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भाई-भतीजावाद को शह देने वाला बॉलीवुड इस पर चर्चा से आंखें क्यों चुराता है
इस साल के शुरुआत में बॉलीवुड निर्देशक करण जौहर ने सार्वजानिक रूप से एक बयान दिया, “मैं कंगना की दुःख भरी कहानी सुन-सुन कर ऊब चूका हूं. वो हर बार बताती हैं कि कैसे वो इंडस्ट्री के बुरे लोगों द्वारा बार-बार प्रताड़ित हुई हैं, अगर यह इंडस्ट्री इतनी ही बुरी है तो वो इसे छोड़ क्यों नहीं देती.”
करण का ये बयान तब आया जब राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेत्री कंगना रनौत ने उन्हें उन्हीं के लोकप्रिय टॉक शो में उन्हें “भाई-भतीजावाद का झंडाबरदार” कहा था.
रनौत ने साहस दिखाते हुए भाई-भतीजावाद जैसे संवेदनशील मुद्दे पर अपनी बात रख कर मानो करण जौहर की दुखती रग को छू लिया, वो भी उस देश में जहां बिना प्रभावशाली पारिवारिक पृष्ठभूमि या संबंधों के सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल कर पाना भी मुश्किल है.
कंगना ने जवाब देते हुए कहा, “भारतीय फिल्म इंडस्ट्री कोई छोटा सा स्टूडियो नहीं है जो उनके पिताजी ने उन्हें 20 साल की उम्र में दे दिया था. वो इसका सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा हैं. और वो कोई नहीं होते मुझे बताने वाले कि मुझे ये इंडस्ट्री छोड़ देनी चाहिए. मिस्टर जौहर मैं कहीं नहीं जा रही हूं.”
“ये समझना जरूरी है कि हम लोगों से नहीं लड़ रहे हैं बल्कि हम एक मानसिकता से लड़ रहे हैं. मैं करण जौहर से लड़ाई नहीं लड़ रही हूं, मैं पुरुष अतिवाद से लड़ रही हूं.”
रनौत फिर भी नहीं रुकी. उन्होंने पितृसत्ता जैसे एक और बेहद संवेदनशील मुद्दे को उठाया, वो भी उस देश में जहां यौन हिंसा, घरेलू हिंसा और बलात्कार जैसी बातें रोज अख़बारों का शीर्षक बनती हैं. उन्होंने जाने अनजाने विवादों का पिटारा खोल दिया जिसका ढक्कन बहुत समय से बंद था.
इंडस्ट्री से बाहर के व्यक्ति (कंगना) द्वारा इतनी कड़वी बात कहे जाने पर असंतोष जताते हुए जौहर के पक्ष में वरुण धवन और सैफ अली खान जैसे स्टार किड्स ने न्यूयॉर्क में हुए आइफा समारोह में ‘नेपोटिस्म रॉक्स’ का आह्वान कर दिया. इसके बाद जैसी इन तीनों से उम्मीद थी, उन्होंने अपनी बेढब और नीरस फिल्मों, जैसे की रेस 2, हमशकल्स, कुछ कुछ होता है और इस तरह की तमाम भद्दी फिल्मों की तरह ही कंगना पर भद्दे कटाक्ष भी किये.
इस बात को और बिगाड़ते हुए खान ने एक बिलकुल बेस्वाद सा लेख लिखा, जिसमें उन्होंने बताया कि वो कहां से आये हैं जो कि वास्तविकता से बिलकुल उलट था. “मुझे लगता है कि भाई-भतीजावाद, अनुवांशिकी एवं प्रजनन विज्ञान, जिसका मतलब है परिवारवाद, के बारे में बात करना बिलकुल प्रासंगिक है. फिल्म इंडस्ट्री को ध्यान में रखते हुए प्रजनन विज्ञान का मतलब है धर्मेंद्र का बेटा होना या अमिताभ का बेटा होना या फिर शर्मीला टैगोर का बेटा होना.”
“तो हां ये हो सकता है कि मुझे फिल्म इंडस्ट्री में मेरी मां की वजह से मौका मिला लेकिन ये परिवारवाद नहीं है ये मेरे जीन्स में था. ये एक अनुवांशिक निवेश है जो एक निर्माता करता है.”
