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चकराए सिरों और डूबे हुए दिलों के दौर में गुरुदत्त
“सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए, आ जा प्यारे, पास हमारे, काहे घबराए”, प्यासा फिल्म का ये गाना भले ही चुटीला लगे लेकिन इसमें 60 के दशक में तेजी से बदल रहे भारत की दास्तां दर्ज है. आज के भारत में भी यह उतना ही प्रासंगिक है.
वसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण उर्फ गुरू दत्त की पुण्यतिथि कितनों को याद रहती है, यह सवाल मायने नहीं रखता. लेकिन जितनों को भी याद रहती है वो गुरुदत्त को किस तरह से याद करते हैं, यह ज्यादा अहम है. एक उम्दा निर्माता, निर्देशक और अदाकार. गुरुदत्त ने 1950-60 के दशक को हिंदी सिनेमा की कुछ बेहद शानदार क्लासिक फिल्में दीं, जिसने हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा को नया आयाम दिया. प्यासा, कागज के फूल, साहब बीबी और गुलाम और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्मों ने हिंदी सिनेमा को एक नई उंचाई दिलाई.
अक्सर शख्सियतों को याद करते हुए उनके जीवन का दर्शन लिखने का चलन रहा है. लेकिन हर पुण्यतिथि या जन्मतिथि पर वही बातें दुहराते हुए हम उस शख्सियत के साथ न्याय नहीं कर पाते. जरूरत होती है कि उनके काम पर गहन चर्चा हो. उसे नई पीढ़ी तक पहुंचाया जाय. चालू फिल्मों और थर्ड क्लास मनोरंजन में फंसी जनता को कुछ ऐसा दिखाया-बताया जाय कि जिस तरफ समाज तेजी से रुख कर रहा है, उस किस्सागोई को मास मीडिया के विभिन्न माध्यमों से पहले ही चेताया और आगाह कर दिया गया था. इसलिए गुरुदत्त की पुण्यतिथि पर आज मैं उनके द्वारा निर्देशित फिल्म प्यासा के जरिये उन्हें याद कर रही हूं. गुरुदत्त के लिजेंड्री कामकाज को नई पीढ़ी के बीच पहुंचाने की चुनौती हममें से किसी न किसी को स्वीकार करनी ही होगी.
भागमभाग के बीच ठहराव की कहानी
प्यासा देखने में मुझे तीन घंटे से ज्यादा लगते हैं. और मैंने ये फिल्म दसियों बार देखी है. हर बार मैं फिल्म रोकती और फिर ठहर कर सोचने लगती हूं. फिल्म के बेहद साधारण बैकग्राउंड कई बार इतने इंटेंस लगते हैं कि आप स्तब्ध होकर सोचने को विवश हो जाते हैं.
एक संघर्षरत कवि जिसकी कविताएं खारिज कर दी जा रही हैं. भाईयों ने घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया है. वह विषम परिस्थितियों से जूझ रहा है. अदाकार कई मर्मस्पर्शी दृश्यों में पढ़े-लिखे लेकिन बेरोजगार नौजवान के जरिए राज्य की प्राथमिकताओं पर सवालिया निशान खड़ा करता है.
इसी बीच दत्त की प्रेमिका मीना (माला सिंहा) की शादी एक अमीर और बड़े प्रकाशक घोष बाबू से हो जाती है. सिर्फ एक व्यक्ति जिसके साथ दत्त सहज हो पाते हैं, वो एक वैश्या है- गुलाबो (वहीदा रहमान). वो दत्त (विजय) की कविताओं से ख़ासा प्रभावित होती है.
कॉलेज रीयूनियन पर विजय की मुलाकात एक बार फिर पुरानी प्रेमिका रही मीना से होती है और दोनों की पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं. घोष बाबू जो अब मीना के पति थे उन्हें इसका अंदेशा हो आता है और वो विजय को अपने प्रकाशन समूह में नौकरी पर रख लेते हैं. इस बीच विजय की मां की मौत हो जाती है. अपने हालात में उलझा विजय खूब शराब पीता है और आत्महत्या की सोचता है. सुसाइड नोट लिखता है. पर उसी रात एक भिखारी को ठंड में कंपकंपाता देखता है. विजय उसे अपनी कोट दे देता है. लेकिन भिखारी की दुर्घटना में मौत हो जाती है. सुसाइड नोट और कोट की वजह से लोगों को लगता है कि विजय की मौत हो गई है. सब उसे मृत मानने लगते हैं.
गुलाबो घोष बाबू को समझा-बुझाकर विजय की कविताएं प्रकाशित करवाती है. ये कविताएं बहुत बड़ी हिट साबित होती हैं. मरणोपरांत विजय को सम्मानित करने के लिए आयोजन करवाया जाता है और यहां विजय दुनिया के सामने जीवित सामने आता है. विजय को एहसास होता है कि दुनिया मरने के बाद ही संघर्षों और मेहनत की कद्र करती है.
बीडी गर्ग ने अपनी किताब, “द आर्ट ऑफ सिनेमा इंसाइडर्स जर्नी थ्रू फिफ्टी ईयर्स ऑफ फिल्म हिस्ट्री” में बखूबी बताया कि भारतीय सिनेमा में अति-भावुकता या बनावटी भावुकता के लिए “रोमांटिक मेलोड्रामा” जैसे शब्द का इस्तेमाल होता है. लेकिन 1957 में आई प्यासा गीतों के माध्यम से किस्सागोई का बेहतरीन उदाहरण है.
गुरुदत्त के बारे में वहीदा रहमान ने एक इंटरव्यू में बताया कि आज सजन मोहे गाने के दौरान उनके चेहरे पर चाहत के साथ डर के एक्सप्रेशन की भी जरूरत थी. वहीदा को इस दृश्य में मुश्किल आ रही थी. तब दत्त ने उनसे पूछा, “आप सबसे ज्यादा किससे प्यार करती हैं?”
वहीदा ने कहा, “अम्मी और अब्बू”.
“आप इन दोनों में सबसे ज्यादा प्यार किससे करती हैं?”
“अब्बू से, क्योंकि उन्होंने मुझे बिगाड़ा”
तब दत्त ने उनसे कहा कि, “मान लीजिए अब्बू छत्त पर खड़े हैं. आपको नहीं मालूम आप किस वजह से डरकर उनके पास नहीं जा रहीं हैं लेकिन आपको डर लग रहा है.” गुरुदत्त ने देखा कि मेरे चेहरे का भाव बदल गया है. उन्होंने कहा- “मूर्थी, लाईट्स ऑन, रोल द कैमरा.”
कहने का मतलब गुरुदत्त सेट पर अपने साथी कलाकारों को किस कदर सहज कर देते थे.
कॉमर्शियल सिनेमा का समाजशास्त्र और गुरुदत्त
गुरुदत्त ने कॉमर्शियल सिनेमा के सामने उस जमाने में यह सिद्ध कर दिखाया कि फिल्में सिर्फ कमाने नहीं बल्कि समाज को बेहतर बनाने का जरिया भी हो सकती हैं. उन्होंने अपनी फिल्मों में इंसानों के वस्तुकरण, सफलता, पैसा, पॉवर जैसे बारीक विषयों को अकादमिक पॉलिटिकल डिबेट को दृश्यों में उतारा. एक विरोभासी समाज में जहां मरने के बाद इज्जत और गुणगान का चलन है वहां फटेहाल, दुखिया को जीते जी खारिज करने के पूरे इंतेजाम हैं. स्वतंत्र भारत में विकास की अवधारणा को लेकर छिड़ी अभिजात्य बहसों के बीच बुनियादी सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश और उसे बेहद सरलता से दर्शकों के बीच प्रस्तुत कर देना गुरुदत्त की खूबी रही.
गुरुदत्त की फिल्म के एक गाने की लाइन, “जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं?” आज अमर हो चुकी है. ये पंक्तियां भारत के संदर्भ में अजर अमर सी लगती हैं. जिन समास्याओं का जिक्र पचास साल पहले फिल्मों में होता था, आज भी कमोबेश स्थितियां वही हैं. ऐसा नहीं कि भारत का विकास नहीं हुआ. खूब हुआ. लेकिन किसका हुआ, किन शर्तों पर हुआ. हाशिए पर ढकेल दिए गए समाजों की हालत में क्या सुधार हुआ, ये विकास का पैमाना न बनकर जीडीपी प्राथमिकता हो गई. इसमें जीडीपी में भी खेती-किसानी का शेयर देखेंगे तो विकास का झोल समझ आ जाएगा.
इस दौर में फिल्में बोल्ड तो जरूर हुईं लेकिन सत्ता से सवाल करने की क्षमता में कमी आ गई है.
प्यासा फिल्म का ही एक गाना है- “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या..” ये गीत अपने में ही संपूर्ण सा लगता है. मोहम्मद रफी की आवाज़ आपके सामने आज के भारत की तस्वीर और वही मानवीय संवेदनाएं कुरेदती हैं.
गुरुदत्त की इन्हीं खूबियों के वजह से टाइम्स पत्रिका ने उन्हें ऑल टाइम ग्रेटेस्ट फिल्म डायरेक्टर्स की सूची में जगह दी. आखिर हताशा को पर्दे पर उकेरने की कला विशिष्ट ही रही होगी.
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