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हिंदी बनाम कन्नड़: अस्मिताओं के इर्द-गिर्द बंटवारे की राजनीति

जुलाई 2017 में, बंगलुरु के कई मेट्रो स्टेशनों पर एक के बाद एक हमले हुए. कन्नड़ कार्यकर्ता, खासकर कर्नाटक रक्षण वेदिके के कार्यकर्ताओं ने मेट्रो स्टेशनों पर हिंदी में लिए साइनबोर्ड को काले रंग से पोत दिया. ऐसा उन्होंने हिंदी थोपे जाने के विरोध में किया था. इसके बाद, मेट्रो प्रशासन ने माफी मांगने का बेहतर सुरक्षित तरीका अख्तियार किया और उन्होंने स्टेशनों के नाम सिर्फ अंग्रेजी और कन्नड़ में कर दिया.

अक्सर, इस तरह के प्रदर्शनों को कन्नड़ संगठनों की संकुचित सोच से जोड़कर देखा जाता है जिनके विचारों का दायरा सीमित है. वे अक्सर लठैतों के जरिए भी अपनी बात रखने की कोशिश करते हैं. इन संगठनों में सॉफ्टवेयर पेशेवर भी शामिल हैं, जिन्हें लगता है कन्नड़ की अस्मिता को पर्याप्त स्थान नहीं मिल सका है.

वसंत शेट्टी और वल्लीश खुद को भाषाविद् बताते हैं. दिन में वे एक टेक कंपनी और स्टार्टअप में काम करते हैं. लेकिन जो एक सूत्र उन्हें आपस में जोड़े रखता है वह है कि कैसे कर्नाटक में कन्नड़ को तवज्जो न देकर हिंदी को बढ़ाजा जा रहा है. उनका मानना है कि हिंदी कर्नाटक के लोगों की संपर्क भाषा नहीं हो सकती.

“केंद्र सरकार बैंक, पोस्ट ऑफिस, रेलवे संचालित करती है, वहां कन्नड़ को दरकिनार किया गया है. यहां अब ऐसे कर्मचारी हैं जो कन्नड़ में आपसे बात भी नहीं कर सकते. चेक, चालान, टिकट भी कन्नड़ भाषा में जारी नहीं होते हैं. ऐसा इसीलिए है क्योंकि हिंदी ने कन्नड़ की जगह ले ली है. लोगों में भय और असुरक्षा का माहौल है कि कहीं हिंदी, कन्नड़ को पूरी तरह पदस्थापित न कर दे,” वसंत शेट्टी ने कहा.

लेकिन यह सिर्फ भाषा तक सीमित नहीं है. राज्य विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र, भाषा का सवाल कन्नड़ अस्मिता और पहचान से जुड़ गया है. ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि माहौल ऐसा बनाया जा रहा है जहां कन्नड़ बोलने वाले को हिंदी बोलने वाले की तुलना में नीची निगाह से देखने की बात कही-सुनाई जा रही है.

“भारत जैसे विविध देश में, सरकार को विविधताओं का सम्मान करना चाहिए. आप सिर्फ ये कहकर काम नहीं चला सकते कि आपकी एक ही पहचान है- भारतीय- और बाकी सारी पहचानों को पीछे छोड़ दें. जो हमारी पहचान है, उसे दूसरों के ऊपर नहीं थोपा जा सकता है. अगर आप भारतीय हैं, हिंदी पर सहमत हो जाइए. अगर आप कन्नड़ हैं, आप कमतर भारतीय हैं. ऐसे में हम भारत के मूल विचार से नहीं जुड़ सकते,” वल्लीश ने कहा.

यह अच्छी स्थिति नहीं है. कन्नड़ के लोगों को अगर भारतीयता साबित करने की जरूरत पड़ रही है, इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ियां हैं. सिर्फ बंगलुरु ही नहीं, दक्षिण भारत के कई हिस्सों में नागरिकों के भीतर ऐसी भावना है कि उन्हें बाकी नागरिकों की तुलना में कमतर माना जाता है, भाषा और क्षेत्र के आधार पर.

दरअसल, एकरूपता थोपने की कोशिशों के खिलाफ यह उग्र विरोध किया जा रहा है. यह समझना जरूरी है कि दूसरी भाषाओं की तरह कन्नड़ महज एक क्षेत्रीय भाषा नहीं है. कन्नड़ सिर्फ माध्यम में इस्तेमाल होने की भाषा नहीं है. यह एक भावना है.

इसका दूसरा पक्ष यह है, राज्यों में क्षेत्रीयता का विस्तार. भारत के लिए एक राष्ट्र के स्तर पर ठीक नहीं है. कन्नड़ भाषा का मुद्दा अगर ज्यादा दूर तक खिंच गया और अगर इसे हिंदी विरोध की तरह देखा जाने लगा, तो यह कर्नाटक और बंगलुरु के विकास में बाहरी लोगों के योगदान को कमतर करना होगा. राजनीतिक विश्लेषक सुगाता राजू ध्यान दिलाते हैं, “कर्नाटक का 60 फीसदी राजस्व बेंगलुरु से आता है.”

“यह इंजन है जिसकी वजह से उत्तरी कर्नाटक के कई पिछड़े क्षेत्रों का विकास संचालित हो पाता है. अगर आप इस बहस को ज्यादा हवा देते हैं तो संभव है राज्य के भीतर कई विभाजन हो जाएंगें, जिसे राजनीतिक स्तर पर संभालना मुश्किल होगा,” सुगाता राजू ने कहा. लेकिन इस चुनावी मौसम में भाजपा के लिए चिंता की बात है कि पार्टी को गौ-राज्य केंद्रित समझा जा रहा है, इसी कारण हिंदी विरोधी और भाजपा विरोधी भावनाओं को विस्तार मिलता है.

भाषा इस इलेक्शन में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि कांग्रेस ने जिस तरह से क्षेत्रीय अस्मिता का कार्ड खेला है, उसके बाद भाजपा को अपने अनुसार खेलने का मौका मिल गया है.

भाजपा का जोर राष्ट्रवाद पर है. वे ‘एक राष्ट्र, एक ध्वज’ की बात कर रहे हैं. कांग्रेस इसके बरक्स कन्नड़ अस्मिता की बात कर रही है जैसे कोई क्षेत्रीय दल हो. जैसे नरेंद्र मोदी मुख्ममंत्री रहते गुजराती अस्मिता की बात करते थे, सिद्धरमैय्या उसी तरह कन्नड़ अस्मिता की बात कर रहे हैं. वे कन्नड़ अस्मिता को भाजपा के हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान पार्टी वाली छवि के काट के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं.

भाजपा, कम से कम उनकी कर्नाटक ईकाई को सिद्धरमैय्या के जाल का एहसास है. कर्नाटक भाजपा ईकाई कांग्रेस की ही तरह कन्नड़ अस्मिता पर भी जोर दे रही है. दूसरे चीज़ों के इतर, वे लोगों को ध्यान दिला रहे हैं, बेंगलुरु हवाई अड्डे का नाम केम्पेगउड़ा के नाम पर रखने को अपने योगदान की तरह प्रायोजित कर रहे हैं.

हिंदी बनाम कन्नड़, जैसा कि दुर्भाग्यपूर्ण यह मुद्दा बना दिया गया है, यह उत्तर और दक्षिण के बीच राजस्व के बंटवारे को भी रेखांकित कर रहा है. अमित शाह ने कथित तौर पर आरोप लगाया कि एनडीए सरकार के दौरान दिए गए पैसे को भ्रष्ट कांग्रेस सरकार खा गई. इस आरोप पर पलटवार करते हुए सिद्धरमैय्या ने कहा, “अगर राज्य सरकार केंद्र को टैक्स के रूप में एक रूपया देती है, उसे केंद्र से सिर्फ 47 पैसे वापस मिलते हैं.”

बताने की कोशिश की जा रही है, कर्नाटक का पैसा बीमारू राज्यों में बांटा जा रहा है जबकि राज्य खुद अपने पिछड़े इलाकों के विकास के लिए राजस्व की कमी से जूझ रहा है.

यही कारण है, मैं कर्नाटक चुनावों को राज्य के लोगों की परीक्षा के तौर पर देखता हूं. उनका चुनाव इस बार उनकी पहचान, उनकी अस्मिता और वे क्या चाहते हैं या क्या नहीं चाहते का निर्धारण करेगा. और उम्मीद है, इसमें शामिल लोगों के लिए महत्वपूर्ण सीख निहित होगा.