प्रजनन विज्ञान या नियंत्रित प्रजनन का इस्तेमाल एक बार अडोल्फ हिटलर और नाज़ी शासकों के वैज्ञानिकों ने भी जर्मनी में जातीय शुद्धता को बनाये रखने के लिए किया था. इसमें यहूदियों, जिप्सियों और बाकी अवांछनीय नस्लों को हटा दिया गया था.
खान भारत जैसे जाति प्रधान देश में ‘अनुवांशिक निवेश’ जैसे शब्दों के ऐतिहासिक एवं राजनीतिक अर्थ से अनजान हैं और ये उनकी अज्ञानता पर भारी उनके अभिमान को दिखाता है.
यह विवाद यहीं नहीं रुका. खान ने इसके बाद भी ऊटपटांग टिप्पणियां करते हुए अपने आपको शर्मिंदा किया. उनकी इस तरह की बयानबाजियों से किसी दूसरी जगह पर शायद उनका करियर ही खत्म हो जाता लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता है क्यूंकि यहां सुविधासंपन्न तबके को खास नज़र से देखा जाता है: “अगर आपको एक और उदाहरण चाहिए तो आप रेस में दौड़ने वाले घोड़े का उदाहरण लीजिये. एक डर्बी जीतने वाले घोड़े को लीजिए, उसका मिलन दूसरे सही घोड़े से करवाइये और देखिये कि हम एक राष्ट्रीय विजेता बना सकते हैं. इस हिसाब से ये सम्बन्ध है अनुवांशिकी और स्टार किड्स में.”
खान ने इसके बाद ये भी दावा किया कि कुलीनता का मतलब होता है, “सबसे सुयोग्य व्यक्ति का शासन और इंडस्ट्री में यही चलता है, इसको सबसे सुयोग्य व्यक्ति ही चलाते हैं.” ये फिर गलत है. कुलीनता समाज में उच्चतम वर्ग को सम्बोधित करती है, खासकर उन लोगों को जिन्हें कुछ किये बिना वंशानुगत सब कुछ मिल गया जो कि खान, जौहर और उनके जैसों के लिए बिलकुल सटीक बैठता है.
इसका जवाब देने में रनौत ने देर नहीं की: “मैं समझ नहीं पा रही हूं कि आप कलाकारों की तुलना रेस में दौड़ने वाले हाइब्रिड घोड़ों से कैसे कर सकते हैं… क्या आपको कलात्मकता, कड़ी मेहनत, अनुभव, एकाग्रता, उत्साह, उत्सुकता, अनुशासन और प्यार जीन से मिल सकता है? अगर आपकी बात सही होती तो मैं एक किसान होती.”
सोशल मीडिया और ब्लॉग्स पर होने वाला ये साधारण रियलिटी शो एक बड़ी शर्मिंदगी का प्रतीक है. विस्तृत रूप से फैला हुआ परिवारवाद और उत्तरदायित्व की कमी ने भारत में सभी क्षेत्रों में गुणवत्ता के मानक कम कर दिए हैं चाहे वो कला हो, राजनीति या व्यापार.
जिनके सम्बन्ध नहीं होते लेकिन उनके पास बेहतरीन विचार होते हैं वे कई सालों तक पहचान पाने के लिए भटकते रहते हैं और अक्सर निराशा की स्थिति में लड़खड़ा जाते हैं वहीं जिनके सम्बन्ध अच्छे होते हैं वे अपने नाम के दम पर ही बहुत कुछ हासिल कर लेते हैं.
लीक से हटकर फिल्मों को बहुत मुश्किल से निर्माताओं से फंडिंग मिलती हैं. फॉर्मूलाबद्ध इंडस्ट्री में बोल्ड और रियलिस्टिक होना एक किस्म की विकलांगता है. लिपस्टिक अंडर माय बुर्का जैसी फिल्म जिसमें छोटे शहरों में नारीवाद के खतरों के बारे में बताया गया है उसे पहलाज निहलानी बैन कर देते हैं या फिर बहुत सारे सीन हटाने के बाद रिलीज़ किया जाता है.
जब जौहर ने कहा कि उनका काम प्रतिभा का पालन पोषण नहीं बल्कि अपनी विरासत बढ़ाना है तब वो अपने जैसे लोगों की भावनाओं को बढ़ावा दे रहे थे जिनकी समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है, वे सिर्फ अपनी दुनिया में लीन हैं. जब तक ऐसी मानसिकता नहीं बदलती, तब तक न सिर्फ कला बल्कि जीवन के हर क्षेत्र का भविष्य भारत में धुंधला है.
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