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अरुंधति रॉय के साथ बातचीत: मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपिनेस

बीस साल किसी भी चीज़ के लिए एक लंबा अरसा होता है. ख़ासकर एक ऐसे लेखक के लिए जिसकी किताब ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ बुकर पुरस्कार जीत चुकी है. इसकी 42 भाषाओं में आठ लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं. जून के पहले हफ्ते में पूरी दुनिया में प्रकाशित होने वाली अरुंधति रॉय की नई किताब, ‘द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ में ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ के जैसा कुछ भी नहीं है. लेकिन यह अपने आप में एक बेहतरीन कृति है. बेहद करीने से चुने गए शब्दों और यादगार रूपकों के तानेबाने से यह साबित होता है कि रॉय की लेखनी और ज्यादा निखरी और समृद्ध हुई है. यह किताब एक धरोहर है, पुराने शब्दों में कहें तो बेहद रूमानी.

यह किताब उत्कृष्ट या कहें अजीबो गरीब चरित्रों का खूबसूरत तालमेल है. भारत के रोजमर्रा के जीवन में सामान्य हो चुकी घटनाएं मसलन छूत-अछूत, सांप्रदायिक दंगे, जातीय भेदभाव, भीड़ की हिंसा, कश्मीरी आतंकवाद, धार्मिक जटिलताएं और प्रेम जैसी चीजें एक सर्कस के घेरे में इकट्ठा हो गई हैं. इन तमाम विलक्षण चरित्रों को स्नेह भरे रिश्ते की एक अंतरंग डोर आपस में बांधे रखती है. ये पात्र वहां किसी मजबूरीवश नहीं हैं बल्कि इन्हें केंद्रीय पात्र अंजुम ने, जो कि एक किन्नर है, अपने मीठे, चुलबुले लेकिन दिल को तोड़ने वाली फितरत से आपस में जोड़ रखा है. ये सब रॉय की कल्पना जन्नत गेस्ट हाउस में रहते हैं. किताब खत्म होते-होते पाठक का मन गीला हो जाता है.

सवाल: द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस, द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स से बहुत अलग है. द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स में आपकी केरल की बचपन की यादों और जीवन के पड़ावों की झलक मिलती है. इस किताब को पढ़कर लगता है कि आपने पिछले 20 साल किसी धुन में रमे रहकर बिताये हैं. ज़िन्दगी को जीते हुए किसी नई चीज की खोज करते हुए नए अनुभवों को इकट्ठा करते हुए. इस किताब का दायरा और इसकी गहराई हैरान करने वाली है. क्या यह किताब आपके जीवन का अनुभव है या फिर आपको किताब लिखने के लिए जिसकी जरूरत थी वह सब आपने खुद से रच लिया. या फिर, इन दोनों बातों में कोई अंतर नहीं है?

द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस  में मैंने उतना ही शोध किया है जितना कि द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स  में किया था. हालांकि मैं ढेर सारा शोध करके लिखे गए उपन्यासों के खिलाफ नहीं हूं लेकिन मेरे दोनों ही उपन्यास इस श्रेणी में नहीं आते. और हां… मैंने अनुभवों का सहारा भी नहीं लिया क्योंकि मुझे एक किताब लिखनी थी. फिक्शन हैरतअंगेज होता है. यह दिमाग में आता है और आपको अपने आगोश में ले लेता है. एक उपन्यास सिर्फ शोध, स्मृतियों या जीवन के अनुभवों के बल पर नहीं लिखा जा सकता. हम कभी-कभी एक अद्भुत चीज़ को भूल जाते हैं जिसे कल्पना कहा जाता है.

सवाल: ऐसा लगता है कि सत्ता के सामने सच बोलने का स्पेस भारत में बेहद सिमट गया है. गिने-चुने पत्रकार ही इस पारंपरा को निभा पा रहे हैं. जॉन एफ़ कैनेडी ने कहा था: “जब सत्ता भ्रष्ट होती है, तो कविता उसे शुद्ध करती है, कला उन बुनियादी मानवीय मूल्यों को स्थापित करती है जो हमारे फैसलों की कसौटी होती है. हालांकि, एक कलाकार जिसका वास्तविकता के प्रति अपना एक व्यक्तिगत नज़रिया होता है, वह हर मामले में दखलंदाज़ी करने वाले समाज और और परेशान करने वाले राज्य के खिलाफ एक हीरो बनकर सामने आता है. एक महान कलाकार इस मामले में एक सन्यासी की तरह होता है. अपनी धारणाओं को अमलीजामा पहनाते वक्त अक्सर वह अपने समय की प्रचलित धारणाओं के विपरीत काम करता है. यह आसान काम नहीं है.

