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एन इनसिग्निफिकेंट मैन: मामूली आदमी की ग़ैरमामूली कहानी

तीन साल पहले लॉरा पॉइट्रास की सनसनीखेज़ दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘सिटिज़नफोर’ देखते हुए मैं एक अद्भुत रोमांच से भर गया था. यह जैसे इतिहास को रियल-टाइम में आंखों के सामने घटते हुए देखना था. एडवर्ड स्नोडन को यह अंदाज़ा तो था कि वे कुछ बड़ा धमाका करने जा रहे हैं, लेकिन उसके तमाम आफ़्टर-इफेक्ट्स तब भविष्य के गर्भ में थे. ऐसे में ‘सिटिज़नफोर’ में उन शुरुआती चार दिनों की फुटेज में एडवर्ड को देखना, जब तक वे दुनिया के सामने बेपर्दा नहीं हुए थे, एक अजीब सी सिहरन से भर देता है. यह जैसे किसी क्रांतिकारी विचार को उसकी सबसे पवित्र आरंभिक अवस्था में देखना है, जहां उसमें समझौते की ज़रा भी मिलावट ना की गई हो.

खुशबू रांका और विनय शुक्ला निर्देशित दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘एन इनसिग्निफिकेंट मैन’ देखते हुए मुझे फिर वैसी ही सिहरन महसूस हुई, बदन में रोंगटे खड़े हुए. इसमें एक गवाही इस बात की भी है कि दस साल से दिल्ली का बाशिंदा होने के नाते और फिर इसी शहर पर किताब लिखने की प्रक्रिया में मेरा इस शहर से जुड़ाव ज़रा भी निरपेक्ष नहीं रह जाता. पर एक व्यापक परिदृश्य में यह उन तमाम लोगों के लिए बहुत ही विचलनकारी फ़िल्म होनेवाली है जिन्होंने दिसम्बर 2012 से लेकर दिसम्बर 2013 तक की उस अनन्त संभावनाओं से भरी दिल्ली को लिखा है, जिया है.

‘एन इनसिग्निफिकेंट मैन’ हमें आम आदमी पार्टी की इस कथा के मुख्य किरदार अरविन्द केजरीवाल को नज़दीक से तौलने-परखने का मौका देती है. फ़िल्म के एक दिलचस्प प्रसंग में अरविन्द केजरीवाल एक आप कार्यकर्ता के घर में हैं. कार्यकर्ता अखिलेश को विरोधी गुंडों द्वारा बहुत मारा गया है और उनके सर पर पट्टी बंधी है. कार्यकर्ता के साथी बता रहे हैं, ‘हमें बहुत मारा गया, लेकिन हमने हाथ नहीं उठाया. वहां पुलिस भी खड़ी थी, लेकिन पुलिसवाले ने अपनी नेमप्लेट छुपा ली और अपना डंडा मारनेवालों को पकड़ा दिया. हमने पुलिस स्टेशन के बाहर धरना भी दिया.” अरविन्द फौरन यह सुनकर नसीहत देते हैं, ‘पुलिस स्टेशन के बाहर कभी धरना नहीं देना. वो उनका मैदान है. हमें लड़ाई अपने मैदान में लेकर आनी है.’

यह अरविन्द केजरीवाल की राजनीति को समझने का सूत्र वाक्य है. इसी सूत्र वाक्य को समझने की निरंतर कोशिश में मुख्य किरदार का पीछा करते हुए फ़िल्म हमें यमुनापार सीमापुरी के उस इलाके में लेकर जाती है, जहां हेलीकॉप्टरों और स्टार प्रचारकों के ज़रिए चुनाव जीतने वाली महान पार्टियों को अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीति बड़े दिनों बाद घेरकर लेकर आयी और फिर ‘अपने मैदान’ में पटककर मारा.

आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल की राजनीति का मुहावरा समझने के लिए यह याद रखना ज़रूरी है कि यही वो जगह थी, जंतर-मंतर पर छत्तीस ज़ूम कैमरों वाली लुटियंस दिल्ली नहीं, जहां से बिजली का कनेक्शन काटकर और पंद्रह दिन की भूख हड़ताल के साथ अरविन्द केजरीवाल ने अपनी राजनैतिक पारी की शुरुआत की थी. यहां लाइव कैमरे के चैम्पियन अरविन्द कैंपेन के लिए रिकॉर्डिंग में भी नर्वस होकर पसीना पोंछते हुए दिखायी देते हैं, उग्र साक्षात्कार के बीच अचानक मोहभंग में कमीज़ की सिलाई उधेड़ते नज़र आते हैं. पहला चुनाव जीतने के बाद उम्मीदों का बोझ इस कोरे नायक के चेहरे की तनी हुई लकीरों में नज़र आता है और सबसे त्रासद मौके पर उनकी आंख का आंसू जैसे स्वयं की सबसे पवित्र प्रतिलिपि बाहर ले आता है.

पर यह अपने नायक को बिना कवच-कुंडल के देखना भी है, जो कई बार घातक सिद्ध हो सकता है. अपने निहायत ही सचेत कैमरा (खुशबू रांका, विनय शुक्ला और विनय रोहिरा) और रोमांचकारी संपादन (मनन भट्ट और अभिनव त्यागी) के चलते खुशबू और विनय इस एक साला सफ़र में आम आदमी पार्टी की राजनीति के सिद्धांतों की उच्चभ्रू से नीचे उतरने और व्यक्ति केन्द्रित पार्टी बन जाने की त्रासदी के सांकेतिक प्रतीकों को भी पकड़ते चलते हैं. लेकिन इसके ज़रिए पार्टी की अंदरूनी त्रासदी से अलग फ़िल्म एक ज़्यादा बड़ा सवाल हमारे लोकतंत्र के सामने रखती है, हमारे सामने रखती है. और वो सवाल है कि क्या हमारे प्रदर्शनकारी लोकतंत्र में आज हम उस मुकाम पर आ पहुंचे हैं जहां व्यक्तित्व केन्द्रित राजनीति ही राजनीतिक सफ़लता पाने का अकेला रास्ता है? क्या मुद्दा केन्द्रित राजनीति के किसी मॉडल की जीत अब इस व्यवस्था में संभव नहीं, और गर ऐसी कोशिश हो भी तो उसे जीत के लिए पहले से मौजूद ‘करिश्माई व्यक्तित्व’ केंद्रित मॉडल में शिफ़्ट होना होगा? और यह सवाल जितना राजनैतिक व्यवस्था से है, उससे कहीं ज़्यादा हम मतदाताओं से है. हम नागरिकों से है.

मैंने खुशबू और विनय की फ़िल्म पहली बार मुम्बई फ़िल्म फेस्टिवल (मामी) में देखी, और तमाम तारीफ़ों से इतर मेरी अकेली आलोचना यही थी कि फ़िल्म अनावश्यक रूप से एक के बजाए दो नायक खड़े करती है- अरविन्द केजरीवाल और योगेन्द्र यादव, और योगेन्द्र यादव के प्रति कुछ पक्षपाती भी दिखायी देती है. आलोचना यही थी कि यह इकहरे के बजाए दोहरा चयन ज़मीन पर पकड़ से कम और योगेन्द्र की विज़ुअल मीडिया में उपस्थिति से ज़्यादा प्रभावित है. क्योंकि इकहरे नायकत्व और नेता वाली पार्टी में दूसरे किरदार को इस मज़बूती से दिखाना कथानक की निरपेक्षता को बाधित करता है.

लेकिन योगेन्द्र यादव का समांतर व्यक्तित्व खड़ा करना दरअसल वो अद्भुत कथायुक्ति है जिसके ज़रिए निर्देशक खुशबू और विनय वृत्तचित्र निर्माण की अन्य अवश्यंभावी बाधाओं को जीतते हैं. इस फ़िल्म में एक भी रेट्रोस्पेक्टिव इंटरव्यू नहीं है, और कोई बैकग्राउंड वॉइसओवर नहीं है. कोई सूत्रधार नहीं. यानी वृत्तचित्र को मनोरंजक तरीके से रचने के और कथा को एक सूत्र में पिरोने के जितने भी हथियार एक दस्तावेज़ी फ़िल्म निर्माता के पास होते हैं, खुशबू और विनय ने उन्हें पहले ही त्याग दिया है.

