर मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को अंतिम रूप दे दिया था.
दुनिया में आरक्षण से बढ़कर ऐसी कोई कल्याणकारी व्यवस्था नहीं बनी, जिसने इतने कम समय में अहिंसक क्रान्ति के ज़रिये समाज के इतने बड़े तबके को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अवसर दिया हो. इतनी बड़ी जमात के लोगों के जीवन-स्तर में क़ाबिले-ज़िक्र तब्दीली आई. सरकार की क़ुर्बानी देकर भविष्य की राजनीति की परवाह न कर यह क़दम उठाने वाले वीपी सिंह, शरद, लालू जैसी शख़्सियतों के बारे में ही राजनीतिक चिंतक जेएफ क्लार्क कह गये: “एक नेता अगले चुनाव के बारे में सोचता है, जबकि एक राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में.”
जो काम उनके पहले कोई प्रधानमंत्री अपने पांच साल के कार्यालय में भी नहीं कर पाया, उसे उन्होंने साल भर के अंदर कर दिखाया. उस वक़्त सत्ता व समानांतर सत्ता का सुख भोगने को आदी हो चुके जातिवादी नेताओं ने परिवर्तन की आकांक्षा को नकारते हुए उल्टे मंडल कमीशन को लागू कराने की मुहिम में जुटे नेताओं को जातिवादी कहना शुरू कर दिया.
मंडल आंदोलन के समय पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ने कहा था, “जिस तरह से देश की आजादी के पूर्व मुस्लिम लीग और जिन्ना ने साम्प्रदायिकता फैलाई उसी तरह वीपी सिंह ने जातिवाद फैलाया. दोनों ही समाज के लिए जानलेवा है.” वामपंथी दलों के एक धड़े ने इसे ‘मंदिर-मंडल फ्रेंज़ी’ कहकर मंडल और कमंडल दोनों को ही एक ही तराज़ू पर तोलने की कोशिश की. हालांकि भाकपा-माकपा ने इस लड़ाई को अपना नैतिक समर्थन दिया था. हालांकि कुछ ‘अगर-मगर’ पर कभी अलग से विस्तारपूर्वक चर्चा करने की ज़रूरत है.
तब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने गरजते हुए कहा था, “चाहे जमीन आसमान में लटक जाए, चाहे आसमान जमीन पर गिर जाए, मगर मंडल कमीशन लागू होकर रहेगा. इस पर कोई समझौता नहीं होगा.” इसके पहले 90 में मंडल के पक्ष में माहौल बनाते हुए अलौली में लालू यादव का कार्यक्रम था, मिश्री सदा कॉलेज में. कर्पूरी जी को याद करते हुए उन्होंने कहा, “जब कर्पूरीजी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे. और जब मैं रिज़र्वेशन की बात करता हूं, तो लोग गाली देने के पहले अगल-बगल देख लेते हैं कि कहीं कोई पिछड़ा, दलित, आदिवासी सुन तो नहीं रहा है. ज़ादे भचर-भचर किये तो कुटबो करेंगे. ये बदलाव इसलिए संभव हुआ कि कर्पूरीजी ने जो ताक़त हमको दी, उस पर आप सबने भरोसा किया है.”
किसी दलित-पिछड़े मुख्यमंत्री को बिहार में कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया जाता था. श्रीकृष्ण सिंह के बाद सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने वाले लालू प्रसाद पहले मुख्यमंत्री थे.
सियासी जमात की अभूतपूर्व एका
कपड़ा मंत्री शरद यादव, श्रम व रोज़गार मंत्री रामविलास पासवान, उद्योग मंत्री चौधरी अजीत सिंह, रेल मंत्री जार्ज फर्नांडिस, गृह राज्यमंत्री सुबोधकांत सहाय, सबने एक सुर से जातिवादियों और कमंडलधारियों को निशाने पर लिया.
रामविलास पासवान ने कहा, “वीपी सिंह ने इतिहास बदल दिया है. यह 90% शोषितों और शेष 10% लोगों के बीच की लड़ाई है. जगजीवन राम का ख़ुशामदी का दौर बीत चुका है और रामविलास पासवान का उग्र प्रतिरोधी ज़माना सामने है.”
