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अच्छे दिन जहां दिन में भी नहीं आते, अच्छे दिनों के लिबास वहीं से जाते है
यह आज के माहौल में छा रहे अफवाहों की अकादमिक विवेचना की पंक्तियां हैं. हम ऐसे समय में सांस ले रहे जहां तार्किकता और विज्ञान को कटघरे में खड़ा कर उस पर उग्र रूढ़िवाद का कुठराघात किया जा रहा है. विचारधाराओं की विषमताओं को देश के भौगोलिक वातावरण से ही बाहर करने की साजिश रची जा रही है. ऐसे में इस लेख का शीर्षक सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की धुरी रहे बनारस की आवाज़ हैं. आज का बनारस पिछले हज़ार सालों के बनारस से अलग दिखाई जरूर दे लेकिन उसकी आत्मा आज भी कबीर की तरह रमता जोगी है. ऊपर से जरूर इस पर कुछ धार्मिक खुमारी देखने को मिल रही लेकिन इसके घाट के पत्थर गंगा की लहरों से ही चमकदार होते रहेंगे.
वैश्विक पटल पर पहुंच रहे बनारस को समझने के लिए ज़रा बाज़ार को समझना निर्णायक साबित होगा. वैसे तो भारत से लेकर समूचे विश्व की स्थिति साम्राज्यवाद और उसके बाद हुए शीत युद्ध के समय से ही बाजार की चपेट में रही है. जैसे-जैसे अमेरिकी पूंजीवाद की नव- उपनिवेशवादी विचारधारा विश्व के कोने-कोने में अपनी उपस्थिति दर्ज करनी शुरू की, स्थितियां और विकट होती गयी. यूएसएसआर के विघटन के बाद समूचे विश्व पर अमेरिकी नियंत्रण कमोबेश कायम होता गया. अपनी जिजीविषा से उपजे क्यूबा, वियतनाम और ईरान जैसे देशों को छोड़ दिया जाए तो विश्व का हरेक कोना आज हॉलीवुड और मैक्डी कल्चर की जद में है.
1990 के आर्थिक संकट ने भारत में अमेरिकी हस्तक्षेप को और बढ़ावा दिया. नॉम चॉम्स्की के प्रोपोगैंडा मॉडल की तर्ज पर रथयात्राएं निकाली गयी और फिर भारतीय लोकतंत्र को बाबरी विध्वंस के रूप में एक अनोखा घाव मिला. फिर क्या था आर्थिक नगरी मुंबई से शुरू हुए नरसंहार का सफर गुजरात होते हुए पूरे भारत में बदस्तूर जारी है.
अच्छे दिनों का भविष्य दिखाकर गुजरात के “विकास पुरुष” ने बनारस से पहली बार चुनाव लड़ा और प्रधानमंत्री के रूप में अपना नया अध्याय शुरू किया. ऐसे में बनारस एक बार फिर से प्रासंगिक होता गया. प्रसाद, कबीर, त्रिलोचन, नामवर सिंह की कर्मभूमि बनारस इस ग्लोकल दौर में भी अपनी साहित्यिक उपस्थिति दमदारी से दर्ज कराने में जुटा रहा. इसी उपस्थिति के क्रम में विश्व के सबसे युवा देश की युवता को भी अपने सरोकार से परिचित होने का अवसर मिला.
प्रतिष्ठित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी के शोध छात्र अरमान आनंद की कविताओं में प्रतिरोध की संस्कृति के साथ वर्तमान समाज की घटनाओं और उससे उपजे मनोविज्ञान को कविकर्म प्रदान किया गया है.
नल का पानी जहां उतर कर जमे
और शर्म से काला पड़ जाए
यह बजरडीहा की शुरुआती पंक्तियां हैं. आपको बता दें ये वही बजरडीहा है जहां की बनी हुई रेशमी साड़ियों से देश विदेश के लोग परिचित हैं. बनारसी साड़ी अपने आप में एक सांस्कृतिक ब्रांड है. काशी मंदिर के अलावा किसी और चीज़ से जाना जाता है तो वह है बनारसी साड़ियां. यहां, “मर्द अपने आंत के रेशो को बुनकर / संसार की सबसे सुन्दर स्त्री के लिए साड़ियां तैयार करता है.” गरीबी और भुखमरी की स्थिति यहां अपने चरम पर है.
