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हरियाणा में हिपेटाइटिस सी का इलाज ‘एम्स’ की तुलना में 70 फीसदी सस्ता

हरियाणा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में कामयाबी के झंडे गाड़ रहा है लेकिन इसकी जानकारी कम ही लोगों है. यहां हिपेटाइटिस सी का इलाज इतने कम खर्चे पर लोगों को उपलब्ध हो रहा है जिस पर यकीन करना किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है. हिपेटाइटिस सी के 12 हफ्ते के इलाज का खर्च अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान में लगभग 60,000 रुपये है आता है. इससे जुड़े टेस्ट अलग से कराने होते हैं, जिन पर 5,000 से लेकर 15 हजार रुपये तक का खर्च आता है. हरियाणा में यही इलाज सिर्फ 16,650 रुपये में होता है वो भी इस बीमारी से जुड़े सभी प्रकार के टेस्ट सहित.

आखिर ये मुमकिन कैसे हुआ? इसका जवाब है एक डाक्टर की नीयत, उसकी ईमानदारी, उसका सेवाभाव, सरकार का सहयोग और बाज़ारी कंपटीशन.

ग्राउंड ज़ीरो- पीजीआईएमएस, रोहतक

 चार अक्तूबर 2016 को दोपहर बाद रोहतक के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट आफ मेडिकल साईंस का वार्ड नम्बर 33 साफ सुथरा और सूना-सूना था. यहां दीवारों पर हिपेटाइटिस सी की बीमारी से लड़ने की प्रेरणा देते पोस्टर लगे हुए थे जिसे काला पीलिया भी कहा जाता है.

लेकिन हमेशा से ये वार्ड ऐसा नहीं था, 2010 तक पीजीआईएमएस, रोहतक में हिपेटाइटिस सी के इलाज की नाममात्र भी सुविधा नहीं थी. इसके मरीजों को दिल्ली भेजा जाता था. हिपैटोलाजी के प्रमुख डाक्टर प्रवीन मल्होत्रा के मुताबिक आज लगभग छह साल के बाद इस संस्थान में रोज़ाना तकरीबन 20.25 मरीज़ों का इलाज होता है. डाक्टर मल्होत्रा उनमें से हैं जिन्होंने 2010 में इस विभाग की शुरूआत की थी.

डा. मल्होत्रा ने न्यूजलॉण्ड्री को बताया, “हिपेटाइटिस सी ऐसी बीमारी है जो ज्यादातर मध्यम वर्ग और निचले तबके में होती है. जबसे यहां इसका इलाज सस्ता हुआ है, मरीज़ों की तादात बढ़ गई है.” इस बीमारी से लड़ने के लिए डाक्टर मल्हेत्रा ने सभी पहलुओं पर गौर किया, इस बीमारी के इलाज को सस्ता बनाना उन्हीं की कोशिशों से मिली एक बड़ी कामयाबी है.

पहले इस बीमारी के लाज के लिए पेजीलेटेड इंटरफेरॉन नाम की दवाई का इस्तेमाल होता था, और इंटरफेरॉन के हर इंजेक्शन की कीमत 16,500 रुपये थी. इलाज के दौरान 24 हफ्तों तक रोजाना ये इंजेक्शन लेना होता है, जिसकी कुल लागत है 2 लाख रुपये. इसके अलावा इंटरफेरॉन के कई साइड ईफेक्ट भी थे जैसे कि तेज़ बुखार, कमजोरी, नपुंसकता, शुगर, बालों का झड़ना और थायरॉईड जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं.

डाक्टर मल्होत्रा बताते हैं, “चीजें तब बदली जब भारत में जेनरिक दवा सोफोस्बवीर आई. इसने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया.”

इसमें हरियाणा सरकार का भी काफी सहयोग रहा है. 7,500 को छोटे से सैंपल में हमने पाया कि करीब दस फीसदी लोग हिपेटाइटिस सी के मरीज़ों हैं. (जबकि पूरे भारत में इसके लगभग एक करोड़ से सवा करोड़ के आसपास मरीज़ है). सरकार ने इसको ध्यान में रखकर “जीवन रेखा” योजना शुरू की.