खुशबू और विनय की फ़िल्म एडिटिंग टेबल पर बनती है. वे इसे किसी इमोशनल रोलरकोस्टर राइड की तरह रचते हैं. कथा संरचना में खुशबू और विनय इसे फिक्शन बॉलीवुड मसाला फ़िल्म की तरह ट्रीट करते हैं और नायक के साथ ही एक प्रति-नायक रचते हैं. सरलीकरण का खतरा उठाते हुए सिनेमाई मुहावरे में कहूं तो योगेन्द्र यादव इस ‘दीवार’ के शशि कपूर हैं. वे अपने काम करने के लहजे और व्यक्तित्व की वजह से अरविन्द के सामने रखने पर ऐसा कमाल का विरोधाभास रचते हैं, कि फ़िल्म को गज़ब का द्वंद्व मिलता है.

यह द्वंद्व खड़ा करना ज़रूरी था. क्योंकि शायद खुशबू और विनय को यह शुरु में ही समझ में आ गया था कि उनकी फ़िल्म के संभावित विलेन अन्तत: कैरीकेचर बनकर रह जाने वाले हैं. बीजेपी और कांग्रेस ने उन्हें किसी भी किस्म का ‘भीतरी प्रवेश’ देने से इनकार कर दिया था. बची सार्वजनिक सभाएं, जिनमें हमारे पारम्परिक राजनेता जोकर से ज़्यादा कुछ नहीं लगते, यह हम सब जानते हैं. यकीन ना करें तो शीला दीक्षित को अपने चुनावी कैंपेन के लॉन्च पर दलेर मेंहदी के साथ म्यूज़िक सीडी रिलीज़ के वक्त ‘ताल से ताल मिलाते’ देख लीजिए फ़िल्म में. वे इस फ़िल्म में इस हास्यास्पद स्तर तक ज़मीनी सच्चाई से कटी हुई लगी हैं कि तरस आता है.

योगेन्द्र यादव का किरदार इस कहानी को एक सर्वगुण संपन्न नायक और शक्तिशाली कैरीकैचर विलेन्स के मध्य शुद्ध स्याह और सफ़ेद में नहीं बंटने देता. यह अपने काउंटर में खुद अरविन्द केजरीवाल के व्यक्तित्व की उन खासियतों को उजागर करने का माध्यम बनता है, जो बहुत से लोगों के लिए भविष्य में उनकी सबसे बड़ी खामियां बन गयीं. टिकट बंटवारे का वो दृश्य जिसकी सबसे ज़्यादा चर्चा हो रही है- जहां केजरीवाल बोलते हैं कि ‘थोड़ी मेरी भी तो चलनी चाहिए’ और फिर दांत भींचकर चुनाव प्रचार में जाने से मना करते हैं, प्रभावशाली विलोम तभी बना पाता है जब उसके अगले दृश्य में योगेन्द्र यादव आते हैं, कार्यकर्ताओं की भीड़ के सामने निस्सहाय और अपनी ग़लती को स्वीकार कर माफ़ी मांगते. अचानक दीपक के नीचे उसकी अंधेरी छाया नज़र आती है. स्याह और सफ़ेद के मध्य वे इस फ़िल्म का धूसर रचते हैं.

फ़िल्म के अन्तिम दृश्य में, जहां अरविन्द केजरीवाल रामलीला मैदान के सिंहासन पर खड़े होकर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे हैं, योगेन्द्र नीचे आम आदमियों की भीड़ में खड़े हैं, अकेले. गौरतलब है कि सचेत कैमरे ने यहां अरविन्द का साथ छोड़ दिया है और वो योगेन्द्र के नज़रिये से हमें तस्वीर दिखा रहा है. कैमरा जनसैलाब के बीच है, मंच पर नहीं. और यही शायद वो निर्णायक दृश्य था, जिसपर किए अन्त ने मुझे पहली व्यूइंग में यह सोचने पर मजबूर किया की फ़िल्म योगेन्द्र को लेकर पक्षपाती है.

लेकिन यहां एक पेंच है. दूसरी और तीसरी व्यूइंग में मुझे अहसास हुआ कि फ़िल्म योगेन्द्र को लेकर भी निरपेक्ष नहीं है. बहुत सावधानी के साथ फ़िल्म योगेन्द्र के एंट्री शॉट में ही बताती चलती है कि उनका राजनीति में प्रवेश का यह पहला प्रयास नहीं है. खुद योगेन्द्र यादव का एनडीटीवी को दिया इंटरव्यू शॉट है जिसमें वे समाजवादी जनपरिषद के साथ पिछले असफ़ल प्रयासों का उल्लेख करते हैं. वे अन्ना आन्दोलन की पैदाइश नहीं थे, पार्टी में ‘आउटसाइडर’ थे. फ़िल्म में दिखायी देती उनकी अनासक्ति और उनका अकेलापन दोनों इसी की उपज है. ना वे छिपाते हैं और ना ये छिपता है कि जितनी ज़रूरत अरविन्द को उनकी थी, उससे कहीं ज़्यादा उन्हें अरविन्द के करिश्मे की ज़रूरत थी.

