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भारंगम 2020 में चयनित नाटकों पर क्यों हो रहा विवाद

भारत रंग महोत्सव 2020  अर्थात भारंगम 2020 में होने वाले चयनित नाटकों की सूची आ गई है. जब भी कोई सूची आती है तो उससे असन्तोष भी होता है कोई भी सूची सबको सन्तुष्ट नहीं कर सकती. लेकिन जब से सूची आई है तब से निरन्तर विवाद हो रहा है खासकर हिंदी रंगमंच में.

सवाल यह है कि भारंगम अब क्या इतने महत्त्व का आयोजन रह गया है? और हिंदी रंगमंच जहां रंगकर्म करने की स्थितियां दुरुस्त नहीं है, अभिनेताओं का लगातार पलायन हो रहा है वहां रंगकर्मियों का अभीष्ट भारंगम में भाग लेना क्यों है?

भारंगम निरन्तर अपनी ऊर्जा खो रहा है और इसका कारण है चयनित नाटक जिनका बहुलांश अक्सर मेरिट की वजह से नहीं गुणा, गणित और पैरवी से चयनित होता है. पहले जुगाड़ी नाटकों का अनुपात  कम रहता था.

भारंगम के प्रति दर्शकों की रुचि कम होने का कारण यही है. दर्शक आश्वस्त ही नहीं होते कि वो जिस नाटक पर पैसे खर्च करने जा रहे हैं वह इस लायक भी है.  भारंगम में चयनित नाटक ऐसे होने चाहिए जो आपको उच्च कोटि की रंगानुभूति दें, लेकिन अफसोस. इतनी भारी भरकम खर्चीली चयन प्रक्रिया के बावजूद चयन में गुणवत्ता नहीं है और आयोजक को इसकी चिंता भी नहीं है. वर्ष की चर्चित प्रस्तुतियां अब इस आयोजन का हिस्सा नहीं बनती.

इस बार के भारंगम की चयन प्रक्रिया का उदाहरण लीजिये. 63 लोग इसमें शामिल थे. 42 पहले चरण की स्क्रीनिंग करते हैं और 866  नाटकों में से 195 नाटक चुनते हैं. 21 दूसरे चरण की स्क्रीनिंग करते हैं और 56 नाटक चुनते हैं. पहले चरण की प्रक्रिया में लगा  7 दिन और 14 टीम थीं  और दूसरे चरण में लगा चार दिन और 7 टीम थीं. अब इतने नाटकों के वीडियो किस रफ्तार से देखे गए ये अनुमान लगाइए. नाटक की अवधि न्यूनतम एक घन्टा लगा लीजिये. तो क्या इस तरह से उपयुक्त चयन हो सकता है?

चयनित नाटकों की अंतिम सूची से तो कुछ चयनकर्ता भी हैरान हैं. जिसमे भाषाई प्रतिनिधित्व का अनुपात तो बिगड़ा हुआ है ही कुछ चयनकर्ताओं का दावा है कि खारिज किए गए नाटक भी अंतिम सूची में जगह पा गए (यह लेखक इस दावे की पुष्टि नहीं करता) ज्यूरी के कुछ सदस्यों का ही कहना है कि कुछ ऐसे नाटक  चुने गए हैं जिनका कोई स्तर ही नही है. कुछ नाटकों को उन्होंने सूची निर्माण में नीचे रखा था, लेकिन उन नाटकों को वरीयता क्रम में उपर रखे गए नाटकों की कीमत पर चुना गया.

भारंगम में चयन समिति को गोपनीय रखा जाता है ताकि प्रक्रिया बाहर से प्रभावित नहीं हो. लेकिन प्रक्रिया गोपनीय नहीं रहती, चयन समिति का नाम बाहर रंगकर्मियों को पता रहता है. कौन सी समिति में कौन सा नाटक जा रहा है ये पता रहता है. कौन से नाटक दूसरे राउंड में गए ये पता होता है. दूसरे राउंड में किस समिति को देखना है नाटक ये पता रहता है. आधिकारिक परिणाम से पहले परिणाम पता रहता है. तो गोपनीयता के नाम पर पूरी पारदर्शिता रहती है, लेकिन ये सबके लिए नहीं उनके लिये है जो राष्ट्रीय नाट्य विधालय ( एनएसडी ) तंत्र और जुगाड़ के अखिल भारतीय तंत्र में अपनी हिस्सेदारी रखते हैं और उसे मेंटेन करते हैं.