कभी कभार अगर कोई बड़ा कलाकार अपने समाज की आलोचना करता है तो इसकी एक वजह यह होती है कि उसकी संवेदनाएं और न्याय के प्रति उसकी सोच कहीं न कहीं प्रभावित हो रही होती है. उसे इस बात का अहसास होता है कि उसका देश अपनी क्षमताओं को छू नहीं पा रहा.
फैज़ अहमद फैज़ की शायरी ‘हम देखेंगे’ गाने के लिए पाकिस्तान के तानाशाह ज़िया-उल-हक़ ने इकबाल बानो पर प्रतिबंध लगा दिया था. दर्शक पागल हो गये, इसे राजद्रोह माना गया. बेशक, यह राजद्रोह ही था और आज भी है. यह सत्ता की सच्चाई बताता है. इकबाल बानो हर साल भारत आती थीं और यहां उस कविता को गाती थीं.

सवाल- यह मीर तकी मीर की शायरी जैसा है जिसे आपने अपनी किताब में भी शामिल किया है.
जिस सर को गुरूर आज है यां ताज-वारी का
कल उस पर यहीं शोर है फ़िर नौबगारी का .

तो मेरा सवाल आपसे यह है कि आप सत्ता में बैठे लोगों तक अपनी कविता पहुंचाएंगी कैसे? यानी अपनी आपत्ति? आप उन को यह अहसास कैसे करवाएंगी जिन्होंने अपने इर्द-गिर्द सत्ता का क़िला खड़ा कर दिया है, जिसे कुछ सुनाई ही नहीं देता? हम सब जानते हैं, संसद भवन से कुछ सौ कदमों की दूरी पर जन्तर-मंतर पर लगातार विरोध करने वालों की भीड़ मौजूद रहती है लेकिन सत्ता में बैठे लोग कभी इस पर ध्यान तक नहीं देते. उनकी दुःखद मौजूदगी का कोई हल नहीं निकलता है. उनकी आवाज़ ऊपर तक कैसे पहुंच सकती है?

‘ए लवर्स क्वैरल विथ द वर्ल्ड’ बहुत सुंदर लिखा है. और सच भी है. लेकिन मैं अपने अकेलेपन या अलगाव के विचार को ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहती क्योंकि सत्ता में बैठे लोगों का अक्सर यही मानना होता है. उन्हें हमेशा लगता है कि उनके खिलाफ जो भी लोग खड़े हैं उनके पास कोई समर्थन नहीं है. यह सच नहीं है. तमाम लोग ऐसे हैं जो हिम्मत करके खड़े हो रहे हैं, जबकि स्थितियां उनके अनुकूल नहीं हैं. लेकिन हां… लेखन एकांत का काम है, ख़ासकर आज के हिंसक, घृणित माहौल में. और कुछ ऐसा लिखना जिसे लिखने में कई साल लग जाते हैं, कुछ ऐसा लिखना जो काफी लंबा और पेचीदा है. ट्वीट्स और फर्जी  समाचारों के इस युग में, उपन्यास को कुछ लोग खेल के रूप में लेते हैं– उसमें से एक वाक्य निकालकर उसे ट्वीट करते हैं – और उस एक वाक्य के आधार पर ही लेखक के सिर की मांग करने लगते हैं. यह बहुत डरावना है. ऐसे में अपने मन का लिख पाने का एकमात्र तरीका यही है कि मैं कुछ भी लिखूं और फिर उसे सुरक्षित अपने दराज में रख दूं और भूल जाऊं. बेशक, ऐसा होता नहीं क्योंकि एक बार पूरा हो जाने के बाद लेखक का अहम इसकी अनुमति नहीं देता.

