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अप्पाजी का नैहर छोड़ना और पूरब अंग पर उतरा सन्नाटा
यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि आज से अठहत्तर साल पहले सन् 1939 में कांग्रेस के जबलपुर महाधिवेशन में गांधीजी ने जिस नौ साल की बच्ची को अनाम सी फिल्म “याद रहे” में अछूत कन्या के अभिनय के लिए सराहा था, आज इतने बरस बीत जाने के बाद वह बच्ची अट्ठासी बरस की होकर, अपने पूरे कला-तप के साथ भारतीय संगीत के दृश्य-पटल पर अमिट छाप छोड़कर दूसरी दुनिया को रुखसत हो गई. गिरिजा देवी, जिन्होंने अभिनय से अपने जीवन की शुरूआत की थी, अपने सुर और बोलों के अभिनय से बनारस सेनिया घराने की अप्रतिम परम्परा वाहक के रूप में हमारे बीच उपस्थित रहीं. आज की काशी, शास्त्रीय संगीत के इतने हाशिये पर चले जाने के बावजूद, जिन मूर्धन्यों की वजह से जानी जाती है, उनमें सिद्धेश्वरी देवी, रसूलनबाई, उस्ताद बिस्मिल्ला खां जैसे दिग्गजों के अतिरिक्त गिरिजा देवी भी थीं. जाहिर है उनके जाने से काशी की परंपरा को गहरा आघात लगा है.
सन् 1949 में आकाशवाणी, इलाहाबाद के लिए अपनी पहली प्रस्तुति देने वाली गिरिजा देवी के जीवन में निर्णायक मोड़ तब आया, जब मार्च, सन् 1952 में कॉन्स्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली के लिए निर्मला जोशी ने उन्हें प्रमुख कलाकार गायिका की बतर्ज़ प्रस्तुत किया. श्रोताओं की भीड़ में उस समय डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं पं. गोविन्द वल्लभ पन्त जैसे लोग मौजूद थे और यह उनके लिए पहला बड़ा अवसर था. इसी कार्यक्रम के बाद हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन एवं एआईआर की अन्य रिकॉर्डिंग्स के माध्यम से उन्हें एक बड़ी सम्भावना के रूप में देखा जाने लगा.
अपनी पूर्ववर्ती गायिकाओं हीराबाई बडोदकर, विद्याधरी एवं सिद्धेश्वरी देवी से प्रेरित रहते हुए भी गिरिजा देवी ने अपनी गायकी के लिए किसी का अनुसरण नहीं किया. बनारस घराने की गायकी परम्परा में पं. बड़े रामदासजी, विद्याधरी, बड़ी मोतीबाई एवं रसूलनबाई की गायकी का पर्याप्त सम्मान रखते हुए उन्होंने घरानेदार चीजों को जस का तस अपनाया भी तो उसमें भावों और शास्त्रीयता के बीच एक गहरा संतुलन साधा. उस जमाने में जब पौने चार और साढ़े सात ट्रैक पर बजने वाले स्पूल कैसेटों के बरक्स एलपी रिकॉर्ड्स बाजार में आ गए थे, ख्याल और ध्रुपद के आगे ठुमरी, दादरा, कजरी व चैती को वरीयता नहीं मिलती थी. इन उपशास्त्रीय प्रकारों को ‘पक्का गाना’ की श्रेणी से दूर रखा जाता था. उस समय एकमात्र सिद्धेश्वरी देवी को छोड़कर इन विधाओं को मुख्यधारा का अंग बनाने में गिरिजा देवी ने ही अप्रत्याशित काम किया.
जहां सिद्धेश्वरी देवी ने ठुमरी, दादरा को पूरी शास्त्रीय गरिमा के अनुरूप ढाला, वहीं गिरिजा देवी ने इनकी सरसता और जनसामान्य में इसके प्रचलन का भरपूर ध्यान रखा. जो कजरी, चैती इससे पहले लोक बोलियों और हिन्दी की परवर्ती परम्परा में गायी जाती थी, गिरिजा देवी ने उसमें साहित्य से पद लेकर गाना शुरू किया. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जैसे कवियों के पदों में परिवर्तन करके उन्हें संगीत में प्रतिष्ठित करने में अद्भुत भूमिका निभाई है. युगलानन्यशरण, रामप्रतापजी, रसिक अली, बैजनाथ, सिया अली जैसे कवियों की क्लिष्ट शब्दावली को भी सात सुरों के सुगम साहचर्य का आदी कर दिया.