मुस्लिम बहुल इस इलाके में आपको स्वच्छ भारत का नामोनिशान कहीं भी नहीं देखने को मिलेगा. सड़कों पर नालियों का पानी बजबजाता मिलेगा. नालियां जाम हैं. 2 लाख की सघन आबादी को जीवन की बुनियादी समस्याएं मयस्सर नहीं हैं.
बनारस के 19 लाख़ लोगो में से 5 लाख लोग बुनकरी का काम करते हैं. इसमें से 85 फीसदी हथकरघा चलाते है. कवि जो इस वातावरण का गवाह है, कहता है- “औरतें हया को ज़रूरत मानकर चिथड़ों में लिपटी हुई / धागे के थान लपेट रहीं हैं.” ये वही चीथड़े हैं जिसे आज़ादी के समय निराला की नायिका ने इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ते हुए पहन रखा था. कविता बताती है कि आज़ादी के सात दशक के बाद भी हया के लिए चिथड़ों और पैबन्दों की जरुरत जस की तस बनी हुई है.
हया आज के बाजारू समय की सबसे कीमती अदा है. लेकिन ज़रुरत नहीं. परन्तु उन कुपोषित, सूखे जिस्मानी भूगोल के लिए हया आज भी एक अनिवार्य जरुरत है. इससे ये पता चलता है की संसार की सबसे खूबसूरत स्त्री के लिए बनाये जा रहे लिबास किस तरह भुखमरी और मुफ़लिसी के हाथों से तैयार किये जा रहे हैं.
‘बजरडीहा’ कविता में संसार की सबसे सुन्दर स्त्री को जितनी भयावहता प्रदान की गयी है वह कवि के वर्तमान समय पर मजबूत निगहबानी का बयान है. आज सिने तारिकाओं से अटे पड़े अख़बार, गली, चौराहे हों या राजमार्ग हर जगह जो छवि दिख रही है वह बजरडीहा की गलियों में जाकर दम तोड़ देती है.
इस अमानवीय सुंदरता की चकाचौंध से दूर कवि करघे को ही अपना सर्वस्व बताते हुए लिखता है- “जहां करघा ही मां है, बाप है, भाई है, स्कूल है / नवाज़ुद्दीन की किसी फिल्म का डायलॉग है,” संवेदना को सर्वोच्चता प्रदान करती है. कविता अपने शिल्प से उपजे आह की शक्ल को एक मुहावरे में बदल देती है. यही तो साहित्य की परंपरा है जो उसे कला की अन्य विधाओं से ज्यादा मुखर और प्रभावी बनाती है. अरमान इस परंपरा का निर्वहन करते हुए दिखाई देते है.
‘बजरडीहा’ योजनाओं और उससे उपजी यातनाओं की समाहारी कविता है. एक ऐसे समय में जब हमारी जरूरतों पर इच्छाओं का बोलबाला हो रहा. दुनिया के 90 फीसदी संपत्ति चंद मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में है. समूचे विश्व की मीडिया राष्ट्र निर्माताओं के निर्माण में लगी है. ऐसे दौर में जहां भूख से मौत, प्रसव से मौत, क़र्ज से मौत, बाढ़ से मौत, ऑक्सीजन की कमी से मौत, बीफ से मौत की ख़बरों से हमारी नींद नहीं उड़ती. ऐसे में कविता लकवाग्रस्त लोकतंत्र की मदारीनुमा होती भाषा पर करारा प्रहार करती है.
‘बजरडीहा’ बनारस के किसी मोहल्ले का नाम भर ही है. ये मोहल्ले आपको मुज़फ्फरनगर में भी मिल जाएंगे और प्रधानमंत्रीजी के गुजरात मॉडल के खेड़ा में भी. ये मुहल्ले भूख और बेगारी से उपजी जनसंख्या की वह भारी फसल है जिसको काट कर अपने वोट की दलाने भरने का काम राजनीतिक पार्टियां करती रही है.