और आपके प्रश्न का अंतिम भाग, हम सत्ता में बैठे लोगों तक कविता कैसे पहुंचा सकते हैं? मेरा यकीन करिये, वे इसके हर एक शब्द को सुन रहे हैं. हर एक शब्द को. और उनके द्वारा लेखकों-कवियों को नीचा दिखाने, उनकी हंसी उड़ाने, उन्हें बदनाम करने या फिर उन्हें जान से मार देने के पीछे का कारण ही यह है कि वे उसकी एक-एक बात को सुनते हैं. और इससे उन्हें डर लगता है, और वे इसे अपने शोर से दबा देना चाहते हैं. जैसा कि जेम्स बाल्डविन ने एक बार कहा था, “वो मेरा विश्वास इसलिए नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें पता होगा कि मैंने जो कहा वह सच था.” लेकिन मेरे लिए यह कहना हास्यास्पद होगा कि जो लोग सत्ता में बैठे हैं सिर्फ वही मेरे लेखन के खिलाफ हैं. जो लोग उदारवादी हैं और यहां तक कि वामपंथी भी हैं, वे भी इसके उतने ही बड़े आलोचक हैं. यह एक हद तक ठीक है, क्योंकि कोई भी पूरा नहीं होता.

सवाल- आपने लिखा है: “दक्षिणपंथी पुरुषों ने अपनी तलवारें म्यान में रख लीं, त्रिशूलों को जमीन पर रख दिया, और रोजमर्रा के जीवन में रम गए मानो कुछ हुआ ही न हो. वे इत्मिनान से फ़ोन के जवाब दे रहे है, आदेशों का पालन कर रहे हैं, अपनी पत्नियों को पीट रहे  है, और अपनी अगली खूनी यात्रा पर निकलने के इंतजार में है.” हनाह अरेंद ने द बनालिटी ऑफ़ ईविल  में लिखा है, “ईश्मान के साथ मुसीबत यह थी कि ज्यादातर लोग उसी के जैसे विचारों वाले थे, उनमें से अधिकतर न तो मनोरोगी थे न ही नकारात्मक सोच वाले थे. वे हद से ज्यादा सामान्य दिखते थे और आज भी ऐसे ही दिखते हैं. हमारे कानूनी संस्थानों और न्याय के नैतिक मानदंडों के सामने यह दिखने वाली सामान्यता असल में अब तक हुए तमाम अत्याचारों को एक साथ मिला देने से भी कहीं ज्यादा डरावनी थी.” 
हिंसा और मार-काट वे लोग नहीं करते जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शैतान या क्रूर नज़र आते है. बल्कि ऐसे लोग बेहद सामन्य दिखते हैं. हमने देखा भी है. हमें पता है कि पड़ोस के वे बच्चे जो हर शाम एक कश्मीरी पंडित के घर में खेलने के लिए आते थे, वही उन्हें एक दिन मारने के लिए पहुंच गए. क्या आप इस पागलपन को कोई नाम दे सकते है जो क्षण भर के लिए सामान्य इंसान को उन्मत हिंसक शैतान में बदल देती है? क्या इसे समझना मुमकिन है?

‘सामूहिक दंड’ का विचार उस वक्त नरसंहार के तांडव में बदल गया जब सदियों से एक दूसरे के पड़ोस में रहने वाले हिन्दू और मुसलमानों ने 1947 में बंटवारे के वक्त एक दूसरे की हत्या शुरू कर दी. तब से, (ज़ाहिर है, नागालैंड, मणिपुर, कश्मीर, हैदराबाद, पश्चिम बंगाल में राज्य की हिंसा में हज़ारों लोगों की हत्या को अलग छोड़ दिया जाय) आज हम भीड़तंत्र के मुहाने पर आ खड़े हुए हैं– ख़ासकर  बहुसंख्यक आबादी द्वारा अल्पसंख्यकों से बदला लेने के लिए. चाहे वह कश्मीर में कई सौ कश्मीरी पंडितों को सशस्त्र आतंकवादियों द्वारा 90 के दशक में जान से मारने की घटना हो, या 1984 में दिल्ली में भीड़ द्वारा हज़ारों सिखों की सामूहिक हत्या, या भारत के हज़ारों मुसलमानों और दलितों से हो रही हिंसा की घटनाएं – यह सब इतना इतना ज्यादा हो गया है कि अब इसे ‘सामान्य जीवन’ के रूप में स्वीकार किया जा रहा है. लेकिन यह सब पागलपन किसी ना किसी तरह सत्ता में मौजूद लोगों की सहमति से हो रहा है. अन्यथा यह कतई संभव नहीं था.