देखते-देखते गिरिजा देवी ठुमरी गायकी का पर्याय बनती चली गईं, जिसकी वजह से बनारस की पूरब अंग की गायकी को एक नयी शान व ओजस्विता हासिल हो सकी. सत्तर के दशक तक बनारस की ठुमरी के दोनों प्रमुख अंगों- बोल बांट की ठुमरी और बोल बनाव की ठुमरी- में गिरिजा सिद्धहस्त हो चुकीं थीं. यह गायन के प्रति उनके अद्भुत समर्पण का ही कमाल था कि उनकी समकालीनों, बागेश्वरी देवी व निर्मला देवी की गायकी पर गिरिजा देवी की छाप देखने को मिलती है.
पूरब अंग की पुकार तान में उन्होंने न सिर्फ नया अध्याय जोड़ा अपितु अपने गुरू पं. श्रीचन्द मिश्र से बनारस घराने की कुछ खास व ऐसी दुर्लभ बारीकियां सीखने में अग्रसर हुईं, जिन्हें अक्सर गुरू परम्परा सिखाने से बचा जाता रहा है. इन चीजों को घरानेदारी में सिखाने के प्रति इस कारण प्रतिबन्ध रहता है कि उनके प्रचलन के कारण कहीं घराने की शुद्धता न खत्म हो जाय. यह देखना दिलचस्प है कि गिरिजा देवी ने इस दिशा में भी जबरदस्त संयम और साधना का परिचय दिया, जिसके चलते वे गुल, बैत, नक्श, धरू, छन्द्र-प्रबन्ध, रूबाई व कौल कलावना जैसी चीजों को भी सहेजने में पूरी निपुणता से उभर सकीं.
बनारस में चतुर्मुखी गायकी की अपूर्व प्रतिष्ठा रही है, जिसमें चार विशिष्ट गायन प्रकार- ध्रुपद-धमार, ख्याल-टप ख्याल, तराना-टप्पा, कजरी, ठुमरी-लोकगीत, संस्कारगीत गाये बजाए जाते हैं. गिरिजा देवी इस चतुर्मुखी गायकी की प्रतिनिधि कलाकार हैं. लोकगीत के अन्तर्गत आने वाली बन्ना शहाना जैसी लोकप्रिय व साधारण विधाओं को भी उन्होंने बड़ी मोतीबाई से पूरी गम्भीरता से सीखा है. ‘बगिया में बोले मोरे नैहर का सुगना’ जैसा ब्याह का गीत वे बड़ी मोतीबाई के खजाने से निकाल पाईं तो दूसरी ओर ‘श्याम सुन्दर रघुनाथ बने की छबि निखरत न अघात री माई’ जैसा बन्ना, रामरसिक भक्ति सम्प्रदाय के मंगल पदों से खोजा जा सका.
गिरिजा देवी की एक विशिष्टता यह भी रही है कि उन्होंने कभी राजदरबारों में गायन नहीं किया. इसका कारण यह रहा कि अपने पति स्वर्गीय मधुसूदन दास को उन्होंने वचन दे रखा था कि गायकी को दरबारों तक नहीं ले जायेंगी. वह किसी राजघराने के आंगन में तभी साकार होगी, जबकि राजपरिवार से निकलकर कोई शिष्य या शिष्या उनसे संगीत सीखे. इस स्थिति में फिर वह उनके शिष्य का घर हो जाता और उनकी गायकी सम्पूर्ण राजपरिवार के लिए गुरू का संगीत. उनके पति का तर्क था कि संगीत अराधना की चीज है इसलिए वह देवालयों में होनी चाहिए. यह वचन उन्होंने निभाया.
