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अस्त हुई भारतीय रंगमंच के चतुर्भुज की आखिरी भुजा

गिरीश कर्नाड, नहीं डॉ. गिरीश कर्नाड… नाम जेहन में आते ही वो बेधने वाली तस्वीरें सामने आ जाती हैं जिसमें एक शख्स नाक में ड्रिप लगाए ‘नॉट इन माई नेम’ की तख्ती लिए हुआ खड़ा है, जो अपने समय में अपनी उपस्थिति को भौतिक रूप से भी दर्ज कराना चाहता है. जिसके सरोकार का दायरा केवल रचनाओं तक सीमित नहीं है. चूंकि हमारी स्मृतियों का दायरा सीमित है इसलिए हमें सहज याद नहीं रहता कि 81 की आयु में देश के बेहतरीन दिमागों की हत्या और देश में चल रहे उन्माद के विरोध में खड़े इस शख्स गिरीश कर्नाड ने जब अपना पहला नाटक ययाति (1961) लिखा था तब उनकी आयु मात्र 23 साल की थी और तुग़लक (1964) के प्रकाशन के साथ ही वो राष्ट्रीय रंगमंच के केंद्र में आ गए थे. प्रकाशन के साथ ही तुग़लक का कन्नड़, मराठी और हिंदी में मंचन हुआ. इब्राहिम अल्काजी ने 1967 में इसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिए प्रस्तुत किया.

सुरेश अवस्थी, पु.ल. देशपांडे और इब्राहिम अल्काज़ी के संपादन में ‘आज के रंग नाटक’ (1973) के नाम से चार नाटकों का प्रकाशन हुआ उसमें मोहन राकेश, विजय तेंदुलकर, बादल सरकार के साथ गिरीश कर्नाड को भी रखा गया. यह भारतीय नाटककारों का एक चतुर्भुज था, जिसकी आखिरी भुजा का आज देहवसान हो गया.

आजादी के बाद भारतीय रंगमंच में जिस राष्ट्रीय रंगमंच की खोज हो रही थी उसे इन नाटकों ने एक रास्ता सुझाया था. इसी तरह 70 के दशक में जब भारतीय रंगमंच को लगा कि पाश्चात्य रंगमंच से प्रभावित नाट्य युक्तियों में कुछ अधिक बंधन हैं तो खुलेपन और भारतीय रंग मुहावरे की तलाश नाटककारों को परंपराशील रंगमंच की युक्तियों तक ले गईं उस समय भी गिरीश कर्नाड ने हयवदन (1971) लिखकर रास्ता दिखाया, जिसमें कर्नाटक की शैली यक्षगान और भागवत मेला की युक्तियों का समावेश था, इसके बाद ‘थियेटर ऑफ रूट्स’ के नारे ने जोर पकड़ा.

नाटककार के रूप में गिरीश कर्नाड लगभग छ: दशकों तक सक्रिय रहे. बचपन में देखी गई यक्षगान की प्रस्तुतिओं, जिसमें महाभारत की कथा का मंचन होता है, का उन पर असर है. वो महाभारत की कथाओं पर आधारित नाटक ‘ययाति’, ‘अग्निवर्षा’ में भी दिखता है. इतिहास के माध्यम से भी वो वर्तमान को टटोलते हैं जिसमें एक तरफ ‘तुग़लक’ है जिसमें एक सुल्तान की अपनी महत्त्वाकांक्षा का द्वंद्व है और उसका असर उसकी रियाया पर होता है. दूसरी तरफ ‘रक्त कल्याण’ है जिसमें बासवन्ना के चरित्र के माध्यम से धर्म और धार्मिक समुदाय के भीतर चल रहे संघर्ष का विवरण है.

कर्नाड का अंतिम प्रकाशित नाटक ‘राक्षसा तंगाड़ी’ भी तालीकोटा के युद्ध पर आधारित है. इतिहास और मिथक के साथ वो समसामयिक जीवन को सीधे-सीधे भी अपना विषय बनाते हैं. ‘बेंडा कालू ऑन टोस्ट’ (जिसकी एक प्रस्तुति मैंने मोहित ताकलतर के निर्देशन में देखी थी मराठी में- ‘उने पूणे शहर एक’ नाम से). यह नाटक महानगर के रूप में पसरते शहरों की गाथा है जिसमें कई तरह की संस्कृतियां शहर के अलग-अलग छोरों पर रहती हैं. इनके आपसी मेल से शहर बनता है लेकिन ये एक दूसरे से अनजान बने रहते हैं. शहर के बदलने की राजनीति क्या है और उसके बदलाव से शहरवासियों पर क्या असर पड़ता है, कॉस्मोपोलिटन का दावा करने वाले शहरों की संकीर्णता कैसी है इसको सूक्ष्मता से नाटक में बुना गया है. स्त्री उनके नाट्य लेखन के केंद्र में रही है. चाहे उनके नाटकों की स्त्री किरदार ‘अग्नि और वर्षा’ के विशाखा जैसी हों या स्त्री किरदार को आधार बना कर लिखा गया नाटक ‘बिखरे बिंब’ जो एक औसत लेखिका के छल के आधार पर बड़ा लेखक बनने की महत्वाकांक्षा की कहानी है.

