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गिरिजा देवी: बनारस घराने में वीरानगी की एक और दस्तक
हमारे जैसे रसिकों के लिए गिरिजा देवी का इस दुनिया में होना ज़रूरी था. उन्हें देखने-सुनने के बहाने मैं कई गुज़रे हुए लोगों को देख लिया करता था जिन्हें मैंने नहीं देखा. मसलन, उन्हें जब पहली बार बरसों पहले सामने सुना, तो लगा था कि बेग़म अख्तर और गौहर जान दोनों साकार हो गई हैं. गिरिजा देवी उस विरासत की आखिरी कड़ी थीं शायद. उनके सन जैसे बाल, होठों पर पान की लाली और नाक की दमकती लौंग- मेरे ज़ेहन में हमेशा बनी रही. दिल्ली में जब कभी मिलतीं, प्रणाम ज़रूर करता था. पहली बार उन्हें संकटमोचन में प्रणाम किया था. उसके करीब बीस बरस बाद इस साल वे संकटमोचन आई थीं. मैं नहीं जा सका था.
मेरे एक वरिष्ठ बताते थे कि विलायत खां जब सितार बजाते तो एक पल ऐसा आता जब लगता था कि पूरा सभागार कुछ इंच ऊपर उठ गया है. मैंने सामने नहीं सुना उन्हें. गिरिजा जी को भी जब-जब सुना, सभागार उठता हुआ नहीं लगा. मुझे यह बात कभी समझ में ही नहीं आती अगर शायद दस साल पहले गिरिजा देवी को मैंने लक्ष्मी नगर के पूर्वा सांस्कृतिक केंद्र में न सुना होता. अजीब सी असांस्कृतिक जगह है यह सभागार, लेकिन विशिष्ट है क्योंकि मंडी हाउस के लिफाफिया, नकली और बनैले रसिक वहां नहीं जाते जिन्हें बीच में ताली बजाने की हुड़क जाने क्यों उठती है. तो गिरिजाजी ने अपने अंदाज़ में पहले तो एक कमेंट्री दी. उसके बाद ठुमरी से माहौल बनाया. फिर झूले पर आईं.
वे बंदिश पर बहुत ज़ोर देती थीं. बीच-बीच में गाकर समझाती भी थीं. ”झूला धीरे से झुलाओ बनवारी रे सांवरिया” गाते हुए उन्होंने बाकायदे बताया कि ‘धीरे’ से झुलाने का अहसास कैसा होता है, ‘झुलाने’ का अहसास कैसा होता है और राधा की यह मनुहार कैसी होती है. वे जैसे समूचे स्पेस को निर्देश दे रही दिखती थीं. हर चीज़ उनके हिसाब से अब डोल रही थी. दस मिनट बीतते-बीतते उस एक पंक्ति में उन्होंने ऐसा रमा दिया कि लगा पूरा सभागार ही थोड़ा ऊपर उठ गया है. घुप्प सन्नाटे और मंत्रमुग्ध श्रोताओं को चीरती-सी उनकी टनकार आवाज़ के असर से सभागार झूला बन गया था.
अचानक तंद्रा टूटी. आखिरी पेशकश एक कजरी थी. दो लोगों के सहारे जब वे मंच से उतरने लगीं तो मैं पीछे जाकर निकास पर खड़ा हो गया. रहा नहीं गया. हमेशा की तरह झुक कर प्रणाम किया. बोलीं, ”खुश रहो.” इतने साल में पहली बार मुंह से दूसरा शब्द निकला, ”हमें सिखाएंगी?” वे ठिठक गईं. उन्होंने पूछा, ”दिल्ली में क्या कर रहे हो?” मैंने जवाब दिया, ”जी, नौकरी.” उनकी निश्छल मुस्कान और जवाब हूबहू याद है, ”तो नौकरी करो बेटा.” उसके बाद जब कभी मिला, प्रणाम के बाद दूसरा शब्द नहीं निकला. उन्होंने भी ”खुश रहो” के सिवा कुछ नहीं कहा.