हम सभी जानते हैं कि सामूहिक हत्याएं और चुनाव अभियान अक्सर एक दूसरे से काफी करीब से जुड़े होते हैं. आम लोगों का समूह यूं ही अचानक शैतानों की भीड़ में नहीं बदल जाता. वे शैतान का रूप तभी लेते हैं जब उन्हें पता होता है कि वे इससे बचकर निकल जाएंगे. ऐसा करवाने के पीछे बहुत काम किया जाता है और यह काम दशकों से होता आ रहा है. यह कोई नया नहीं है लेकिन आज यह बहुत तेज़ी से होने लगा है. हमारे कई 24 घंटे चलने वाले टीवी चैनल, कितने ही अखबार, स्कूली पाठ्य पुस्तकें, शिक्षण संस्थानों, क़ानून की अदालतों में बेहद सावधानी से नियुक्त किये गये व्यक्ति बड़े पैमाने पर भेदभाव और उन्माद को बढ़ावा देने में व्यस्त हैं.

पर इसमें से कुछ भी स्वस्फूर्त नहीं है. यह सब कुछ योजना के तहत है . यहां तक की झूठ और अफवाहें जो व्हाट्स एप पर फैलाई जा रही हैं. वे सब भी योजना के तहत ही हैं. और यह ज़हर जिसे हमारे खून में मिला दिया गया है इसे अब निकाला नहीं जा सकता .

इसी से जुड़ा एक सवाल, आपने लिखा है, “पागल हत्यारों ने अपने ज़हरीले दांत छुपा लिए और सामान्य जिंदगी में लौट गए – क्लर्क, टेलर, प्लम्बर, बढ़ई, दुकानदार – जीवन पहले की तरह चलने लगा. दुनिया में जो सामान्यता हम देखते हैं वह आधे उबले हुए अंडे की तरह है: इसकी सफेद चिकनी सतह अपने अंदर तपती हुई हिंसा की जर्दी छिपाए बैठी है. यह  हिंसा तभी तक काबू में रहती है जब तक हम अंडे के पीले और सफ़ेद भाग की तरह एक खोल में रहते हैं, और जब अंडा टूटता है तो चीज़ें बेकाबू हो जाती हैं. इससे ऐसे नियम परिभाषित होते  हैं, कि कैसे एक जटिल और विविधतापूर्ण समाज के रूप में हम एक साथ रह रहे हैं. एक दूसरे को सहते रहें, और समय समय पर एक दूसरे की हत्या करते रहें. जब तक जर्दी सेंटर में हैं, जब तक जर्दी बाहर नहीं निकल रही है, हम ठीक रहेंगे. संकट के क्षणों में यह पलट कर दूर तक देखने में मदद करता है.” आज नाज़ी जर्मनी और भारत के बीच यह एक बड़ा अंतर है. जर्मनी के लिए यह वक्त एक छोटा हिस्सा भर था, जबकि हम एक निरंतर चलने वाली अनिश्चितता में फंस गए हैं. हम इस असुरक्षा में जी रहे हैं कि न जाने कब यह फिर फूट पड़ेगा. लेकिन यह सच है कि यह निश्चित रूप से फूटेगा.

