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इलेक्टेड या सिलेक्टेड: कांग्रेसी कमज़ोरी के शिकार मोदी
दो घटनाएं संक्षेप में.
12 अगस्त को गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 24 घंटे के भीतर 60 बच्चों की मौत हो गई. वजह सामने आई कि अस्पताल में ऑक्सिजन की सप्लाई रुक गई थी. ऑक्सिजन सप्लाई रुकने की बात हफ्तों से चर्चा में थी पर अस्पताल प्रशासन ने आपराधिक लापरवाही बरतते हुए इसे नजरअंदाज किया. संयोग की बात यह की ‘गोरखपुर के सांसद और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री’ योगी आदित्यनाथ महज दो दिन पहले 9 अगस्त को इसी अस्पताल के दौरे पर थे. उन्होंने अस्पताल का मुआयना करने के बाद बकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और सबकुछ सही होने का दावा किया. कहने की जरूरत नहीं कि सबकुछ कितना ठीकठाक था. पर इतने के बावजूद भी मुख्यमंत्री ने बच्चों की मौत की खबर आते ही बिना समय गंवाए यह घोषणा कर दी कि बच्चों की मौत की वजह ऑक्सिजन नहीं, कुछ और है. जाहिर है मुख्यमंत्री के इस गैरजरूरी बयान से सिर्फ और सिर्फ उन अधिकारियों को फायदा होना था जिनकी लापरवाही और लालच से ये मौतें हुई थी. वही अधिकारी जिन्होंने महज तीन दिन पहले उन्हें सबकुछ सही होने का झूठ बोला था.
यह घटना योगी आदित्यनाथ की एक मुख्यमंत्री के रूप में अथॉरिटी और उनकी प्रशासनिक क्षमता पर कुछ बेहद गहरे और जरूरी सवाल खड़ा करती है. जिन अधिकारियों ने मुख्यमंत्री को इस पूरी घटना से अंधेरे में रखा उनके बचाव में मुख्यमंत्री को बयान देने की मजबूरी क्या थी.
दूसरी घटना हाल ही में हरियाणा के पंचकूला में देखने को मिली. बलात्कार के आरोपी डेरा सच्चा सौदा के मुखिया बाबा राम रहीम सिंह को अदालत ने दोषी करार दिया और पूरे प्रदेश में डेरा समर्थकों ने हिंसक उत्पात शुरू कर दिया. पहले से पता होने के बावजूद हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार हिंसा को रोकने में असफल सिद्ध हुई और नतीजे में 36 लोगों की जान अनायास ही चली गई. खट्टर की प्रशासनिक क्षमता और समझबूझ पर इससे पहले भी दो मौकों पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है. पिछले साल जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान पूरे हरियाणा में व्यापक हिंसा हुई थी. इसी तरह संत रामपाल को कोर्ट ने जब हिरासत में लेने का आदेश दिया तब भी तीन दिनों तक हिसार में हजारों की भीड़ ने कानून को अपंग बनाकर रख दिया था.
इन घटनाओं के सामाजिक और आपराधिक पक्ष के अलावा इसका बेहद महत्वपूर्ण पहलु इसकी राजनीति है. राजनैतिक नेतृत्व का इकबाल, उसकी धमक, उसकी ताकत उसके अनुभव और प्रशासनिक क्षमता से तय होती है. ऊपर आए दोनों उदाहरण इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं. योगी हों या खट्टर दोनों को उनकी प्रशासनिक क्षमता या नैसर्गिक नेतृत्व के गुणों के कारण राज्यों की सत्ता नहीं मिली है. इस सूची में सिर्फ यही दो नाम नहीं है. झारखंड में रघुबर दास, महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस, गुजरात में विजय रूपानी या आनंदी बेन पटेल, उत्तराखंड में त्रिवेंद्र रावत, असम में सर्वानंद सोनोवाल आदि वो तमाम नाम हैं जिन्हें भाजपा ने अपनी सफलता के स्वर्णिम दौर में राज्यों के मुख्यमंत्री के रूप में “नियुक्त” किया है. जी हां, ये नियुक्ति है जो नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बादशाहत में दिल्ली से तय होती है. पार्टी ने न तो इन नामों के भरोसे विधानसभा का चुनाव लड़ा था न ही इन लोगों को चुनाव से पहले खुद के मुख्यमंत्री हो जाने का भान था. जाहिर है इन सबका अनुभव पार्टी संगठन में काम करने का चाहे जो हो लेकिन प्रशासनिक अनुभव बेहद सीमित है.