उन्होंने खुद आग की कमान थामी थी. योगेन्द्र पूरे कैंपेन में अरविन्द केजरीवाल के एकाधिकारवादी व्यक्तित्व और आवेग में लिए फैसलों को आगे बढ़कर डिफेंड करते हुए दिखते हैं. एक से ज़्यादा प्रसंगों में नज़र आता है कि इस पूरे कैंपेन को सिर्फ़ अरविन्द का नाम और चेहरा आगे कर लड़े जाने के, पूरे चुनाव को अरविन्द केजरीवाल के नाम पर रेफरेंडम बना देने की रणनीति के असल रणनीतिकार वही थे. अन्त में फ़िल्म योगेन्द्र यादव को लेकर सहानुभूति दिखानेवाली लग सकती है, लेकिन जिस तूफ़ान ने उनका घर जलाया उस तूफ़ान को खाद-पानी देकर बड़ा करनेवाले भी खुद वही थे, फ़िल्म इस व्याख्या के लिए भी पूरी गुंजाइश छोड़ती है.

एक आकस्मिक दुर्योग से फ़िल्म को अपना इमोशनल हाई-पॉइंट मिलता है संतोष कोली की कहानी में. चुनाव लड़ने के लिए साफ़-सुधरी छवि वाले ज़मीनी कार्यकर्ताओं की तलाश में आप की टीम जिन किरदारों पर ज़ीरो-इन करती है, संतोष उनमें से एक हैं. गरीब घर से निकली एक पैशनेट युवा लड़की, फ़िल्म संतोष कोली को ओल्ड फुटेज में ‘परिवर्तन’ के समय यंग अरविन्द केजरीवाल के साथ सूचना के अधिकार आन्दोलन में काम करते हुए दिखाती है, उसके किरदार को स्थापित करती है. फिर, ठहाकों से भरे एक कॉमेडी सीन के फौरन बाद अंधेरी सड़क पर एम्बुलेंस के साइरन की आवाज़. स्क्रिप्ट बहुत खूबसूरती से एक इमोशनल रोलरकोस्टर राइड रचती है और संतोष की दिनदहाड़े मौत को कहानी में इमोशनल पीक की तरह इस्तेमाल करती है. किसी फ़िक्शन फ़िल्म से भी कहीं गहरे यह मौत हमें हिला देती है, क्योंकि सच्चाई से ज़्यादा हार्डकोर मैलोड्रामा शायद फिक्शन में गढ़ना संभव नहीं.

और इस द्वंद्व से इतर, अगर आपको खुशबू और विनय की राजनैतिक चेतना देखनी है, तो आपको फ़िल्म में मोदी की जापानी पार्क वाली रैली का दृश्य देखना चाहिए. डायस से मोदी चिल्लाते हैं कि ‘दिल्ली में भाजपा की विजय ही विजय है’ और मंच पर उनके ठीक नीचे हरी नेहरू जैकेट पहने बैठे विजय गोयल शरमाकर पब्लिक की वाहवाही लूट रहे हैं. लेकिन फ़िल्म मोदी की एकमात्र लाइव उपस्थिति दिखाने के लिए यही क्षण क्यों चुनती है? क्योंकि इसी क्षण में राजनैतिक दल के रूप में आप की इस एक साला कहानी की पहली विजय छुपी है. जहां एक ओर कांग्रेस और शीला दीक्षित आप की चुनौती को ज़रा भी नहीं पहचान पाए और मुंह के बल गिरे, चौकस बीजेपी ने चुनावों के पहले ही अरविन्द केजरीवाल के करिश्मे को और उनकी पैठ को परख लिया था. इसीलिए अन्तत: जब मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित करने का समय आया तो मोदी की मंच से की गयी घोषणा को भी पलट दिया गया और मजबूरी में विजय गोयल नहीं, ‘साफ़ छवि’ वाले डाक्टर हर्षवर्धन को उम्मीदवार बनाया गया. चुनावी राजनीति में असल चुनाव जीतने से पहले यह आप की पहली सांकेतिक जीत थी, जिसे फ़िल्म बड़ी खूबसूरती से बिना बोले रेखांकित करती है.