हमें यह साफ कर देना चाहिए कि ऊपर लिखी लाइनें किताब में एक पात्र के द्वारा कही गयीं हैं– बिप्लब दास गुप्ता उर्फ़ गारसन होबार्ट, जो इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक उच्च वर्ग का, सुलझा हुआ और बेहद खुले विचारों का अधिकारी है. वह इस समय, 1984 के सिख हत्याकांड की बात कर रहा है – और सत्ता में बैठे कई सद्भावना रखने वाले लोगों की तरह – इस तरह की हिंसा और अन्य घटनाओं को पतन के रूप में देखता है. इनसे निपटना, इसे बेअसर करना और प्रतिबंधित करना आवश्यक है. उसके अनुसार यह एक ‘लम्बा’ प्रबंधन कार्यक्रम है. लेकिन उनका क़ानून-व्यवस्था और ‘संकट प्रबंधन’ वाला नजरिया यह देखने में नाकामयाब है कि यह सब कुकर्म किस तरह से चलता रहता है और फिर हालात काबू से बाहर हो जाते है– बीमारियों की तरह हमारे पेट में बस जाता है. यह दिन-ब-दिन सामान्य रूप से सामाजिक ढांचे में निचले पायदान पर पाए जाने वालों से होने वाली साधारण हिंसा को भी “अनदेखा” करता है. हम, लोगों के रूप में, एक समाज के रूप में, स्वस्थ नहीं हैं. बिलकुल भी स्वस्थ नहीं हैं.

सवाल- मैं देख रही हूं कि टिलो का पात्र आपसे काफी मिलता-जुलता है. आपने कहा कि आप एक गणराज्य हैं. आपने लिखा है, “अपने ही देश में, उसके जीने के तरीके से इसका लेना देना था. एक ऐसा देश जहां कोई वीज़ा पासपोर्ट जारी नहीं किया जाता, जिसका कोई दूतावास नहीं था.” आपने पूरी आज़ादी के साथ अपना जीवन संवार लिया है. आपके चुनावों से दिखता है कि जैसे आप किसी को नहीं बल्कि बस स्वयं को जवाब देती हैं. यह सबसे बड़ी आज़ादी है. लेकिन, फिर भी आपको बाकी सभी लोगों की तरह वीज़ा के लिए आवेदन करना होगा. आप अमेरिका के आव्रजन पर यह नहीं दिखा सकती हैं कि आप एक गणराज्य हैं. क्या आपको कभी लगा है कि आज़ादी के इस प्रयोग में आपको उन लोगों से भी निपटना होगा जो आपकी स्वंत्रता को नहीं समझते हैं और आपके चुनावों से भ्रमित हैं? क्या इस आज़ादी के साथ रहने में संघर्ष है या अपने आसपास के लोगों के साथ आप इसे आसानी से सम्भाल पाती हैं?

टीलो एक काल्पनिक पात्र है, बाकियों की तरह. पाठक हो सकता है कि किसी भी पात्र को X या Y या Z के रूप में ‘पहचाने’. मेरे लिए वह काल्पनिक है. वह द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स की अम्मु और वेलुथा की बेटी भी हो सकती थी. वह एस्था (काल्पनिक) और राहेल (काल्पनिक) की छोटी बहन है. मैं उसे जानती हूं  पर मैं वो नहीं हूं. तो, क्या मैं अपने और अपनी स्वतंत्रता के प्रयोग और टिलो के ‘बिना दूतावास के देश’ के प्रश्नों को अलग कर सकती हूं?

अपने बारे में बोलूं, तो ज़ाहिर है मैं बिना वीज़ा के कहीं भी यात्रा करने की उम्मीद नहीं कर सकती. मैं वीज़ा के लिए लाइन में खड़ी होती हूं. पर हां मैं यह मानती हूं कि वीज़ा के लिए आवेदन करना एक अपमान है जिसे सहन किया जा सकता है पर स्वीकार नहीं. मैं अपने उस विचार को कभी भी नहीं छोड़ सकती कि सभी मनुष्यों और सभी जीवित प्राणियों को दुनिया भर में कहीं भी जाने के लिए आज़ादी होनी चाहिए. मुझे द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस की उन पतंगों से जलन है, जो हवा में कहीं भी उड़ती हैं, नियंत्रण रेखा के पार चली जाती हैं, जैसे कि नीचे खड़े मनुष्यों का मजाक उड़ा रही हों.