अजीत सिंह ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, “सिर्फ़ चंद अख़बार, कुछ राजनीतिक नेता और कुछ अंग्रेज़ीदा लोग मंडल कमीशन का विरोध कर रहे हैं. जो कहते हैं कि मंडल मेरिट को फिनिश कर देगा. आपको मंडल की सिफ़ारिशों के लिए क़ुर्बानी तक के लिए तैयार रहना चाहिए.”
इस ऐतिहासिक सद्भावना रैली में वीपी सिंह ने कालजयी भाषण दिया था, “हमने तो आरक्षण लागू कर दिया. अब, वंचित-शोषित तबका तदबीर से अपनी तक़दीर बदल डाले, या अपने भाग्य को कोसे.” उन्होंने कहा, “बीए और एमए के पीछे भागने की बजाय युवाओं को ग़रीबों के दु:ख-दर्द का अध्ययन करना चाहिए. लोकसभा और राज्यसभा की 40 फ़ीसदी सीटें ग़रीबों के लिए आरक्षित कर देनी चाहिए. विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के पास जमा गैस और खाद एजेंसियों को ग़रीबों के बीच बांट देना चाहिए.”
आगे वो बेफ़िक्र होकर कहते हैं, “मैं जानता हूं कि मुझे प्रधानमंत्री पद से हटाया जा सकता है, मेरी सरकार गिरायी जा सकती है. वे मुझे दिल्ली से हटा सकते हैं, मगर ग़रीबों के दरवाजे से नहीं.”
ज़ाहिर है कि पसमांदा समाज ने अपनी तक़दीर ख़ुद गढ़ना गंवारा किया, और नतीजे सामने हैं. हां, सामाजिक बराबरी व स्वीकार्यता के लिए अभी और लम्बी तथा दुश्वार राहें तय करनी हैं, बहुत से रास्ते हमवार करने हैं. पर अफ़सोस कि मंडल आयोग को सिर्फ़ आरक्षण तक महदूद कर दिया गया, जबकि बी पी मंडल ने भूमि सुधार को भी ग़ैर बराबरी ख़त्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण कारक माना था.
आज़ादी के बाद भी संपत्ति का बंटवारा तो हुआ नहीं. जो ग़रीब, उपेक्षित, वंचित थे, वो आज़ादी के बाद भी ग़रीब और शोषित ही रहे. उनकी ज़िंदगी में कोई आमूल बदलाव नहीं आया. अभी तो आरक्षण ठीक से लागू भी नहीं हुआ है, और इसे समाप्त करने की बात अभिजात्य वर्ग की तरफ से उठने लगी है.
मौजूदा पीढ़ियों को हर वक़्त सचेत रहने की ज़रूरत है. लोकतंत्र हर दिन अपने नागरिकों से सतर्कता व प्रतिबद्धता की अपेक्षा रखता है. यह खु़द के प्रति छलावा होगा कि जम्हूरियत अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद कर लेगी.
कहां तक पहुंचा आरक्षण का सफ़र
लोकतंत्र की आयु के लिहाज़ से 70 साल कोई दीर्घ अवधि नहीं होती. हिन्दुस्तानी जम्हूरियत अभी किशोरावस्था से निकली ही है. पर, इतनी कम उम्र में इसने इतने सारे रोग पाल लिए हैं कि बड़ी चिंता होती है. कुपोषण के शिकार दुनिया के सबसे बड़े व कमोबेश क़ामयाब, गांधी, अम्बेडकर, जयप्रकाश, लोहिया, फूले, सावित्री, झलकारी, फ़ातिमा, पेरियार, सहजानंद, आदि सियासी शख़्सियतों की आजीवन पूंजी व चिरटिकाऊ होने के सदिच्छाओं से अनुप्राणित इस बाहर से बुलन्द व अंदर से खोखले होते जा रहे लोकतंत्र को समय रहते इलाज़ की दरकार है.
आरक्षण, आरक्षण की ज़रूरत समाप्त करने के लिए लागू हुआ था. पर, क्या कीजै कि बड़ी सूक्ष्मता से इस देश में आरक्षण को बेमानी सिद्ध करने के यत्न जारी हैं और मानसिकता वही है कि हम तुम्हें सिस्टम में नहीं आने देंगे. पिछडों के उभार के प्रति ये असहिष्णुता दूरदर्शिता के लिहाज़ से ठीक नहीं है.