स्क्रीनिंग समिति को दो चरणों मे रख देने की वजह से जुगाड़ी रंगकर्मियों को अधिक मेहनत करनी पड़ती है अब उन्हें दोनों चरणों पर निगाह रखनी पड़ती है. मान लीजिए पहले स्तर पर उनकी पसंद का चयनकर्ता है तो नाटक दूसरे चरण में चला गया अब उन्हें दूसरे चरण में भी अपने उद्धारक को तलाशना पड़ता है.

चयन समिति के सदस्यों का भी एक लॉट है जिसे ताश की गड्डी की तरह हर साल एनएसडी फेंटता रहता है. इस समिति में ऐसे सदस्य होते हैं जो कहने को समीक्षक हैं लेकिन इसी का रोब दिखाकर अपने लिए सौदेबाजी करते हैं. चयन होते ही वो रंगकर्मियों को बताते हैं कि इस बार वो चयन समिति में है रंगकर्मी उनका ख्याल रखे और वो उनका ख्याल रखेंगे. रंगकर्मी जो अपने अभिनेता को पैसे नहीं देता इन समीक्षकों को अपना नाटक दिखाने के लिए अच्छी खासी रकम खर्चता है. एनएसडी परिक्रमा ही इन समीक्षकों का रंग दर्शन है. चयन समिति में कुछ ऐसे सदस्य भी होते हैं जिनका सामयिक रंगमंच से कोई जुड़ाव नहीं होता है.

हिंदी रंगमंच के लोगों को भारंगम के चयन से सबसे अधिक शिकायत रहती है कि उनके नाटक नहीं चुने गए, चयन समिति के सदस्य कहते हैं कि सबसे घटिया नाटक हिंदी में ही आते हैं और उनको झेलना पड़ता है. और हिंदी का रंगकर्मी पूरी बेशर्मी से हर तरह की सिफारिश करता है और नाटक नहीं चुने जाने पर रोता है और चुने जाने पर अपनी प्रतिभा का ढिंढोरा पीटता है. अक्सर वह अपने नाटकों के रिजेक्शन पर नहीं अपने जुगाड़ की विफलता से दुखी होता है क्योंकि इसी जुगाड़ पर उसके रंगमंच का कारोबार टिका होता है. रंगकर्मी समीक्षक, प्रभावशाली व्यक्ति, संस्थाओं के मुखिया आदि के दरबार में झुका रहता है, लेकिन बाहर चौड़ा रहता है. वह अच्छी रंगभाषा कैसे रचे इसकी चिंता नहीं करता, सत्ता के साथ अच्छा रिश्ता कैसे बने, मठाधीशों के साथ अच्छी सेल्फी कैसे आए, किन शब्दों में उनका बखान करे इसकी चिंता करता है.

बड़ी कमी आत्मावलोकन की है, हिंदी रंगमंच में हर प्रस्तुति कमाल होती है, समीक्षा बन्द है. समीक्षक केवल स्तुति करते हैं. अब रंगकर्मी अपनी इस ‘कालजयी प्रस्तुति’ को हर बड़े मंच पर देखना चाहता है क्यों ना देखे!वह भी देखता है कि उसकी प्रस्तुति से कमतर या उतनी ही खराब प्रस्तुति भारंगम में जगह पा गई तो उसमें या उसकी प्रस्तुति में ऐसी क्या खराबी है तो वह भी कोशिश करता है. दर्शक बनाने अपने परिवेश के रंगकर्म को सस्टेनेबल बनाने में उसकी रुचि कम ही है. रंगकर्मियों का लक्ष्य दर्शक नहीं है, या स्थानीय समुदाय में अपने लिए दर्शक निर्मित करना अपने रंगमंच के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना नहीं है बल्कि ऐसे महोत्सवों में भागीदारी को ही अपनी सार्थकता मानते हैं. इतने बड़े हिंदी प्रदेश में रंगमंच को आत्मनिर्भर कैसे बनाया जाए, अभिनेताओं का जीवन बेहतर कैसे हो, सरकारी अनुदानों पर निर्भरता कम हो आदि कम से कम हिंदी रंगमंच की चिंता में नहीं ही है.