“दुनिया के ट्रेडमिल पर हांफने के साथ जहां रात की रोटी / अगली सुबह के लिए पानी में गर्क कर ली जाती है / जहां करघों के खटर-पटर में दुधमुंहे बच्चे की आवाज़ अनंतकाल के लिए दबा दी जाती है.”
ये पंक्तिया सीरिया और फिलिस्तीन, बर्मा और बांग्लादेश, केन्या और अफ्रीका के देशो में भी उतनी ही सही है जितनी बनारस में. अंतर बस इतना है कि कहीं दुधमुंहे की आवाज़ बमवर्षक विमानों की शोर में थम जा रही तो कहीं जीवन जीने की हाड़ तोड़ जद्दोजहद में हथकरघे की आवाज़ के बीच.
दुनिया के ट्रेडमिल के जरिए जिस बाजार की भयावहता की नब्ज़ टटोली गई है वह अरमान को संपूर्ण चेतना का कवि बनाती है. दुनिया एक तरफ भोजन की अधिकता और मोटापे से परेशान है. वहीं दुनिया के एक हिस्से को जरूरी भोजन भी मयस्सर नहीं हो पा रहा है.
कविता राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विमर्श के साथ- साथ आर्थिक विमर्श पर भी महत्वपूर्ण तरीके से पक्ष रखती है. ऐसे समय में जब त्रासदी, दुर्घटनाएं बिज़नेस के लिए इनपुट का काम कर रही. महत्वपूर्ण उद्योग घरानों के द्वारा प्रायोजित राजनैतिक पार्टियां विपक्ष को समाप्त करने में लगी हैं. सत्ता में आने के बाद राजनैतिक पार्टियों की नियति एक सामान होती जा रही. लोकतंत्र के 8वें दशक में पहुंचने के साथ देश जिस तरीके से बाज़ारू शक्तियों के चंगुल में फंसता जा रहा है उस पर कवि अपनी आवाज़ मुहावरेदार भाषा के माध्यम से मुखर करता है.
बाजार के वैश्वीकरण का ही नतीजा है कि सूरत और देश के अन्य हिस्सों में बनारसी साड़ियों की नकल तैयार होने लगी है. जिस करघे से लाख दो लाख की साड़ियां 15-20 दिनों में तैयार होती थी मशीन क्रांति के पॉवरलूम कल्चर के लिए घण्टे भर का परिणाम साबित हुई. इन पॉवरलूमों की स्थापना के लिए केंद्रीय सहायता और ऋण भी उपलब्ध होने के कारण करघे पर काम करने वाले बुनकर टूटते ही जा रहे है.
बाजार की इसी पूंजी ने भारतीय राजनीति में भी एक शून्यता को स्थापित कर रखा है. केंद्र और राज्य की राजनैतिक विभेदता का समाप्त होना इन्हीं पूंजीवादी शक्तियों का परिणाम है. बाजार की ये शक्तियां इतनी व्यापक हैं की इनका मुकाबला न तो क्षेत्रीय दल कर पा रहे हैं ना ही कुटीर उद्योग. ऐसे में भारतीय लोकतंत्र का चेहरा काफी धुंधला नज़र आ रहा है.
“करघे का चलना सांसों का चलना है,
करघे का बंद होना, किसी कुपोषित बच्चे का अनाथ होना है”
बजरडीहा के करघों का बंद होना नोटबंदी में एटीएम के बंद होने से बिल्कुल भिन्न है. क़र्ज से लदे कमज़ोर कंधे कब करघे पर दम तोड़ दें, फंदे से झूल जाए, माहुर खा ले. ये ठीक उसी तरीके की अनिश्चितता है जैसे किसानों के लिए मानसून. करघे को जिस प्रतीक के साथ कविता में व्यक्त किया गया है वह रोचक और मननीय है.
विश्वगुरु की खुमारी, कालेधन की वापसी, ‘हिन्दू ह्रदय सम्राट और राष्ट्र’, बनाने की मस्ती में विभोर समूचे राष्ट्र से गरीबी अंततः प्रश्न करती है. भूखमरी सवाल उठाती है. बेरोजगारी चीख़ पड़ती है- “ऐ मेरे मदमस्त बनारस, बता ना बजरडीहा में तेरा पता क्या है?”
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