झारखंड से जुड़ी एक घटना इस परिदृश्य को और उधेड़ती है. यहां रघुबर दास मुख्यमंत्री हैं. इसी साल 16 जुलाई को नरेंद्र मोदी ने बयान दिया कि गौरक्षा के नाम पर हिंसा फैला रहे लोगों को बख्शा नहीं जाएगा. हिंसा करने वालों के खिलाफ राज्य कड़ी कार्रवाई करें. इस बयान के ठीक दो दिन बाद झारखंड में गौरक्षकों ने दो मुस्लिम पशु व्यापारियों को बुरी तरह से पीटा. यानी प्रशासनिक अक्षमता का स्तर यह है कि प्रधानमंत्री के बयान की अहमियत भी इन्हें समझ नहीं आती.
सूबों में कमजोर और छोटे कद के नेता नरेंद्र मोदी की अपनी सत्ता के लिए मुफीद माने जा सकते हैं. सूबों में किसी ताकतवर नेतृत्व के अभाव में पार्टी और सरकार पर उनके नियंत्रण को चुनौती देने वाला कोई नहीं होगा. एक लिहाज से मोदी सदियों से चली आ रही राजशाही की प्राचीन परंपरा को ही आगे बढ़ा रहे हैं. मध्यकाल से दिल्ली में बैठकर सुबाई सूबेदारों को नियंत्रित करने की पंरपरा हिंदुस्तान में रही है. बीच-बीच में कभी कोई सूबा बागी हो तो दिल्ली से कुमुक भेजकर उन्हें शांत कर दिया जाता था. लेकिन इक्कीसवीं सदी में भी मध्यकालीन परंपराओं से सत्ता की नकेल कसने की कोशिश कितनी सफल या असफल हो सकती है इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है.
दक्षिण एशिया की राजनीति में सबसे ताकतवर राजनीतिक घराने के रूप में गांधी परिवार की धमक, पूरी पार्टी को अपने पीछे गोलबंद कर पाने में सफलता और छह दशक तक भारत की सत्ता का केंद्र बने रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है. लेकिन आज वह पार्टी और परिवार अस्तित्व के संकट से बुरी तरह जूझ रहा है.
इतने लंबे समय तक एक परिवार केंद्रित पार्टी के प्रासंगिक बने रहने की एक बड़ी वजह एक समय में स्थानीय स्तर पर ताकतवर, जमीनी नेताओं की मौजूदगी थी. आजादी के बाद से ही अपने-अपने इलाकों में बेहद ताकतवर और राजनीतिक लिहाज से बेहद चतुर नेताओं की लंबी-चौड़ी खेप कांग्रेस में मौजूद रही जिसने मिलकर केंद्र की सत्ता और देश की राजनीति में कांग्रेस को ताकतवर बनाए रखा. तमिलनाडु में जीके मूपनार, महाराष्ट्र में वाईबी चह्वाण, शरद पवार, उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा, बिहार में एलएन मिश्रा, उड़ीसा में जेबी पटनायक, गुजरात में चिमनभाई पटेल, पंजाब में बेअंत सिंह समेत तमाम ऐसे नेता रहे जो 90 के दशक तक खुद कांग्रेस पार्टी पर जितना निर्भर थे, पार्टी भी उन पर कमोबेश उतना ही निर्भर थी.
90 के दशक के बाद राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के छीजते प्रभाव की तमाम वजहों में एक वजह उसका जमीनी, ताकतवार नेताओं की जगह दिल्ली से सीधे सूबों की राजधानियों में उतारे गए वे तमाम नेता भे थे जो कथित तौर पर दिल्ली दरबार (गांधी परिवार) के अंग थे और परिवार की कृपास्वरूप राज्यों की राजधानियों में भेजे गए. उनकी प्रशासनिक और राजनीतिक कला से ज्यादा अहम तत्व था उनका परिवार के प्रति स्वामिभक्ति. जमीन से चार इंच ऊपर हवा में चलने वाले इन नेताओं का नतीजा यह रहा कि आज कांग्रेस दिल्ली के साथ ही लगभग सभी सूबों से भी साफ हो चुकी है.
नरेंद्र मोदी की खुद की छवि एक काबिल और कुशल प्रशासक की रही है. इसके बावजूद राज्यों में नौसिखिया लोगों पर दांव लगाने की परंपरा को उनकी अपनी असुरक्षा से जोड़कर देखा जा सकता है. खुद नरेंद्र मोदी दिल्ली की सत्ता पर अपनी पार्टी के भीतर एक लंबी लड़ाई लड़कर पहुंचे हैं. इस राह में उन्होंने अपने राजनीतिक गुरू लालकृष्ण आडवाणी से सफलतापूर्वक लोहा लिया है.
आज हमें मोदी भले ही कांग्रेसी गलती दोहराते दिख रहे हों लेकिन गांधीनगर से दिल्ली की यात्रा में उन्होंने जो किया है वही इतिहास कोई उनका शागिर्द न दोहरा दे यह मोदी की बड़ी चिंता है. लिहाजा अगस्त के महीने में मौतें होती रहती हैं.
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