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पार्ट-1: नेहरू युग में हिंदी सिनेमा का राजनीतिकरण

अनुराग कश्यप की क्लासिक फिल्म गैंग्स ऑफ़ वासेपुर (2012) के दूसरे भाग के लगभग आधे हिस्से में राजनेता रामधीर सिंह का किरदार अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के ऊपर अपनी सफलता का मंत्र बताते हुए कहता है, “काहें कि हम सनीमा नहीं देखते. हिंदुस्तान में जब तक सनीमा है, लोग चूतिया बनते रहेंगे.”

व्यावहारिक राजनीति की कठोर दुनिया से आने वाले एक व्यक्ति की हिंदी फिल्मों के भावुक, अस्वाभाविक स्वरूप को लेकर इस तरह की सोच को समझा जा सकता है. लेकिन, क्या ऐसा हिंदी सिनेमा के साथ हमारे समय की राजनीति के कारण हुआ है? बेशक नहीं. रामधीर सिंह सिनेमा प्रेमी नहीं है, लेकिन हिंदी सिनेमा देश भर के रामधीर सिंहों के सत्ता के खेल के पीछे-पीछे लगा रहता है.

ज्यादा विस्तार में न जाकर हम सिर्फ बॉलीवुड की कहानियों और चरित्रों पर ही नजर डालें तो इसमें कहानी का कहन और समकालीन टिप्पणियां अति नाटकीयता के बोझ से दबी होती है. आजादी के बाद 70 सालों के दौरान हिंदी सिनेमा का परदा देश में होने वाली तमाम राजनीतिक उथल-पुथल का गवाह बना है, कई बार चलते फिरते तो कई बार बेहद गहरे अर्थों में. कई बार इसने आधे-अधूरे मन से की गई कोशिश का आभास दिया तो कई बार बेहद तल्लीन सिनेमा का और कभी-कभी यह एक समर्पित टिप्पणीकार की भूमिका में नज़र आया.

हालांकि इस दौरान यह विभिन्न राजनीतिक विचारों के द्वारा आकार लेता रहा. सत्ता के आंतरिक रिश्तों के अलावा यह राज्य, समूहों और व्यक्तिगत संबंधों के जरिए आकार लेता रहा. पिछले सात दशकों के दौरान भारत की खामियों, शोरगुल और जीवंतता से भरी लोकतांत्रिक यात्रा में कई बार हिंदी सिनेमा ने तत्कालीन सत्ता की नीतिगत प्राथमिकताओं पर भी टिप्पणी की.

आज़ादी ऐसे समय में आई जब बॉम्बे (पुराना नाम) में हिंदी फिल्म उद्योग पहले ही देश की सिनेमाई अभिव्यक्ति के केंद्र के रूप में उभर चुका था. एक ऐसी भाषा के जरिए जो देश में अन्य भाषाओं की तुलना में अधिक व्यापक रूप से बोली और समझी जाती थी. हालांकि, इसका मतलब यह नहीं था कि राजनीतिक स्थितियां आसानी से हिंदी सिनेमा के साथ घुलमिल गईं.

हालांकि सिनेमा ने अपरोक्ष तरीके से ऐसा किया, सामाजिक और पारिवारिक कहानियों के बीच राजनीति को जहां-तहां शामिल कर दिया गया. कई बार तो रोमांटिक कहानियों में भी राजनीतिक पहलू को जोड़ा गया. ऐसी स्थिति में जब आपको सिनेमा में राजनीतिक पहलू खोजना होता है तब असली कठिनाई समझ आती है वह भी ऐसे देश में जिसे हाल ही में आजादी मिली है. 50 के दशक के सिनेमा पर नए-नवेले आजाद हुए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के आर्थिक परिवर्तन और आधुनिकीकरण के विचारों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता के उन्मत आशावाद की छाप साफ-साफ देखी जा सकती है.

यह नेहरु के विचार ही थे जिन्होंने एक युवा गणराज्य में राष्ट्र निर्माण के समाजवादी मॉडल के साथ प्रयोग को लेकर सबसे अधिक अपील की. सिनेमा और नेहरु नीति के इस के मेल ने अर्थशास्त्री लार्ड मेघनाद देसाई का ध्यान, अपनी किताब  नेहरूज़ हीरो: दिलिप कुमार इन लाइफ ऑफ इंडिया (रोली, 2004), खींचा. इस पर आगे विस्तार से आगे बात होगी.

