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पूर्व से पश्चिम तक कट्टरपंथ की विषबेल
नस्लवाद से खुले तौर पर मेरा पहला सामना मुझे आज भी साफ-साफ याद है, इसका सामना मैंने गुस्से और डर के साथ किया था. यह सामना किसी न्यूज़ पोर्टल के ओपिनियन सेक्शन से गुजरते हुए अपरोक्ष दर्शक या पाठक के रूप में नहीं बल्कि मैं खुद नफरत का शिकार था.
कई महीनों से मैं और मेरी फिल्म क्रू तीन हजार मील लम्बे अमेरिका-मेक्सिको बॉर्डर के इलाके में सफर कर रही थी. अमेरिका के आव्रजन संकट पर आधारित यह फीचर डाक्यूमेंट्री मेरे फिल्म निर्देशन की शुरुआत थी. आखिरकार इसे थियेट्रिकल (नाटकीय) फीचर में संपादित किया गया जिसे कई फिल्म महोत्सवों और तकरीबन 20 देशों में प्रदर्शित किया गया.
मेरे साक्षात्कार का एक विषय आव्रजन विरोधी एक कार्यकर्ता था जो कि अमेरिका के रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण दक्षिणी सीमा पर तैनात था. वह ‘मिनटमेन’ नाम के एक समूह से जुड़ा था. यह समूह परदेसियों से घृणा और कुंठा से ग्रसित भाड़े पर लाये गए बहुरंगी लोगों का एक जत्था था. इन्हें अमेरिका भर में फैले दक्षिणपंथी संगठनों से आर्थिक मदद मिलती थी. उनका लक्ष्य देश में आ रहे सांवले मेक्सिकन अप्रवासियों से मुकाबला करना था. ये अप्रवासी तथाकथित ‘अमेरिका के लोगों का रोजगार छीनने’ और ‘अमेरिकी संस्कृति’ के पतन के लिए जिम्मेदार थे.
मुझे अपनी ओर आता देख, उसने ट्रक के पीछे से 12 बोर की बन्दूक निकाली और हवा में कई राउंड फायरिंग कर डाली. मुंह से तम्बाकू थूकते हुए उसने चिल्लाकर कहा, “मैं उल्टे खोपड़ी वालों को इंटरव्यू नहीं देता”. फिर वो अपने ट्रक में चढ़ा और धुंए के बादल उड़ाता हुआ चला गया. साफ़ तौर पर मैं अपने रंग रूप में वैसा ही था जिनसे वो अपने देश को बचाना चाहता है. बाद में, मिनटमेन संगठन की महिला सदस्य शावना फोर्ड को एक मेक्सिकन अप्रवासी और उसके दो छोटे बच्चों को अमेरिकी बॉर्डर पार करने की कोशिश में जान से मारने का दोषी पाया गया. पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई मामले प्रकाश में आये हैं.
अप्रवासी शरणार्थियों के हालात और दुनियाभर में आव्रजन के कारणों से जुड़ी बहस (निगरानी, नस्लवाद और दक्षिणपंथियों की नफरत आधारित राजनीति) के भौगोलिक चित्रण के लिए हमारी फिल्म की काफी सराहना हुई.
सांस्कृतिक शुद्धता और ‘परंपराओं’ को बनाए रखने की हिंसक लालसा ने जातीय राष्ट्रवादियों और परंपरावादियों को नई ऊर्जा और नया जरिया दे दिया है. यह दुनियाभर में हो रहा है और भारत कोई अपवाद नहीं है.
ट्रम्प और कट्टर दक्षिणपंथियों के बढ़ते कद ने अमेरिका के कुलीनों को सशक्त किया है. इसका नतीजा रहा है कि अप्रवासियों और दूसरे रंग के लोगों के खिलाफ हिंसा बढ़ गई है. भारतीय तकनीशियन श्रीनिवास कुचीभोटला को कंसास के बार में गोली मारने की घटना भी इसी नफरत का हिस्सा थी. हत्यारों ने मारने से पहले उनसे कहा था, ‘अपने देश वापस चले जाओ.’
हाल के कुछ वर्षों में कई ऐसे मामले भी आये जिसमें निहत्थे काले नौजवानों को गोरे पुलिस वालों द्वारा मार दिया गया. जिसके बाद अमेरिका के हर हिस्से में भीषण विरोध प्रदर्शन और दंगे हुए. ज्यादातर आरोपी छूट गए. जिससे साफ तौर पर सांस्थानिक नस्लवाद का संकेत मिलता है. यह राजनीति के विनाश का कारण भी बनता है.
जिस भरोसे के साथ हत्याएं हुई थी और न्याय तंत्र को जिस तरह से तोड़ा मरोड़ा गया वह बिल्कुल वैसा ही है जैसे आजकल भारत में गौरक्षा के नाम पर हो रही राजनीतिक है.
