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संयुक्त विपक्ष की संभावना से तेलुगु प्रदेश के नेताओं में बढ़ी बेचैनी
गुरुवार को बंगलुरू में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में तेलुगु देशम पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. तेलुगु देशम के पास चहकने के इसके अपने कारण हैं. सबसे पहले तो, चंद्रबाबू नायडू को एचडी देवगौड़ा की सोहबत मिली, 1996 में, नायडू युवा थे और अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान उन्होंने देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इन 22 सालों में, दोनों के राजनीतिक अनुभवों में इज़ाफ़ा हुआ है. तेलुगु देशम के राजनीतिक भविष्य का तकाज़ा ही है कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भाजपा का साथ छोड़ दिया और पुराने सहयोगियों के करीब आ गए.
अगर नायडू को देवगौड़ा के नए सहयोगी, कांग्रेस से दिक्कत भी थी, तो उन्होंने इसे झलकने नहीं दिया. हैरत की बात रही, उन्होंने उंगलियों से विक्टरी साइन दिखाने के बजाय राहुल गांधी की पीठ थपथपाई. हाथ हिलाकर दर्शकों का अभिभावदन किया.
नायडू के एक करीबी कहते हैं, “नहीं… नहीं… उनके हाथ हिलाकर अभिभावदन करने का बहुत ज्यादा मतलब मत निकालिए.” तेलुगु देशम जानती है कि विपक्षी दलों के साथ फोटो आलोचकों की टिप्पणियों का आधार बन सकती है. आलोचकों को इसे घर वापसी बताने का मौका मिल सकता है. 1983 तक नायडू कांग्रेस में थे और 28 साल की उम्र में टी अनजियाह सरकार में मंत्री बनने वाले सबसे कम उम्र के नेता थे. वह अपने ससुर एनटी रामाराव के सत्ता में आने के बाद टीडीपी से जुड़े.
नायडू की मौजूदगी पर टीडीपी नेता के राममोहन राव सफाई देते हैं, “यह कांग्रेस का मंच नहीं था.” 2013-14 में टीडीपी का भाजपा के साथ गठबंधन करवाने में राव की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. अब विपक्षी खेमे में चंद्रबाबू नायडू की अहम भूमिका सुनिश्चित करवाने की जिम्मेदारी भी राव को मिली है.
“गौड़ा और नायडू के बीच घनिष्ठ निजी रिश्ते रहे हैं, यह भी एक कारण है कि नायडू बंगलुरु गए. तीसरा कारण है, टीडीपी की कर्नाटक के लोगों से अपील जिसमें भाजपा को वोट न देने की बात कही गई थी. नायडू की अपील की अनुपस्थिति में भाजपा सीमावर्ती क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी, उनकी संख्या 104 से 112 जा सकती थी. चौथा, अगर वह मंच साझा नहीं करते, इसका मतलब होता कि हम अभी अपने पक्ष को लेकर स्पष्ट नहीं हैं. हमारी उपस्थिति ने यह सुनिश्चित किया है कि जहां तक हमारे राज्यों के मुद्दे हैं, हमारा पक्ष मोदी-विरोधी है,” राव ने बताया.
टीडीपी की स्थापना एनटी रामाराव ने 1982 में की थी. तब यह एंटी-कांग्रेस मंच था, इसीलिए आज जब एंटी-भाजपा (एंटी मोदी पढ़े) गठबंधन बनता दिख रहा है तो राहुल के कंधे से कंधे मिलाकर खड़े होने को गलत समझा जा सकता है. नायडू इस बात से सुकून महसूस कर सकते हैं कि 2014 में राज्य के विभाजन के बाद आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की नाममात्र की भूमिका है. कांग्रेस के पास आंध्र प्रदेश से एक भी सांसद या विधायक नहीं है, न ही आगामी चुनाव में इसका खाता खुलने के आसार दिख रहे हैं.
लोगों की नज़र में, आंध्र प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस की जगह ले ली है. लेकिन मोदी ने आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा नहीं दिया, जिसका वादा उन्होंने 2014 के चुनावों में किया था. कांग्रेस इसका फायदा उठाना चाहती है. कांग्रेस आंध्र प्रदेश के लोगों से वादा कर रही है कि अगर वह 2019 में सत्ता में आती है तो आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा दिया जाएगा. अगर नायडू कांग्रेस को लेकर सख्त नहीं भी रहते हैं, फिर भी आंध्र प्रदेश में किसी भी तरह के गठबंधन की संभावना नहीं है.
जगमोहन रेड्डी और मोदी के करीबी रिश्ते नायडू के पक्ष में रहेंगे. हालांकि, भाजपा और वाईएसआर कांग्रेस के बीच गठबंधन के आसार नहीं हैं क्योंकि यह राजनीतिक रूप से आत्महत्या करने जैसा होगा. फिर भी कुछ सीटों पर या चुनाव के बाद गठबंधन की संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता.
बंगलुरु में मौजूद विपक्षी नेताओं की भीड़ ने नायडू को संदेश दिया है कि वे क्षेत्रीय दलों की नियमित बैठकें सुनिश्चित करें. वे राज्य और केन्द्र के ताने-बाने के साथ-साथ संघीय व धर्म निरपेक्ष पार्टियों का मोर्चा तैयार करें. यह वापस नायडू को यूनाइटेड फ्रंट के संयोजक और 1996 से 2004 के बीच एनडीए के घटक दलों को साधने वाली भूमिका में ले आता है. इस भूमिका से ज्यादा खुशी उन्हें किसी और भूमिका में नहीं मिलेगी.
के चंद्रशेखर राव और तेलुगु के कद्दावर नेताओं के लिए यह सुखद खबर नहीं होगी क्योंकि वे राष्ट्रीय पटल पर अहम भूमिका तलाश रहे हैं. केसीआर जो गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस मंच बनाने के लिए कोलकाता, चेन्नई और बंगलुरू की यात्राएं कर चुके हैं उन्हें जेडी-एस का कांग्रेस से गठबंधन कर सत्ता में आना खलेगा. केसीआर शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुए, इसकी जगह उन्होंने शपथ के एक दिन पहले ही देवगौड़ा के आवास पर आकर नए मुख्यमंत्री को बधाईयां दीं. कांग्रेस तेलंगाना में मुख्य विपक्षी पार्टी है, ऐसे में कांग्रेस का सत्ता में आना केसीआर को बहुत पसंद आने की उम्मीद नहीं है.
ऐसी स्थिति में केसीआर पर भरोसा करना कठिन है. तेलंगाना में केसीआर के दृष्टिकोण से भाजपा कोई मजबूत पार्टी नहीं है. वहां केसीआर को कांग्रेस की तुलना में भाजपा से कम खतरा है. यही वह वजह है जिसके कारण एंटी-मोदी खेमा केसीआर पर संदेह करता है. उसे शक है कि केसीआर मोदी के लिए काम कर रहे हों.
साझा विपक्ष बनाने की दिशा में पहला कदम बंगलुरू में ले लिया गया है. लेकिन तेलुगु प्रदेश पर नज़र रखना दिलचस्प है, वे किस तरफ जा रहे हैं.
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