इससे पहले नेहरू के विचारों को लेकर सीधा नजरिया यही था कि वह स्वतंत्रता संग्राम की वैचारिक विरासत का विस्तार भर है. यह इतना अतिआदर्शवादी हो गया था कि इसके सहारे कोई कसावट भरी राजनीतिक कहानी कहना मुश्किल था. उदाहरण के लिए फिल्म जागृति (1954) में मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाए गीत हम लाये हैं तूफानों से कश्ती निकाल के  में कैमरा ज़ूम होकर नेहरु की तस्वीर पर फोकस हो जाता है मानो यह देश के नाम उनका सिनेमाई संबोधन हो. गीत की पंक्तियां आगे कहती हैं, देखो बर्बाद न हो ये बगीचा. आगे कि लाइनें नेहरू की शांतिदूत वाली अंतरराष्ट्रीय छवि को स्थापित करने की कशिश लगती है, एटम बमों के जोर पर ऐंठी है ये दुनिया, बारूद के एक ढेर पर बैठी है ये दुनिया, रखना हर कदम देखभाल के.

यह ध्रुवीकृत दुनिया में निरस्त्रीकरण की नेहरु की नीति का एक संगीतमय बयान है, जिसमें भारत जैसा नया-नया आज़ाद हुआ देश शीत युद्ध की अनिश्चितताओं से जूझ रहा था. नेहरू की राजनेता वाली छवि और एक युवा राष्ट्र जिन मूल्यों अपेक्षा करता था उसका भरोसा नेहरू में देखना हो तो अब दिल्ली दूर नहीं (1957) देखी जा सकती है, जिसमें एक लड़का झूठे अपराध में फंसे अपने पिता के मामले को प्रधानमंत्री नेहरु के सामने पेश करने के लिए दिल्ली की यात्रा पर निकला है.

लेकिन, आज़ादी  के बाद के स्वाभाविक उत्साह के बीच ही जिस तरीके से नया गणतंत्र आकार ले रहा था उसकी संशयपूर्ण जांच पड़ताल भी हिंदी सिनेमा के परदे पर अभिव्यक्त होने लगा था. इटालियन नियो रियलिस्ट सिनेमा की तर्ज पर बनी बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953) ग्रामीण भारत की दुर्दशा, कृषि ऋण के कुचक्र और इस समस्या के प्रति सरकार की उदासीनता पर तीखी टिप्पणी थी. इसी तरह राज कपूर की श्री 420 (1955) के शहरी भारत की समाजवादी आलोचना  थी.

सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार की समस्या पर सबसे पहली टिप्पणी फिल्म फुटपाथ (1953) में देखी जा सकती है. इसमें दिलीप कुमार एक पत्रकार से व्यापारी बने शख्स का किरदार निभा रहे हैं, जो अवैध व्यापार के बारे में खुलासा करने के लिए वापस पत्रकारिता में लौटता है. यह फिल्म आज़ाद भारत में संपत्ति के असमान बंटवारे जैसा परेशान करने वाला सवाल पूछती है. यद्यपि यह फिल्म तलत महमूद के गीत शाम-ए-ग़म की क़सम, आज ग़मगीन हैं हम के लिए ज्यादा जानी जाती है. इस फिल्म ने इतिहासकार अविजीत घोष की किताब 40 रिटेक्स : बॉलीवुड क्लासिक्स यू मे हैव मिस्ड (2013) में अपनी जगह बनाई.

हालांकि, 1957 में, दूसरी पंचवर्षीय योजना (1955-61) के एक वर्ष बाद तेज़ी से औद्योगिकीकरण और सार्वजनिक क्षेत्र की अगुवाई वाले आधुनिकीकरण पर बल दिया गया, जिसे बीआर चोपड़ा की फिल्म नया दौर  में ग्रामीण भारत के प्रति इस तरह की नीतियों का समर्थन किया गया. यद्यपि इसने तांगेवाला शंकर (दिलीप कुमार) समेत कई पात्रों पर इसके बुरे प्रभावों को दिखाया था, लेकिन इसने मशीनों की शुरुआत और आधुनिक परिवहन जैसे ग्रामीण इलाकों के लिए बस जैसी आधुनिक सुविधओं का तिरस्कार भी नहीं किया.

मानव-मशीन संघर्ष और औद्योगिकीकरण के शुरुआती चरण में ग्रामीण-शहरी विभाजन के आसपास घूमती हुई कहानी के बावजूद फिल्म के अंतिम दृश्य में दिलीप कुमार मशीनीकरण के मानवीय स्वरूप की तरफदारी यह कहते हुए करता है कि इसमें ग्रामीण ज़रूरतों का ख्याल रखा जाना चाहिए. वह मानव और मशीन के बीच एक संतुलन का रास्ता अपनाने की वकालत करता है जो न केवल उसके गांव बल्कि पूरे देश की किस्मत को बदलने के लिए जरूरी है. यह सीधा और सरल नजरिया है लेकिन इसमें नेहरू की नीतियों के परिणाम को लेकर एक ईमानदार नजरिया भी है.