हरियाणा में स्वास्थ्य सेवाओं की उपनिदेशिका डाक्टर अपराजिता ने न्यूजलॉण्ड्री को बताया ‘जीवनरेखा’ स्कीम के तहत “अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ‘गरीबी रेखा’ से नीचे वाले तबकों के लिए हिपेटाइटिस सी के इलाज की सुविधा बिल्कुल मुफ्त है और जनरल लोगों को उन दवाओं पर सब्सिडी भी दी जाती है जिन्हें हम कम्पनियों से खरीदते हैं. इस स्कीम को लागू करने के लिए पीजीआईएमएस, रोहतक ने एक नोडल सेन्टर भी बनाया है.

इस स्कीम से काफी लोगों को फायदा हुआ है. राजेश कुमार, जो कि पेशे से दर्ज़ी हैं, बताते हैं, “मेरी पत्नी के इलाज के लिए जिन्दल अस्पताल ने छह लाख रूपये की मांग की थी.” राजेश इस खर्च को नहीं उठा सकते थे, पीजीआईएमएस में उसकी पत्नी का इलाज ‘जीवन रेखा’ स्कीम के तहत मुफ्त में ही हो गया.

लेकिन सोफोस्बविर को भी यहां तक पहुंचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा.

 कई सालों की रिसर्च के बाद, 2013 में सोफोस्बविर नाम की ओरल दवा ईजाद की गई जिसकी सफलता की दर 99.5 फीसदी थी.

एक अमेरिकी दवा कंपनी जीलीड साइंसेज़ ने सोफोस्बविर को पेटेन्ट कराने का आवेदन किया. इसे सोफो के नाम से भी जाना जाता है जो कि सोनाल्डी ब्रांड नाम से बेची जाती है. मार्च 2015 में, इस कम्पनी ने फैसला किया कि वो एक भारतीय दवा कंपनी हिटेरो के साथ जेनरिक लाईसेंसिंग समझौता करेगी. लेकिन जीलीड जितना पैसा दवाओं पर वसूल रही थी उसे लेकर उसे कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा. अमेरिका में जीलीड एक गोली का 1,000 अमेरिकी डालर वसूल रही थी और इस बीमारी के इलाज के लिए 12 हफ्तों के कोर्स की कीमत थी 84,000 अमेरिकी डालर.

20 दिसम्बर 2015 को ये कीमती दवा अपने दो अवतारों सोफ लेडी और सोफ डेक्ला नाम से रिलीज हुई. ये दोनों दवाईयां सोफोस्बविर (400 एमजी) के साथ लेडीपास्विर (90 एमजी) और डेक्लात्सविर (60 एमजी) का मिश्रण थी. ये भारत में 25,000 के मूल्य पर जारी हुई और गुड़गांव में इनकी कीमत थी 21,000 रूपये. लेकिन ये कीमत, उस कीमत के आसपास भी नहीं थी जितनी कि रोहतक में थी, जो सिर्फ 14,000 रुपये है.

लेकिन अब उन्हीं दवाओं की कीमत और बी कम हो गई है, लगभग 6,200 रुपये. डा. मल्होत्रा इसका राज बताते हैं, “हमने साफ कर दिया था कि जिस कम्पनी दवाओं के रेट कम होंगे हम टेंडर उसी कम्पनी को देंगें.”

हिटेरो दवा कंपनी के मेडिकल प्रतिनिधि ने नाम ना बताने की शर्त पर न्यूजलॉण्ड्री को बताया, “एक इलाके में कीमतों को लेकर हर दवा कंपनी की अपनी नीति एक राज रहती है.“ वह आगे बताते हैं, “हरियाणा में सरकारी नीतियों और पीजीआईएमएस, रोहतक के डाक्टर प्रवीण मल्होत्रा के प्रयासों से कीमतें काफी कम रखी गई है.”

वास्तव में हरियाणा ने इस मामले में उसी मशहूर सिद्धांत पर काम किया जिसे ‘मुक्त बाज़ार स्पर्धा‘ कहा जाता है. इस स्पर्धा का सीधा फायदा उपभोक्ता को होता है.