लगा, उस दिन हमारे घर मेरी नानी मुझसे मिलने आयी हैं :
उस दिन दोपहर से ही हॉस्टल में गहमागहमी थी. शाम को गिरिजाजी आनेवाली थीं. हॉस्टल की अपनी राजनीति होती है. अमूमन ये राजनीति दो धड़ों में बंटकर की जाती है- एक जो हॉस्टल प्रेसिडेंट के साथ के लोग हुआ करते हैं और दूसरे जो हारे हुए गुट के लोग प्रेसिंडेंट के विरोधी. गिरिजाजी को लाने में उस वक्त के प्रेसिडेंट अप्रमेयजी की भूमिका थी और वो आयीं भी थी तो उनके व्यक्तिगत संबंधों के कारण. वो खुद भी संगीत के बेहतरीन छात्र रहे थे और संगीतकारों के बीच उनकी अपनी पहचान बन रही थी.
खैर, ऐसे में प्रेसिडेंट जिन्हें बुलाए, दूसरे धड़े के लोग एकदम से गायब हो जाते. ऐसा कर देते कि जैसे वो हॉस्टल का हिस्सा हों ही नहीं. वैचारिक स्तर पर मेरी कभी प्रेसिडेंट से बनी नहीं. हम आखिर-आखिर तक असहमत होकर इस हॉस्टल से निकले. लेकिन गिरिजाजी के प्रति मेरा गहरा लगाव था और मैं उन्हें एकदम करीब से गाते हुए सुनना चाहता था. लगाव की वजह थे स्कूल के दिनों के उपाध्याय सर.
मैट्रिक तक मैंने शास्त्रीय संगीत की भी पढ़ाई की है. उपाध्याय सर हमें सभी राग, स्वर, सप्तक, संगीतज्ञ के बारे में बताते, समझाते. मुझे तो खासतौर से क्लास खत्म होने के बाद कहते- तुम अपने पापा को एक हारमोनियम खरीदने को कहो, मैं सिर झुकाकर बस इतना कह पाता- अच्छा सर. उन्हें मेरे पापा की सच्चाई क्या मालूम की कि वो हारमोनियम खरीदने के नाम पर मुझे ही मार-मारकर पखावज बना देंगे.
उस शाम जब गिरजाजी हमारे हॉस्टल आईं तो मैं उन्हें एकटक देखता रहा. कार्यक्रम शुरू होने में थोड़ी देर थी. वो यूनियन रूम में बैठकर बाकी संगत के लोगों के साथ कुछ-कुछ बोल-बतिया रही थी. बातचीत का अंदाज ऐसा कि जैसे डीयू के किसी हॉस्टल में नहीं अपने टोला-पड़ोस में आयीं हों. मेरी तरफ देखकर कहा- बचवा जरा पानी बढ़ाओ. मैं इस झटके से उठा कि जैसे दो सेकण्ड की देरी हुई नहीं या किसी और ने दे दिया तो मेरे जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि मेरे हिस्से आने से रह जाएगी. मैं अमूमन यूनियन रूम जाने से बचता था लेकिन उस दिन एकदम से बना रहा. मैं कुछ नहीं चाहता था, एकटक गिरजाजी को देखते रहना चाहता था और उनको देखते हुए उपाध्याय सर की कही बातें मन ही मन दोहराता जा रहा था.
कार्यक्रम शुरू हुआ. कोई तामझाम नहीं. हॉस्टल की मेन गेट पर ही दरी बिछा दी गयी. बीच में गिरिजाजी और साथ में संगत के लोग और बाकी चारों तरफ हम हॉस्टलर्स. कोई टेंटहाउस से किराये पर मंगायी गई कुर्सी नहीं, जाजिम, दरी नहीं. सब घरेलू स्तर पर जो इंतजाम हो सकता था, वही सब. करीब पौने दो घंटे तक वो गाती रहीं और बीच-बीच में गद्य में सुनाती रहीं. इस बीच कोई ठसक नहीं, किसी तरह की ऐंठ नहीं. सहज, शांत और एकदम मिलनसार. जाते-जाते ऐसा महसूस करा गयीं कि जैसे हम सभी हॉस्टलर्स की कुछ न कुछ लगती हों.