एक खास बात जो उन्हें सार्वकालिक महत्व का बनाती है, वह यह कि दुर्लभ रागों की अदायगी से उन्होंने कभी परहेज नहीं किया. वे जानती थी कि सेनिया घराने का मतलब पीलू, तिलक, पहाड़ी व कौशिक ध्वनि जैसा राग होता है. बावजूद इसके अपनी ठुमरी गायकी में इन रागों की उपस्थिति के साथ-साथ कुछ कम प्रचलित रागों मसलन- सिन्दूरा, गांधारी बहार, देवगान्धार, परज, गारा खमाज, जनसम्मोहिनी, नन्द व भीमपलासी आदि का प्रयोग किया. एक तरफ पंच राग (खमाज, परज, बसन्त, काफी व बहार) में ‘होली आली री आयो बसन्त सुहावन’ गाकर रागदारी में उत्कृष्ट नवाचार दिखाया तो दूसरी ओर वाजिदअली शाह की सुप्रसिद्ध बन्दिश ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय’ को अपनी आवाज़ से हमेशा के लिए अमर कर दिया.
एक ओर ख्याल गाते समय केदार, भैरव, भैरवी, बागेश्री, मालकौंस और जयजयवन्ती जैसे रागों को अप्रतिम मिठास बरती तो दूसरी ओर कजरी और बारामासा गीतों में अधिसंख्य मिश्र रागों- मिश्र गारा, मिश्र खमाज, मिश्र कलावती, मिश्र काफी, मिश्र पीलू, मिश्र अड़ाना, मिश्र जोगिया, मिश्र मुलतानी का प्रयोग ठेठ बनारसी अन्दाज में निभाया.
परम्परागत अर्थों में हम जिसे उपज की गायकी कहते हैं, उसमें गिरिजा देवी ने अपनी पद्धति और लोक-व्यवहार का मेल कराकर संगीत को नयी अर्थछवियां सुलभ कराईं. अपने पसन्द के भैरव राग का गायन हो, या फिर कम पसन्द की बन्दिशों की अदायगी- वे हर स्थिति में अपनी गायकी का सर्वोत्तम ही देती नजर आईं.
सामान्यतया ठुमरी साम्राज्ञी कहा जाना कहीं उन्हें अखरता, वजह यह कि ठुमरी और अन्य उपशास्त्रीय विधाओं की प्रतिनिधि कलाकार होने के बावजूद वे सेनिया घराने की महत्वपूर्ण ख्याल गायिका भी थीं. संगीत या अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं में अक्सर यह देखा गया है कि एक कलाकार जिस विधा को शीर्ष पर पहुंचा देता है, व्यापक कला समाज उसकी पहचान को उस विधा के रूपक के तौर पर रूढ़ि की तरह मान लेता है. स्वर्गीय पं. ओंकारनाथ ठाकुर के साथ भी यह दिक्कत सामने आती थी कि महफिलों और संगीत जगत में ख्याल गायकी के उत्कर्ष पर थे, पर श्रोताओं के लिए वे उतने ही आत्मीय भजन गायक भी थे. इसी स्थिति से पण्डित कुमार गन्धर्व भी जीवन भर दो-चार होते रहे. यही दिक्कत गिरिजा देवी के साथ भी थी, जो उनके ख्याल गायन को ठुमरी चैती के आगे बाधित करती रहती थी.
उनके दीर्घकालिक सांगीतिक अवदान के लिए उन्हें केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तानसेन पुरस्कार, उस्ताद हाफिज अली खां पुरस्कार, पद्मभूषण सहित केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी की सदस्यता प्रदान की गयी. भारत से ज्यादा उनके शिष्य बाहर के देशों में हैं, इस तथ्य से यह बात भी प्रमुखता से सत्यापित होती है कि परम्परागत भारतीय कला का सम्मोहन और भविष्य अभी भी बचा हुआ है. सिद्धेश्वरी देवी और बड़ी मोतीबाई की परम्परा में गिरिजा देवी ने अपने नवाचार से घराने की शुद्धता को तो बरकरार रखा ही, उसे नये शास्त्रीय अभिप्राय भी प्रदान किये. यह गिरिजा देवी के कारण ही था, कि हमें बनारस घराने की पूरब अंग की गायकी का इतना सुन्दर, व्यवस्थित और विकसित रूप आज सुलभ हो सका है. शायद वे उस महत्त्रयी- रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी एवं बड़ी मोतीबाई की परम्परा की अन्तिम सार्थक उपस्थिति हैं, जिनके होने से ठुमरी का आंगन आज भी पूरी गरिमा के साथ गुलजार रहा.
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