साथ ही निर्देशक द्वय कहीं यह भी रेखांकित करते हैं कि एक लार्जर पर्सपेक्टिव में आप का काम खुद जीतने से ज़्यादा उस माहौल को बदलना था, जो चुनावी राजनीति में पारम्परिक राजनैतिक पार्टियों ने खड़ा किया है, और जिसके चलते सामान्य नौकरीपेशा मध्यवर्ग इसे ‘गंदी चीज़’ मानकर इससे दूर हो गया है. जिस नैतिक ताव पर वे खुद को कस रहे थे, वो बरकरार रहता तो दूसरी राजनैतिक पार्टियों पर भी किसी लाठी सा काम करता. आज भी करेगा. आप भले ही हारें, लेकिन इस हार में आप विरोधी को भी बदलने के लिए मजबूर कर दें तो यह आपकी जीत है. आन्दोलन से निकली आप को यह आज भी याद रखना चाहिए. तमाम अन्य जनआन्दोलनों को भी.

मेरा साफ़ मानना है कि हिन्दुस्तान में भविष्य दस्तावेज़ी फ़िल्मों का होना है. और इसकी सीधी वजह हमारे वर्तमान में छिपी है. तकनीक और बाज़ार के गठजोड़ ने आज शहर से लेकर गांव, देहातों तक हर इंसान के हाथ में मोबाइल पकड़ा दिया है, और तक़रीबन हर दूसरा मोबाइल कैमरे से लैस है. 118 करोड़ की संख्या के साथ पढ़े लिखे भारतीयों से ज़्यादा बड़ी संख्या आज मोबाइल का इस्तेमाल करनेवाले हिन्दुस्तानियों की है. आज का भारतीय अपने वर्तमान को शब्दों में नहीं, विज़ुअल में दर्ज कर रहा है. सार्वजनिक स्थल पर कोई परेशान करे, या हम अपने समक्ष कहीं कुछ विवादित घटता हुआ देखें, या किसी सेलिब्रिटी से अचानक सामना हो जाए. आज कुछ और करने से पहले इंसान अपनी जेब से मोबाइल निकालकर उसका रिकॉर्डर ऑन करता है.

इसका नतीजा ये है कि हमारा सार्वजनिक जीवन अनगिनत किस्म की सत्यापित, गैर-सत्यापित वीडियो फुटेज से अटा पड़ा है. घटनाओं के अनगिनत नज़रियों से खींचे गए वीडियो सोशल मीडिया पर घूम रहे हैं. खुद हमारा अस्तित्व हर पल दर्जनों कैमरों से घिरा हुआ है. टेलीविज़न इनकी गिरफ़्त में आ चुका है, यह आप किसी भी ऐसे हिन्दी न्यूज़ चैनल को देखकर जान सकते हैं, जहां किसी घटना का ‘न्यूज़’ होना अब उसके विज़ुअल फॉर्मेट में होने पर टिका हुआ है. ‘सिटीज़नफोर’ वाले उदाहरण में भी सबसे दिलचस्प यही है कि एडवर्ड स्नोडन दो खोजी पत्रकारों के साथ एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर को मिलने के लिए संपर्क करते हैं. यह विज़ुअल की ताकत है, जिसे एडवर्ड स्नोडन से लेकर अरविन्द केजरीवाल तक हर ‘खतरों का खिलाड़ी’ अब बखूबी समझ चुका है. खुशबू रांका और विनय शुक्ला ने इस दुर्लभ मौके का सुनहरा इस्तेमाल किया है. गर उनकी फ़िल्म को व्यावसायिक सफ़लता भी मिले, तो यह भारत में दस्तावेज़ी फ़िल्मों के लिए एक नया रास्ता खोलनेवाली बात हो सकती है, जहां बिना नाम बदले एक ही ‘सच्चाई’ के भिन्न संस्करणों पर फ़िल्म बनाना संभव होगा.

बस, ऐसा होने के लिए हमें सेंसर और ‘आहत भावनाओं’ के दायरे के पार जाना होगा.