पीछे से कुछ हॉस्टलर्स जिन्होंने दूरदर्शन या टाइम्स म्यूजिक कैसेट पर उन्हें पहले से सुन रखा था, फरमाइश करते- गिरजाजी ये… वो हौले से मुस्कराती और एकदम इतराते हुए अंदाज में कहतीं- एकहि दिन में क्या-क्या सुन ल्योगे बचवा. फिर गाना शुरू करतीं.
मुझे नहीं पता कि हॉस्टल ने मानदेय के तौर पर उन्हें क्या दिया लेकिन कार्यक्रम के अंत में वो एकदम गदगद थीं. प्रेसिडेंट की तारीफ कर रही थीं और इस बात से खुश थीं कि लोगों को उनकी गायी ठुमरी, कजरी, चैता ध्यान में है. चलौ, अब बहुत हुआ, जाय दो.
मुझे लगा कि अब वो दोबारा गप्प करने के लिए नहीं रूकेंगी जैसा कि आमतौर पर हॉस्टल के कार्यक्रमों में हुआ करता है. मैं उनके एकदम करीब गया और क्या मन आया कि पैर छू लिए. पैर छूने की मेरी आदत शुरू से नहीं रही है. घर में मां और ननिहाल में नानी के अलावा किसी का छुआ नहीं और कॉलेज में ऐसा रिवाज नहीं था. खुश रहौ बच्चा..कौन क्लास में हो ? एमफिल, उन्हें लगा, मैं संगीत से एमफिल कर रहा हूं लेकिन हिन्दी साहित्य बताया तो बहुत खुश हुईं. मन लगाके खूब पढ़ा-लिखा… पीठ पर हाथ फेरते हुए टुघरते हुए (धीरे-धीरे) आगे बढ़ गयीं.
गिरिजाजी के जाने के घंटों बाद तक वो स्पर्श एक अतिरिक्त एहसास की तरह साथ बना रहा. मैं पैर छूने को लेकर सोचने लग गया. आखिर ऐसा क्या था कि मैं अपनी आदत से एकदम उलट जाकर पैर छू लिए? फिर लगा- हमारे भीतर पढ़ाई-लिखाई से कुछ आदिम आदतें इतनी गहरी बैठ जाती हैं कि वो रोजमर्रा के दिनों में तो नहीं लेकिन अनायास सामने आ जाती हैं. उपाध्याय सर ने गिरिजा देवी की जो छवि हमारे सामने बनायी थीं, वो स्थायी रूप से टिक गयीं थी. एक बेहतरीन शिक्षक न केवल ज्ञान के प्रति बल्कि भविष्य में उस ज्ञान के स्रोतों को भी हाथ में पकड़ाने की कोशिश करता है, पूर्वपरिचित कराता है. गिरिजाजी को लेकर कुछ ऐसा ही था.
आज देर रात हॉस्टल के मेन गेट पर क्रीम कलर की साड़ी में एकदम नानीवाली शैली में बैठी गिरिजाजी फिर-फिर याद आ रही हैं जिनकी आवाज़, हाथों का वो स्पर्श और बचवा संबोधन सब मिलकर गहरे स्तर पर भावुक कर दे रहा है- वो हमारे बीच की थीं, हमारी नानी जैसी थीं, हमारे बीच से चली गयीं. अपने पीछे आवाज़ की जो विरासत छोड़ गयीं, वो हमारे उन दर्जनों पूर्वजों की ओर से दी गयी ज़िम्मेदारी है जिनके प्रति हम लापरवाह होने के अभ्यस्त हो चले हैं.
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