मुसलमानों को उनके नाम और धर्म के कारण निशाना बनाया जा रहा है जो हिंदू मध्यवर्ग की उग्रता का कारण भी है. नफरत के इस चिंगारी को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हवा दी थी. जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे जब गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों में हजारों मुसलमानों की नृशंस हत्या कर दी गई. इस हिंसा में शासन-प्रशासन की मिलीभगत की अटकलें लगाई जाती रहीं.
नृशंस हत्या, भीड़ द्वारा निहत्थे मासूमों की हत्या को कभी-कभी बीजेपी सरकार सही भी ठहराती है. मोहम्मद अखलाक की हिंसक भीड़ द्वारा फ्रिज में बीफ रखने के शक की गई हत्या के बाद महेश शर्मा, जो केंद्र सरकार में मंत्री हैं, ने अखलाक के हत्यारों का पक्ष लिया था. उनका मानना था कि गौहत्या के जुर्म में अख़लाक के परिवार को सजा मिलनी चाहिए थी. शर्मा ने सारे हत्यारों को माफ यह कह कर किया कि यह सिर्फ एक दुर्घटना थी और शुक्र मनाना चाहिए कि भीड़ ने सिर्फ अखलाक को मारा उसके परिवार की महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न नहीं किया.
राजीव मल्होत्रा, रिचर्ड स्पेंसर, स्टीव बानॉन, निगेल फारगे और गीर्ट विल्डर्स जैसे कट्टरपंथियों का एनआरआई स्वरुप हैं. वो ‘शुद्धतावादी’ एकरंगी संस्कृति के पैरोकार हैं. इसमें जातीय और अल्पसंख्यकों, बुद्धिजीवियों और सेकुलरों को किनारे ढकेलने की कोशिश हैं.
हिंदूवादी कुलीन विमर्श से सहमत नहीं होने वाले बुद्धिजीवियों और अकादमिकों को डराने और धमकाने का मल्होत्रा का इतिहास रहा है. इसमें वो इस्लामी धर्मगुरुओं और गोरे कुलीनों के सामान है जो अल्पसंख्यकों और उदारवादियों के शुद्धिकरण की हिमायत करते हैं.
जाने-माने अमेरिकी अकादमिक प्रोफेसर अनंतानंद रामबचन, मल्होत्रा के पहले आसान शिकार बने. उन्हें इस हद तक आतंकित किया गया कि अपनी सुरक्षा के लिए उन्हें पुलिस की मदद लेनी पड़ी. डॉ. रामबचन के शब्दों में, “मल्होत्रा द्वारा पोषित आतंक और हिंसा इस हद तक पहुंच गई कि कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार एजेंसियों को मेरी सुरक्षा में लगना पड़ा. चालीस वर्षों से हिन्दू मंदिरों पर सार्वजनिक रूप से बोलते हुए यह मेरे ऊपर पहला हमला था.”
“मैं डर के कारण चुप नहीं रहूंगा…मैं हिन्दू कट्टरपंथियों के पंच मल्होत्रा को अपने अधिकार नहीं छीनने दूंगा,” वे आगे कहते हैं.
हजारों धमकी भरे ईमेल मिलने के बाद अमेरिकी अकादमिक पॉल कोर्टराईट को एफबीआई बुलानी पड़ी थी. मल्होत्रा ने कोर्टराईट पर कठोर हमले किये थे. जांच के दौरान कोर्टराईट और उनके परिवार को सुरक्षा देनी पड़ी थी.
मल्होत्रा के ऊपर संस्कृत की आधी-अधूरी जानकारी, कही-सुनी बातों के आधार पर बहस करने, दूसरे बुद्धिजीवियों के काम की साहित्यिक चोरी और साहित्यों को हिन्दू राष्ट्र के विमर्श में शामिल करने के आरोप लग चुके हैं.
कभी भारत बहुलता, विविधता, समावेशी, शांतिप्रिय सभ्यता और सह-अस्तित्व का उदहारण था. आज यह विषैले राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक अंध-भक्ति के खतरे में हैं. यही दुनियाभर के कट्टरपंथियों के तुष्टिकरण का हथियार भी है. भारत के विचार और हिन्दू धर्म को- इस्लाम और इसाई धर्म से झुंझुलाए हिन्दू कट्टरपंथियों से कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचाने की क्षमता इनमें है.
खुले तौर पर सामूहिक हत्या की बात करने वाले योगी आदित्यनाथ के हिन्दू युवा वाहिनी जैसे कट्टरपंथी संगठन मुख्यधारा का हिस्सा और नये भारत का चेहरा बन चुके हैं. यह ‘हिन्दू राष्ट्र’ जैसे धर्म आधारित तंत्र की स्थापना के लिए सक्रिय हैं. इन्हें पूर्व और पश्चिम दोनों तरफ के कट्टरपंथियों का समर्थन प्राप्त है.
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