राष्ट्र-राज्य की आलोचना से दूर, फिल्म नया दौर ने हमारी नीतिगत प्राथमिकताओं के प्रति देशभक्ति की एक नई शब्दावली गढ़ी. यह नेहरू की सोवियत शैली वाली औद्योगीकरण के प्रति झुकाव की कोरी नकल नहीं थी. ऐसा करते हुए भी फिल्म की राष्ट्रवादी सोच पूरी तरह कायम रही. फिर भी यह फिल्म हमेशा आशा-रफ़ी के युगल गीत उड़े जब जब ज़ुल्फें तेरी  के लिए जानी गई. (महिला द्वारा एक आदमी के रूप के प्रति आसक्ति का हिंदी सिनेमा में यह पहली मिसाल है), साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि ये देश है वीर जवानों का  जैसा देशभक्ति का गीत भी इसमें था जो अपनी गर्मजोशी के चलते उत्तर भारत की शादियों में आमतौर पर प्रचलित है. समुदायिक भावना को बढ़ावा देने के लिए फिल्म में एक गीत शामिल किया गया- साथी हाथ बढ़ाना.

कुछ मायनों में, नया दौर केन्द्रीय योजना (आयोग) के साथ भारत के शुरुआती प्रयोगों का सिनेमाई चित्रण था और दिलीप कुमार उन बहसों की प्रतिध्वनि थे जो नेहरूवादी भारत में चल रहीं थी. लार्ड देसाई का मानना था, “1950 के दशक ने भारत को विश्व-मंच पर एक संदेहवादी, हारे हुए देश से एक आत्मविश्वास से भरे देश में बदलते, और एक बार फिर भारत-चीन युद्ध के समय पराजित होते हुए देखा, दिलीप कुमार ने परिवर्तन के इन पहलुओं को प्रतिबिम्बित किया. ‘फुटपाथ, नया दौर, गंगा जमुना और लीडर ने इस आन्दोलन को रौशनी दिखाई और फिर 1960 के दशक में शुरुआत हुई एक नई निराशा की. नया दौर हर लिहाज से एक उत्कृष्ट नेहरूवादी फिल्म है.”

1957 का साल स्वतंत्रता के बाद के हिंदुस्तान की देशभक्ति का एक वैकल्पिक स्वरूप लेकर आया. साहिर लुधियानवी का लिखा एक गीत जिसे उन्होंने गुरुदत्त की फिल्म प्यासा के लिए लिखा था. साहिर ने इस गीत में कुलीन देशभक्तों पर तंज किया है जिसे रफ़ी ने आवाज दी- ये कूचे ये नीलम घर दिलकशी के/ ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के/ कहां हैं मुहाफिज खुदी के/ जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं.

अगले साल, साहिर लुधियानवी अभिनेता राज कपूर की फिल्म फिर सुबह होगी (1958) में इकबाल के गीत सारे जहां से अच्छा पर आधारित एक व्यंग्य के साथ वापस लौटे. मुकेश द्वारा गाए इस गीत में आजादी के एक दशक बाद की देशभक्ति की खामियों पर टिप्पणी की गई. जैसा कि साहिर ने लिखा है- चीन-ओ-अरब हमारा/ हिन्दोस्तान हमारा/ रहने को घर नहीं है/ सारा जहां हमारा. समाजवादी राजनीतिक व्यवस्था का उपहास करते हुए गीत में आगे जोड़ा गया है– जितनी भी बिल्डिंगें थीं, सेठों ने बांट ली हैं, फुटपाथ बम्बई के हैं आशियां हमारा.

जमींदारों की सामंती जकड़न, साहूकार और ग्रामीण गरीबी जैसे ताने बाने से मदर इंडिया (1957) और गंगा जमुना (1961) जैसी फिल्में तैयार हुई थी. वहीं बूट पॉलिश (1954) जैसी फिल्मों और यहां तक कि आवारा (1951) ने शहरी भारत में जीवन को परिभाषित करने वाली व्यापक आर्थिक असमानताओं के विषय पर प्रकाश डाला था. हालांकि ये फिल्में किसी क्रुद्ध राजनीतिक बयान या मोहभंग के कगार तक नहीं गईं.