एनएसडी एक अकादमिक संस्था है और साल भर वह तरह तरह के महोत्सव करता रहता है जिसका बोझ अकादमिक प्रदर्शन पर पड़ता है जो विद्यालय की छात्र प्रस्तुतियों या डिप्लोमा प्रस्तुतियों में दिखता है. भारंगम में इतने लोगो का स्वार्थ अब समाहित है कि इसे एनएसडी के आयोजक रहते दुरुस्त करना मुश्किल है. इसका हल है एक स्वतंत्र निदेशालय बना कर इसका आयोजन करना जैसे डायरेक्टोरेट ऑफ फ़िल्म फेस्टविल करता है, या एनएसडी ही अलग से एक फेस्टिवल सेल बनाये जो वर्ष भर इसी काम में रहे. एनएसडी के बारे में दिलचस्प स्थिति यह है कि रतन थियम के बाद अभी तक नियमित अध्यक्ष नहीं चुना गया है, और वामन केंद्रे के बाद निदेशक भी कार्यकारी ही हैं. फिर भी एनएसडी के छात्रों में या पूर्व छात्रों में इसकी कोई बेचैनी नहीं है. यहां तक कि अच्छे शिक्षकों के रिटायरमेंट के बाद एनएसडी नियमित संकाय सदस्यों की कमी से जूझ रहा है.

एनएसडी स्नातकों में व्याप्त एकाधिकार की भावना भी एक समस्या है. ऐसे किसी भी महोत्सव में जो एनएसडी आयोजित करता है वो अपना पहला अधिकार समझते हैं. वो चाहते हैं ज्यूरी से लेकर नाटकों तक में उनका वर्चस्व हो, और रहता भी है. एनएसडी कैम्पस के भरोसे जिनका रंगकर्म और जीवन टिका हुआ है वो समस्त प्रक्रिया को प्रभावित करना चाहते हैं और ऐसे में अपने उन्हीं साथियों यानी ऐसे एनएसडी स्नातकों को नुकसान पहुंचाते हैं जो बाहर की दुनिया संघर्ष करते हुए रंगमंच कर रहे हैं.

नाटक की कोई चयन प्रक्रिया वीडियो से सम्भव नहीं है. चयनकर्ताओं की संख्या और आवेदित नाटकों के वीडियो को न्याय करते हुए देखना असम्भव है. जितने संसाधन एनएसडी दिल्ली में चयनकर्ताओं को बुलाकर चयन करने में खर्च करती है (खर्च का अनुमान लगाइए. पहले चरण में 42 लोग रहते हैं 7 दिन. जिन्हें 4000 रुपये मानदेय प्रतिदिन मिलता है और 500 रुपये दैनिक भत्ता. 21 लोग 4 दिन रहते हैं उन्हें भी इतनी ही रकम मिलती है. इसमें अब आने जाने का किराया और होटल में रहने का खर्च जोड़ लीजिये.) उससे कम में ही एक समिति बन जाएगी जो अपने विवेक से फेस्टविल क्यूरेट करे और फेस्टिवल में बुरे नाटकों की जिम्मेदारी ले. समिति को अगले साल बदल दिया जाए.

इस बीच लगातार देखा गया है कि बेहतर रंग प्रतिभाएं इस महोत्सव से अपने को अलग कर रही हैं. अब अगर इसके स्तर को बरकरार नहीं रखा जाएगा तो यह कमतर प्रस्तुतियों का महोत्सव बन कर रह जाएगा. सुखद यह है कि महोत्सवों, पुरस्कार समितियों आदि के गुणा गणित से बाहर रह कर बहुत से रंगकर्मी केवल रंगकर्म कर रहे हैं और उनकी तलाश एक बेहतर रंगभाषा और अपने समय में रंगकर्म के माध्यम से हस्तक्षेप है. ऐसे रंगकर्मी ही हिंदी रंगमंच के इतिहास में दर्ज होंगे.