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राजस्थान पत्रिका का विज्ञापन और काला क़ानून
अजीब तानाशाही का दौर है. सुनते हैं राजस्थान सरकार ने उसके विवादग्रस्त काले क़ानून के ख़िलाफ़ स्टैंड लेने वाले दबंग अख़बार राजस्थान पत्रिका को सरकार के विज्ञापन फिर से बंद करने की कार्रवाई की है.
अपने मनचाहे रास्ते पर न चलने वाले अख़बारों को सबक़ सिखाने की ग़रज से विज्ञापन बंद कर देना पुराना सरकारी हथकंडा है.
ख़याल करें, जन–विरोधी क़ानून को वापस न लेने के ख़िलाफ़ राजस्थान पत्रिका ने वसुंधरा सरकार से जुड़ी ख़बरें प्रकाशित नहीं करने का निर्णय किया है.
वैसे निजी तौर पर मैं ऐसे बहिष्कार को सांकेतिक तौर पर ही आज़माने के हक़ में हूं.
लेकिन सरकार किसी बहुवितरित अख़बार को जब चाहे विज्ञापन देने, न देने की धौंस दिखाए, निस्सन्देह यह एक तरह से मीडिया को दबा कर भ्रष्टाचारियों को बचाने वाले काले क़ानून का विस्तार ही होगा.
आदर्श स्थिति तो वह कहलाएगी जब पत्रकारिता बाज़ारू विज्ञापनों की निर्भरता से बरी हो. लेकिन ख़ुद बाज़ारवाद की गोद में पलते मीडिया के लिए ऐसे आदर्श का निर्वाह लगभग नामुमकिन है. ट्रिब्यून जैसे अख़बार समूह, जो ग़ैर–लाभकारी न्यास द्वारा संचालित हैं, विज्ञापनों के सहारे से बेरुख़ी नहीं कर सकते.
कई अख़बार और टीवी चैनल तो विज्ञापनों पर इतने निर्भर हैं कि मुनासिब अनुपात की सीमा भी लांघते रहते हैं.
फिर भी – कहा जा सकता है – सरकार के अनेक विज्ञापन जनता को सरकार की ओर से दी जाने वाली जानकारी होते हैं, ख़ैरात नहीं.
हालांकि यह दलील ख़बरें देने न देने के मामले में भी लागू हो सकती है.
मगर फ़र्क़ शायद यह होगा है कि सरकार जनता के पैसे से चलती है, अख़बार जनता के भरोसे से.
पाठक सरकार की ख़बरों के बग़ैर भी अख़बार पढ़ता रहे तो यह अख़बार की नीति को उसका समर्थन माना जाएगा. इस बात की अनदेखी जन–गण की उपेक्षा करना होगा.
सरकार बहिष्कृत जानकारी को जन–हित में अपरिहार्य मानती हो तो उस जानकारी को विज्ञापन की शक्ल में लोगों तक पहुंचाया सकता है (क्योंकि लोग अख़बार पढ़ रहे हैं), बजाय विज्ञापनों को ब्लैकमेल की तरह इस्तेमाल करने के.
संयोग कहें या फ़ितरत, कि राजस्थान के अलावा मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सरकारें भी पहले इसी अख़बार को विज्ञापन देने पर रोक लगा चुकी हैं. लम्बे समय की रस्साकशी, अदालती जिरह के बाद विज्ञापन फिर शुरू हुए.
वसुंधरा सरकार ने भी पत्रिका के विज्ञापन पहले बंद कर रखे थे. बाद में अदालत के दख़ल पर थोड़े विज्ञापन सरकार देने लगी. अब सरकार के बहिष्कार से उसे फिर अख़बार से दो–दो हाथ करने का मौक़ा मिला है.
विज्ञापन का खेल खेलने से अख़बार को आर्थिक नुक़सान हो सकता है– होता है– पर इसमें बड़ा नुक़सान जनतंत्र का है.
और याद रहे, अंततः तानाशाही ही इस खेल में बाहर का रास्ता देखती है.
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