मुख्यधारा से अलग वैकल्पिक कथानकों के उभार के बावजूद आधुनिकीकरण का नेहरूवादी विचार युवा देश की आकांक्षाओं का मुख्य केंद्र बना रहा. रूढ़िवादी सामंतवाद के मुकाबले में एक आधुनिक देश और जीवंत अर्थव्यवस्था के निर्माण की मांग ने अभी तक फिल्म निर्माताओं और गीतकारों की कल्पना पर पकड़ बना रखी थी. जब भारत ने 1960 के दशक में प्रवेश किया, तब राम मुख़र्जी की फिल्म हम हिन्दुस्तानी (1960) ने तेज़ी से बदलती हुई दुनिया के साथ तालमेल रखने के लिए नेहरू के औद्योगीकरण और वैज्ञानिक दर्शन को जरूरी पाया.

प्रेम धवन द्वारा लिखा गया लोकप्रिय गीत, जिसे सुनील दत्त पर फिल्माया गया और मुकेश द्वारा गाया गया था, बांध, बिजली ग्रिड, भारी मशीनरी, सड़कों और आधुनिक परिवहन द्वारा चिन्हित देश के एक परिदृश्य का फिल्मी कोलाज है. गीत छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी आसानी से नेहरु-दर्शन का विषय गीत हो सकता है. यहां तक कि, गीत के दृश्य में देश के प्रधानमंत्री को एक सभा अटेंड करते हुए दिखाया गया है जो कांग्रेस के किसी अधिवेशन की तरह लगता है.

चार साल बाद, चीन के खिलाफ युद्ध में मिली हार (1962) के बाद देश के जख्मों पर चेतन आनंद की युद्ध आधारित क्लासिक फिल्म हकीक़त (1964) ने थोड़ा मल्हम लगाया. हालांकि यह एक विशुद्ध युद्ध की फिल्म थी. लेकिन इसका राजनीतिक संदेश इस तथ्य पर आधारित है कि इसे भारत सरकार की सहायता से बनाया गया था, और यह देश की ताकत और उसके नेतृत्व पर एक बार फिर से आत्मविश्वास को बहाल का एक प्रयास था.

अपने शानदार अभिनय और अमर संगीत के साथ फिल्म ने देश की भावना पर पकड़ बना ली. इसका सबसे लोकप्रिय गीत, कर चले हम फ़िदा  जिसे रफ़ी द्वारा गाया गया और कैफ़ी आज़मी द्वारा लिखा गया था, में नेहरु को सीमावर्ती इलाकों में सैनिकों पोस्टों का दौरा करते हुए दिखाया गया है. यह फिल्म लद्दाख क्षेत्र में चीनी सैनिकों के खिलाफ भारतीय सैनिकों के बहादुरीपूर्ण प्रतिरोध को चित्रित करती है. हालांकि इसमें अरुणाचल प्रदेश (उस समय पूर्वोत्तर फ्रंटियर एजेंसी का एक हिस्सा) में भारतीय सैनिकों की किस्मत के बारे में कुछ नहीं दिखाया गया है.

जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के दो महीने पहले, राजनीति और अपराध के गठजोड़ का विषय दिलीप कुमार की फिल्म लीडर (1964) में रिलीज हुई. शायद यह संकेत था जो आने वाले वर्षों में हिंदी सिनेमा में राजनीतिक फिल्म निर्माण पर कब्ज़ा करने वाला था. यह संकेत बिल्कुल ठीक था कि वह अभिनेता, जो लार्ड देसाई के शब्दों में ‘भारत के जीवन में नेहरू का नायक’ था, उसका नेहरु की मृत्यु से ठीक पहले सिल्वर स्क्रीन पर उभरते राजनीतिक परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करने का अंतिम अवसर था. हल्के  मनोरंजन वाली और गंभीर टिप्पणी के बोझ में ना दबने वाली फिल्म लीडर ने यह भी दिखाया कि कैसे मुख्य विषयों की हिंदी फिल्मों के सामान्य मिश्रण में राजनीतिक विषयों को उनकी जगह मिल सकती है.

कुछ मायनों में, नेहरु के दौर में हिंदी सिनेमा का राजनीति के साथ मुठभेड़ इस दौर का प्रतिबिंब था– आशावादी और रचनात्मक, लेकिन भविष्य की चुनौतियों और लोगों में घर करते जा रहे मोहभंग के प्रति जागरुक. एक जवान देश के लोगों के मनोरंजन के प्रमुख स्रोत के रूप में, हिंदी सिनेमा ने उस समय की कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक बहसों को जगह दी. ऐसा करते हुए इसने यह सुनिश्चित भी किया कि हमारे सियासी जीव मनोरंजक बने रहें, चाहे कहानी के लिहाज से हों या संगीत के लिहाज से.

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