स्त्री की यौनिकता और देह पर उसके अधिकार पर उन्होंने ‘नागमंडल’ जैसा नाटक लिखा जो लोककथा पर आधारित था. अपने नाटकों में उन्होंने रंगभाषा को भी निरंतर अद्यतन बनाया है. ‘बिखरे बिंब’ की तो नाट्ययुक्ति में ही मल्टीमीडिया का प्रयोग है जिसमें नायिका का प्रतिबिंब टेलीविजन स्क्रीन पर सामने आता है. कर्नाड ने अपने नाटकों में ऐसे चरित्रों की रचना की है जो अपने भीतर के द्वंद्व और बाहर की दुनिया के असामंजस्य के कारण उपजे संघर्ष से जूझते रहते हैं. जाति, धर्म और संस्कृतियों के भीतर के वर्चस्व, शोषित तबके के शोषण का कारण और इन सबमें स्त्री के अपने प्रश्न उनके नाटकों में विद्यमान हैं.

1970 में ही गिरीश कर्नाड ने यूआर अनन्तमूर्ति के उपन्यास पर आधारित संस्कार फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई, फिल्म में प्राणेशाचार्य की भूमिका में वो बहुत दुबले पतले दिखते हैं. उन्होंने ‘वंशवृक्ष’ का निर्देशन किया और इसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी मिला. वे साथ ही साथ अभिनय भी करते रहे. अभिनेता के तौर पर एक तरफ ‘निशांत’ जैसी समानांतर फिल्म में काम किया तो ‘एक था टाइगर’ जैसी मुख्यधारा के सिनेमा में भी वे दिखे. फिल्म में नाक में ड्रिप लगाए रॉ के मुखिया के तौर पर वो दिखते हैं. नागेश कुकूनर की फिल्में ‘इकबाल’ में कोच की भूमिका भी अविस्मरणीय है. यह जानना भी दिलचस्प है कि नाट्य लेखन, अभिनय और निर्देशन में सफल होने और अपनी प्रतिभा का सिक्का जमा लेने के बाद जब उनसे उम्मीद करके शशि कपूर ने शुद्रक के नाटक ‘मृच्छकटिकम’ के सिनेमाई रूपांतर के निर्देशन का जिम्मा सौंपा तो वो असफल रहे. ‘मन क्यों बहका रे बहका…’ जेसै गीत को छोड़कर इस फिल्म में याद करने लायक कुछ भी नहीं है.

गिरीश कर्नाड का जीवन बहुमुखी है. इसके एक सिरे को पकड़ो तो दूसरा हाथ से छूटने लग जाता है, आखिर साठ साल से ज्यादा की रचनात्मकता को आप एक लेख में ट्रिब्यूट कैसे दे सकते हैं! भारतीय ज्ञानपीठ, संगीत नाटक अकादमी, पद्म भूषण, साहित्य अकादमी, कालिदास सम्मान, वंशवृक्ष के लिए श्रेष्ठ निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार, गोधुली के लिए श्रेष्ठ पटकथा का फिल्मफेयर अवार्ड. यह पुरस्कारों की सूची में कुछ ही हैं, इसकी फेहरिस्त लंबी है.

गिरीश कर्नाड का जन्म 1938 में माथेरान, महाराष्ट्र में हुआ. वो रोड्स स्कालर भी थे, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी पढ़ने भी गए और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में नौकरी भी की. 1970 में उन्हें भाभा फेलोशिप मिली और वे नाटक, रंगमंच और सिनेमा की दुनिया में रम गए.
गिरीश उन दुर्लभ संस्कृतिकर्मियों में से एक थे जिनके सरोकार की अभिव्यक्ति केवल उनकी रचनाओं में ही नहीं, रचना से बाह सार्वजनिक जीवन में भी होती रही. इसमें उम्र और बीमारी को भी उन्होंने दूर धकेल दिया और सड़क पर भी उतरे. गौरी लंकेश की हत्या के बाद उनके हाथों में ‘मी टू अर्बन नक्सल’ की तख्ती लोगों के जेहन में कौंधती रहेगी. गिरीश नेहरूवियन आधुनिकता वाले दौर की उपज थे. लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उनके जीवन मूल्य थे. अंग्रेजी के विद्वान थे, लेकिन कन्नड़ में लिखते थे और हिंदी समेत अनेक भाषाओं में काम किया. एक में विविध की समाई के सच्चे उदाहरण.

कर्नाड कला के विभिन्न माध्यमों से सहज तालमेल स्थापित करते हैं. राजनीति का उनके शिल्प में गहरा समावेश है जिसका स्वर अक्सर प्रतिरोध का है. ‘तुग़लक’ में ही उन्होंने भारतीय शासन व्यवास्था की मूल खामी को पकड़ लिया था. ‘तुग़लक’ में एक पात्र है अज़ीज़, मूलत: ठग, जो बादशाह तुग़लक की हर योजना की काट खोज लेता है और बादशाह की सारी योजनाएं धाराशाई होती जाती हैं. और अज़ीज़ हमेशा लाभ में रहता है. अब तो यह वक्त ही अज़ीज़ों के तख्तनशीन होने का है. आज के दिन लगता है तुग़लक का यह संवाद बदले संदर्भों में हमसे पूछा जा रहा है-

‘इसी अरसे में यहां आकर मैंने क्या देखा… क्या पाया…? किले के बाहर भूत सा खड़ा हुआ यह बीहड़ जंगल! क्या सुना? जंगली सियारों की हूल! शहर के कुत्तों का शोर! बीस साल और गुजर जाएं, तो उस वक्त तुम मेरे बराबर के हो जाओगे, और तब मैं इस जंगल के नीचे दफ्‍न रहूंगा. उस वक्त… क्या तुम मुझे याद करोगे?’