सरकार दवा कंपनियों से टेंडर के जरिए फार्मा कम्पनियों से थोक के दाम पर दवा खरीदती है. डाक्टर मल्होत्रा की रणनीति दवाओं को सस्ता बनाए रखने के लिए एक कंपनी को दूसरी कंपनी के खिलाफ बनाए रखने की है. इसका नतीजा ये हुआ है कि जो दवा 14,000 रुपये में मिल रही थी, वही पहले 12,000 की हुई फिर 8,000 की हुई और आखिरकार उसकी कीमत 6,200 हो गई जोकि इसकी शुरुआती कीमत से आधी है.

लेकिन इसका असर सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहा है, ‘जीवन रेखा’ स्कीम के तहत इसकी डाईग्नोस्टिक जांच मरीज़ों के लिए एकदम मुफ्त हो गई है. मज़े की बात ये है कि इस बिमारी की हर जांच का खर्च दवा कंपनियां ही उठाती हैं. डाक्टर अपराजिता के मुताबिक आगे चलकर ये कीमतें और भी कम हो सकती हैं.

हर लिहाज से भारत में इस बिमारी का इलाज पूरी दुनिया में सबसे सस्ता है.

एक ज़िन्दगी की कीमत?

डॉक्टर विदाउट फ्रंटियर की दक्षिण एशिया एक्सेस कैंपेन प्रमुख लीना मेंघाने बताती हैं, “देश में कहीं भी ‘जन स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली” के तहत हिपेटाइटिस सी का इलाज नहीं हो रहा,” तो इस दिशा में पीजीआईएमएस, रोहतक ने जो कुछ किया वह एक क्रांतिकारी कदम है.”

उनके मुताबिक हरियाणा ने हिपेटाइटिस सी जैसी बीमारी के बारे में किया है वो लोगों के हक में है.

‘मणिपुर में गंभीर बीमारियों पर खर्च किये जाने वाला फंड का इस्तेमाल कुछेक लोगों ने इलाज के लिए किया. बिल्कुल इसी तरह दूसरी जगहों पर स्वास्थ्य विभागों ने लोगों से अपील की और कुछ मरीज़ों ने इसका फायदा भी उठाया. मेंघाने जोर देकर बताती हैं कि पीजीआईएमएस, रोहतक जैसे संस्थानों की कामयाबी इसी बात में है कि वह लोगों को सस्ता और किफायती इलाज उपलब्ध करवा पाये.

इलाज सस्ता करवाने के अलावा इस बीमारी के बारे में जागरूकता और जानकारी फैलाने पर भी काफी मेहनत की गई.

“लोग इस बीमारी के बारे में आसानी से किसी को बताते नहीं हैं, क्योंकि ये काफी कुछ एड्स से मिलती जुलती है, मल्होत्रा आगे बताते हैं, “हमने इस बीमारी का मुकाबला करने के लिए चीयरलीडर्स की टीम बनाईं है जैसा कि क्रिकेट मैचों में होती हैं. “जिन मरीजों का इलाज हो जाता है, आगे वे इस बीमारी के बारे में जागरूकता फैलाते हैं.

वास्तव में राजेश कुमार जैसे लोग ही हमारे असली चीयरलीडर्स हैं, “जबसे मेरी बीवी का इलाज हुआ है मैं इस बीमारी के बारे में लोगों में जागरूकता फैला रहा हूं. मैं लोगों को इलाज के लिए पीजीआईएमएस, ले जाता हूं. राजेश कुमार की मदद से उसके इलाके के लगभग 200 लोगों का इलाज हुआ है, और वो भी बिल्कुल मुफ्त.

एक ऐसे क्षेत्र से, जहां पहले हिपेटाइटिस सी का इलाज ही नहीं होता था, एक मॉडल के तौर पर उभरने की कहानी बेहद यादगार है. यह कोशिश अभी भी जारी है.

“दो महीने के अन्दर हम “जीवन रेखा” स्कीम को बाकी अस्पतालों में भी लागू कर देगें,” इस लेख की ये आखिरी लाइनें अपराजिता की बात पर खत्म होती हैं.