सवाल- मुझे याद है कि आपकी पहली पुस्तक आने से पहले आपके प्रशंसकों की संख्या काफ़ी अच्छी खासी थी. जब इससे मिलने वाला पैसा एक सार्वजनिक खबर बन गई, तो यह एक बड़ा मुद्दा बन गया. वह इतनी अमीर कैसे हो गयी? आप संपत्ति के मामले में आश्चर्यचकित और असुविधाजनक यात्री की तरह भी दिखती थीं. अभी आपके पास बेशक बहुत पैसा है. पैसों के आने से निश्चित रूप से एक निश्चित आज़ादी मिलती है. गरीब और राजनीतिक रूप से पीड़ित लोगों के लिए आपकी अत्यधिक संवेदनशीलता आपके पैसों से विरोधाभास पैदा करती है, आप उससे कैसे निपटती हैं?

मेरे पास कभी समर्पित प्रशंसकों की भीड़ नहीं थी. दरअसल, पैसों को लेकर विरोध और इसका दुष्प्रचार किताब के प्रकाशित होने से पहले ही शुरू हो गया था. यह भी सही है कि मेरे पास पैसा और प्रसिद्धि की बरसात हो गई जिसकी मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी. मुझे यह समझने में बहुत समय लगा कि इसके साथ कैसे निपटें. पर अब सब ठीक है. अभी इस सब से निपटने का एक व्यवस्थित तंत्र है. मैं उन लोगों और संगठनों के साथ अपने भाग्य को साझा करती हूं जिनके कामकाज का मैं सम्मान और प्रशंसा करती हूं, और यह कोई बड़ी बात नहीं है. यह केवल ऐसे लोगों के लिए थोड़ी सी मदद है जो कॉरपोरेट जगत से पैसा लेने और गैर-सरकारी संगठन बनने के इच्छुक नहीं हैं. ये लोग सामूहिकता में विश्वास करते हैं, दान में नहीं.

सवाल- आपने जैसा अपने मन में सोचा वैसा ही यथार्थ रूप में परिणित हो जाना क्या यह एक स्वाभाविक परिणाम है? ऐसा लगता है जैसे बुरे वक्त के लिए आपने कुछ भी बचाकर नहीं रखा है . क्या लोग जैसा माहोल उनके आसपास होता है, उसमें ढल जाते है? क्या एडवर्ड स्नोमैन भी वही बनेगा जिस माहौल से वह घिरा हुआ है? या फिर जुलियन असांज?

जुलियन असांज, एडवर्ड स्नोडेन की तुलना में मुश्किल हालत में है. वह लन्दन में इक्वेडोर दूतावास के एक छोटे से फ्लैट के अंदर रह रहा है, जिसमें सालों से उसके शरीर पर सूरज की किरणें तक नहीं पड़ीं. उसका परिवेश निश्चित रूप से उसे, उसके विचार को, उसकी सोच को और उसके निर्णय को प्रभावित करता है. स्नोडेन रूस में एक स्वतंत्र जीवन जी रहा है. उसका परिवार उससे मिलने आता है, और वह, अपने स्वयं के शब्दों में एक हाउसकैट है. व्हिसलब्लोअर बनने से पहले ही, कई युवा लोगों की तरह, वह भी इन्टरनेट की दुनिया में खोया रहता था.

सवाल- क्या ये कहना गलत होगा कि आप खुद एक लिहाज से जन्नत गेस्टहाउस में हैं? जहां आपके चुने हुए नायक का संग्रह मौजूद है?

मैं इसे तारीफ की तरह लूंगी.“उसने कहा, अंदर आ जाओ, मैं दूंगी तुम्हें इस तूफ़ान से बचाऊंगी”.

सवाल- सबसे यादगार छवि जहाज में जम गए एक कौवे की है. यह ऐसा रूपक है जिसकी कई व्याख्याएं की जा सकती हैं. क्या बेवकूफी से बचाव का कोई तरीका है?

हमें बस चलते रहना होगा. बेवकूफी की इस अँधेरी सुरंग से गुजरते हुए. कौन जाने समझदारी दूसरे छोर पर हमारा इंतज़ार कर रही हो. या एक हद तक संतुलित सोच. पर एक बात तय है, अब पीछे नहीं मुड़ा जा सकता, हमें चलते रहना होगा.

लेखिका से @madhutrehan पर संपर्क किया जा सकता है.