केंद्र सरकार का आंकड़ा है कि आज भी केंद्र सरकार की नौकरियों में वही 12 फ़ीसदी के आसपास पिछड़े हैं, जो कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के पहले भी अमूमन इतनी ही संख्या में थे. आख़िर कौन शेष 15% आरक्षित सीटों पर कुंडली मार कर इतने दिनों से बैठा हुआ है? यही रवैया रहा तो लिख कर ले लीजिए कि इस मुल्क से क़यामत तक आरक्षण समाप्त नहीं हो सकता.
अमेरिका में भी दबे-कुचले समुदाय के लोगों की ज़िन्दगी संवारने व उन्हें मुख्यधारा में लाने हेतु अफरमेटिव एक्शन का प्रावधान है और वहां इसके प्रतिरोध में कभी कुतर्क नहीं गढ़े जाते. मुझे अमेरिकी कवयित्री एला व्हीलर विलकॉक्स की पंक्तियां याद आती हैं:
“भारतवर्ष में लोग बात सुनते
उन्हीं की जो चीखते व चिल्लाते;
क्योंकि हर जाति दुर्बलतर जाति पर धौंस जमाती,
और, ब्रिटिशजन उन सब को हिकारत भरी नज़र से देखते.”
(भारत की स्वप्निल ज़मीं पर)
वर्तमान के संकट
जेएनयू जैसी जगह में भी आप पीएचडी तो कर लेंगे, पर अध्यापन हेतु साक्षात्कार के बाद “नॉट फाउंड सुटेबल” करार दे दिये जाएंगे. पर, ये भी थोड़ा संतोष देता था कि अब आप अपनी जीवटता, लगन और अपने जुझारूपन व अध्यवसाय से पढ़ ले पा रहे थे.
ये सदियों के विचित्र समाज की कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी. मगर, इस साल से तो यूजीसी गजट की आड़ में उपेक्षितों, शोषितों की खेप निकट भविष्य में शोध के ज़रिए अपने समाज की लाइलाज बीमारियों को समझने व दूर करने के लिए विश्वविद्यालय की देहरी लांघ ही नहीं पाएगी.
हर जगह, हर छोटे-बड़े विभाग बंद कर दिए गए हैं. जेएनयू में पिछले साल एमफिल, पीएचडी को इंटीग्रेटेड प्रोग्राम में हुए एडमिशन की तुलना में 83% की भारी सीट कट के साथ मात्र 102 सीटों पर इस साल दाखिले हो रहे हैं. अर्जुन सिंह ने 2006 में उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर मंडल को जो विस्तार दिया था, उसमें भी पलीता लगा दिया गया है.
अभी तो पिछड़ों-पसमांदाओं के लिए इस आरक्षण को लागू हुए बमुश्किल 10 साल हुए हैं, और अभी से कुछ लोगों की भृकुटियां तनने लगी है.
अगर बीपी मंडल, वीपी सिंह, अर्जुन सिंह एवं उस वक़्त के संघर्ष के अपने जांबाज योद्धाओं को सच्चे अर्थों में हम याद करना व रखना चाहते हैं, तो हमें बदलने पड़ेंगे प्रतिरोध के अपने औजार. आज जब बड़ी बारीकी, चतुराई व चालाकी से आरक्षण को डायल्युट किया जा रहा है, तो क्या आरक्षण बचाने के लिए लालू प्रसाद सरीखे नेता को फिर किसी रामजेठमलानी को वकील करना पड़ेगा या योद्धा सड़क पर उतरें!
लोग रात-दिन आरक्षण के ख़िलाफ़ आग उगलते हों, जिन्हें इस अखंड देश के पाखंड से भरे समाज की रत्ती भर समझ न हो, उनसे मगजमारी करके अपना बेशक़ीमती वक़्त क्यों ज़ाया किया जाये? ऐसे लोगों की सोची-समझी, शातिराना बेवकूफ़ी व धूर्तता की अनदेखी करें. न वो ख़ुद को बदलने को तैयार हैं, न ही हो रहे बदलाव को क़ुबूल करने को राज़ी.
Also Read
-
How Jane Street played the Indian stock market as many retail investors bled
-
BJP govt thinks outdoor air purifiers can clean Delhi air, but data doesn’t back official claim
-
India’s Pak strategy needs a 2025 update
-
The Thackerays are back on stage. But will the script sell in 2025 Mumbai?
-
मुस्लिम परिवारों का दावा- ‘बहिष्कार, धमकियों’ की वजह से गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा