भारत के उद्योगपतियों को ‘भारत’ में निवेश करने में क्या अड़चन है? जवाब इस लेख में मिलेगा

वित्त मंत्री ने वाजिब सवाल पूछा है. हम आपको इसके सारे कारण बताएंगे.

WrittenBy:विवेक कौल
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पिछले मंगलवार को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भारत के कॉर्पोरेट दिग्गजों से पूछा कि वे भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं.

उन्होंने कहा, "मैं इंडिया इंक से सुनना चाहती हूं. जब बाहर के देश और उद्योग सोचते हैं कि मौजूद होने की यही जगह है, तो आपको क्या रोक रहा है?"

यह एक वाजिब सवाल है. इस लेख में हम प्रयास करेंगे और देखेंगे कि इंडिया इंक, जैसा कि कॉर्पोरेट इंडिया अक्सर कहा जाता है, भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश क्यों नहीं कर रहा और इसके पीछे क्या कारण हैं.

आइए बीते वर्षों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अनुपात में निवेश को देखते हुए शुरुआत करें. जीडीपी किसी भी साल के दौरान किसी देश के आर्थिक आकार का एक माप है.

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चित्र 1 बहुत ही रोचक बात बताता है. 2021-22 में भारतीय अर्थव्यवस्था में कुल निवेश, सकल घरेलू उत्पाद का 28.6 प्रतिशत था, जो दो दशक पहले 2000 के दशक की शुरुआत में देखे गए स्तरों से मेल खाता है. असलियत ये है कि सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में निवेश, अपने चरम पर लगभग डेढ़ दशक पहले 2007-08 में सकल घरेलू उत्पाद के 35.8 प्रतिशत पर पहुंच गया था, और तब से अमूमन नीचे ही गिरता रहा है.

साफ़ है कि अर्थव्यवस्था में कम निवेश की समस्या कोविड महामारी से संबंधित हाल की घटना नहीं है. यह काफी समय से चल रहा है जिसे एक दशक से ज़्यादा हो गया है.

आइए इसे थोड़ा गहराई से देखें. अर्थव्यवस्था में समग्र निवेश में घरेलू निवेश, निजी क्षेत्र का निवेश और सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश शामिल है. सबसे पहले घरेलू निवेश पर एक नजर डालते हैं.

सकल घरेलू उत्पाद के घरेलू निवेश के आंकड़े 2020-21 तक उपलब्ध हैं. उपरोक्त चार्ट हमें बताता है कि अर्थव्यवस्था में घरेलू निवेश कुछ समय से गिर रहा है. 2020-21 में यह सकल घरेलू उत्पाद का 10.3 प्रतिशत था, जबकि 2011-12 में यही आंकड़ा जीडीपी का 15.9 प्रतिशत था.

जीडीपी में घरेलू निवेश, अर्थव्यवस्था में काम कर रहे छोटे अनौपचारिक व्यवसायों के बारे में बताता है. यह देखते हुए कि यह गिर रहा है, इससे पता चलता है कि अनौपचारिक व्यवसाय अच्छे से नहीं चल रहे हैं, और बंद हो रहे हैं या सिमट रहे हैं.

हाल ही में उन पर कोविड महामारी और जीएसटी को बेतरतीब तरीके से लागू करने का असर भी पड़ा है. जैसा कि देश की सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाली उपभोक्ता सामान कंपनियों में से एक हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड ने अपनी सबसे हालिया आय घोषणा में कहा, "हमने अपने व्यापार के 75% से अधिक में मूल्य और वॉल्यूम शेयर हासिल करना जारी रखा है." यह अर्थव्यवस्था के बढ़ते फॉर्मलाइज़ेशन का प्रतिबिंब है.

अब निजी क्षेत्र के निवेश और जीडीपी अनुपात पर एक नजर डालते हैं.

निजी क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में निवेश का अनुपात अपने चरम पर, साल 2007-08 में सकल घरेलू उत्पाद के 21 प्रतिशत पर पहुंच गया था. इस साल सकल घरेलू उत्पाद में समग्र निवेश का अनुपात भी अपने चरम पर था, तब से इसमें काफी हद तक गिरावट देखी गई है.

यह हमें क्या बताता है? यह हमें बताता है कि 2003 और 2013 के बीच की अवधि में भारतीय कॉरपोरेट्स ने बड़ी मात्रा में उधार लिया और उन्मादी तरीके से विस्तार किया. निजी कॉरपोरेट, भारत के अगला चीन होने के फायदे के लिए तैयार रहना चाहते थे.

इस प्रक्रिया में, उन्होंने अपने चुका सकने की क्षमता से ज्यादा उधार लिया, और साथ ही अपने लिए अतिरिक्त क्षमता का निर्माण भी कर लिया.

भारतीय रिजर्व बैंक की तिमाही आर्डर बुक्स, सूचियों और क्षमता उपयोग सर्वेक्षण या ओबीआईसीयूएस के अनुसार, मार्च 2022 को खत्म हुई तीन महीने की अवधि में उत्पादन कंपनियों का क्षमता उपयोग 75.3 प्रतिशत था, यह नवीनतम उपलब्ध डेटा है. पिछले एक दशक में क्षमता उपयोग लगातार इसी तरजीह पर रहा है, जो साफ तौर पर इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि अर्थव्यवस्था में क्षमता का आधिक्य है.

इस पहलू से, निजी कंपनियों के लिए निवेश और विस्तार करने का कोई अर्थ नहीं बनता. अगर निजी क्षेत्र अपनी मौजूदा क्षमता से ही उपभोक्ताओं की मांग को पूरा कर सकता है, तो वह नई क्षमता का निर्माण क्यों करे?

आखिरकार कोई भी कॉर्पोरेट फर्म संभावित फायदों के लिए ही कोई भी प्रतिक्रिया करती है. फिलहाल निजी कंपनियों के लिए निवेश और विस्तार के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन ही नहीं हैं.

इतना ही नहीं, नई क्षमता के सृजन की यह कमी कमर्शियल बैंकों द्वारा उद्योगों को दिए जाने वाले उधार में भी देखी जा सकती है.

उद्योग को बैंकों से मिलने वाला ऋण अपने चरम पर 2012-13 में, सकल घरेलू उत्पाद के 22.43 प्रतिशत पर पहुंच गया था. तब से यह काफी हद तक गिरकर 2021-22 में 13.32 प्रतिशत पर पहुंच गया है. इसकी बड़ी वजह 2003-2013 के दौरान बैंकों द्वारा उधार देने में दिखाया गया अत्यधिक उत्साह, और निजी कंपनियों द्वारा उधार लेने में दिखाया गया भरपूर जोश रहा.

यानी बैंकों के द्वारा दिए खराब लोन की संख्या बढ़ गयी. खराब लोन या बैड लोन अमूमन ऐसे लोन होते हैं जिन्हें 90 दिनों या उससे अधिक समय से चुकाया नहीं गया. मार्च 2018 तक ये लोन 10.36 लाख करोड़ रुपये के शिखर पर पहुंच गए, जिसमें कॉरपोरेट्स लगभग तीन-चौथाई ख़राब ऋणों के लिए जिम्मेदार थे.

नतीजा ये कि कुल मिलाकर बैंक कई कॉरपोरेट्स को उधार देने से हिचक रहे हैं और कई कॉरपोरेट्स उधार लेने से हिचक रहे हैं, या फिर उधार लेने की स्थिति में ही नहीं हैं. बड़े कॉरपोरेट बेशक दूसरी जगहों से भी उधार ले सकते हैं. बहरहाल, उद्योगों को मिलने वाले बैंक ऋण में गिरावट एक रुझान जरूर दिखाता है.

इसके कारण हमारे पास केवल अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश बचता है, जो पिछले ढाई दशकों में सकल घरेलू उत्पाद के सात से नौ प्रतिशत के बीच झूलता रहा है. उपलब्ध नवीनतम डेटा पॉइंट के अनुसार 2020-21 में यह सकल घरेलू उत्पाद का 7.2 प्रतिशत था. इसका मतलब है कि निजी क्षेत्र और परिवारों द्वारा किया जाने वाला निवेश गिर गया है और ये अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ने से रोके हुए है.

यहां सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है?

जैसा कि पहले बताया गया कि परिवारों के मामले में, अर्थव्यवस्था की बढ़ती औपचारिकता छोटी फर्मों को नुकसान पहुंचा रही है. निजी क्षेत्र (कॉर्पोरेट) के मामले में एक कारण बहुत ज्यादा उधारी है, जिसके कारण अतिरिक्त क्षमता का निर्माण हुआ. साथ ही उपभोक्ता मांग को भी उस अतिरिक्त क्षमता तक पहुंचने की जरूरत है, जिसका निर्माण हो चुका है - और इस चक्र का पूरा घूमना अभी बाकी है.

दूसरा, कोई भी कॉरपोरेट निवेश तब करते हैं, जब उन्हें विश्वास होता है कि निवेश से भविष्य में उन्हें फायदा होगा. ऐसा आत्मविश्वास कुछ समय से नदारद है. वर्षों से भारतीय निजी क्षेत्र द्वारा घोषित नई निवेश परियोजनाओं को दर्शाते निम्नलिखित चार्ट पर एक नज़र डालें.

जैसा कि देखा जा सकता है, घोषित नई परियोजनाएं 2006-07 और 2010-11 की अवधि के दौरान चरम पर थीं, और तब से ये काफी हद तक ढलान पर हैं. 2021-22 में घोषणाएं फिर से शुरू हुईं और 11.77 लाख करोड़ रुपये पर थीं. यह एक अच्छी खबर है. बहरहाल, कुल घोषित निवेश, 2009-10 में घोषित 11.01 लाख करोड़ रुपये के निवेश के काफी समान है. ये कुल राशि है, जो मुद्रास्फीति या मूल्य वृद्धि की दर को ध्यान में नहीं रखती. ये नंबर 2006-07 से 2010-11 की तुलना में, 2021-22 की भारतीय अर्थव्यवस्था के बड़े आकार को भी अपने आकलन नहीं रखते हैं.

साथ ही, जैसा कि अर्थशास्त्री और योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हाल ही में मिंट के एक कॉलम में लिखा, “कुछ बड़े घरानों ने कुछ बड़े निवेश की घोषणा की है. यह अच्छा है, लेकिन कुछ बड़े घरानों की घोषणाएं निजी क्षेत्र के निवेश में आई व्यापक मंदी की अंतर्निहित समस्या को ठीक नहीं करेंगी.”

तो निजी क्षेत्र निवेश क्यों नहीं कर रहा है? इसका उत्तर शायद इस तथ्य में निहित है कि औसत भारतीय उपभोक्ता पिछले कुछ समय से वित्तीय मोर्चे पर जूझ रहा है.

आइए निम्नलिखित चार्ट पर एक नज़र डालें, जो पिछले कुछ वर्षों में देश में घरेलू दोपहिया वाहनों की बिक्री को दर्शाता है.

2021-22 में घरेलू दोपहिया वाहनों की बिक्री लगभग 13.5 मिलियन यूनिट रही, जो कमोबेश एक दशक पहले 2011-12 में बेची गई 13.4 मिलियन यूनिट के बराबर थी. यह आंकड़ा हमें क्या बताता है?

पहला, एक दोपहिया वाहन आमतौर पर लोगों के जीवन काल में खरीदी जाने वाली दूसरी या तीसरी सबसे महंगी चीज होती है. और 2021-22 में दोपहिया वाहनों की बिक्री लगभग एक दशक पहले की बिक्री के बराबर होना हमें बताता है कि एक औसत व्यक्ति दोपहिया वाहन खरीदने के लिए पैसे देने की स्थिति में नहीं है. काफी हद तक यह अनिच्छा आर्थिक भविष्य में विश्वास की कमी से उपजी है.

इसका एक बड़ा कारण रोजगार में सृजन की कमी है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़े बताते हैं कि 2016-17 में श्रम भागीदारी की दर 46.2 प्रतिशत थी. 2021-22 तक यह गिरकर 40.1 फीसदी पर आ गई थी. यह गिरावट कोविड महामारी के आने से पहले शुरू हुई थी.

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि 2016-17 में, 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के प्रत्येक 1,000 व्यक्तियों में से औसतन 462 व्यक्ति या तो कार्यरत थे, या बेरोजगार होते हुए नौकरी की तलाश में थे. 2021-22 तक, औसतन 1,000 में से केवल 401 व्यक्ति ही कार्यरत या बेरोजगार रहते हुए नौकरी की तलाश में थे. यह हाल तब है, जब कुल जनसंख्या में भी बढ़ोतरी हुई है.

इसलिए बहुत से लोग श्रम बल से केवल इसलिए बाहर हो गए क्योंकि वे कुछ समय तक नौकरी नहीं ढूंढ पाए और उन्होंने सक्रिय रूप से नौकरियां ढूंढना बंद कर दिया. और नौकरियों के बिना खरीदने की क्षमता को झटका लगना तय है.

दूसरा, अगर दोपहिया वाहनों की बिक्री लगभग एक दशक पहले की तरह ही है, तो कोई भी कंपनी नई क्षमता में निवेश क्यों करेगी? घरेलू दोपहिया वाहनों की बिक्री 2018-19 में अपने चरम पर 21.2 मिलियन वाहनों पर पहुंच गई. इसे मद्देनज़र रखते हुए दोपहिया वाहन उद्योग में काफी क्षमता आज के समय में बेकार पड़ी है.

इसके अलावा, इस साल अप्रैल से अगस्त तक घरेलू दोपहिया वाहनों की बिक्री 6.6 मिलियन यूनिट रही - जो 2020-21 और 2021-22 में इसी अवधि की तुलना में ज्यादा है, लेकिन उससे पहले के सालों की तुलना में कम है. जाहिर है कि दोपहिया उद्योग के लिए फ़िलहाल क्षमता की समस्या नहीं है. इसलिए निवेश और विस्तार करने के लिए कोई प्रोत्साहन भी नहीं है.

यह याद रखना भी जरूरी है कि बिक्री में गिरावट सिर्फ कोविड महामारी के फैलने के कारण नहीं आई है. महामारी आने से पहले ही घरेलू दोपहिया वाहनों की बिक्री में गिरावट शुरू हो गई थी. यह फिर से इस ओर इशारा करता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी शुरू होने से पहले ही धीमी पड़ने लगी थी, इस बात को ज्यादातर लोग भूल जाते हैं.

जो विश्लेषक और अर्थशास्त्री यह अनुमान लगाना चाहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था अच्छी चल रही है, वे कारों की बढ़ती बिक्री का हवाला देते हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दोपहिया वाहनों की बिक्री की तुलना में कारों की बिक्री बहुत तेजी से बढ़ी है, लेकिन यह कहना कि कार की बिक्री में उछाल आया है, सच को बढ़ा-चढ़ा कर बताना है. बीते वर्षों में घरेलू कारों की बिक्री को दर्शाते निम्नलिखित चार्ट पर एक नज़र डालें.

2021-22 में घरेलू कारों की बिक्री करीब 3.1 मिलियन यूनिट रही. यह 2019-20 और 2020-21 में बेची गई कारों की संख्या से अधिक थी, लेकिन 2018-19 में बेची गई लगभग 3.4 मिलियन यूनिट से कम थी. यानी साफ़ है कि कार उद्योग के पास पर्याप्त क्षमता है. साथ ही पिछले एक दशक में कारों की बिक्री में औसत वार्षिक वृद्धि 1.6 प्रतिशत रही है.

यहां एक अन्य बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है, कि एंट्री-लेवल कारों की बिक्री में गिरावट आई है. 2018-19 में मिनी और कॉम्पैक्ट कारों (3,201 मिमी से 4,000 मिमी तक) की घरेलू बिक्री लगभग 20 लाख यूनिट रही. 2021-22 में यह घटकर 1.4 मिलियन यूनिट रह गई है. यह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि पिछले कुछ सालों में, वे परिवार जो शायद एक दोपहिया वाहन से सबसे बुनियादी मॉडल की कार के मालिक हो सकते थे, उनका वित्तीय सामर्थ्य कम हुआ है. एंट्री-लेवल कारों के उत्पादन की क्षमता में भी कोई दिक्कत नहीं है.

इसके अलावा, ज्यादा महंगे मल्टी-यूटिलिटी वाहनों की बिक्री 2018-19 में लगभग 0.9 मिलियन यूनिट से बढ़कर 2021-22 में लगभग 1.5 मिलियन यूनिट हो गई है. यह बताता है कि महामारी के बाद अमीर लोग और ज्यादा अमीर हो गए हैं. पिछले कुछ वर्षों में मल्टी-यूटिलिटी वाहनों की बिक्री दोगुनी से अधिक होने के तथ्य को देखते हुए इसमें कोई हैरानी नहीं कि इन कारों के लिए प्रतीक्षा की अवधि काफी लंबी है. पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक असमानता के तेजी से बढ़ने का यह एक बड़ा उदाहरण है.

आइये अब मोबाइल टेली-घनत्व को दर्शाते निम्नलिखित चार्ट पर एक नज़र डालते हैं.

2017-18 में लगभग 91.09 के चरम पर पहुंचने के बाद, देश में मोबाइल टेली-घनत्व लगातार गिर रहा है. इसका मतलब है कि जनसंख्या में प्रत्येक 10,000 व्यक्तियों के पास औसतन 9,109 मोबाइल फोन कनेक्शन हैं. 2021-22 में यह गिरकर 83.07 हो गया. इस गिरावट का एक बड़ा हिस्सा कोविड महामारी के आने से पहले का था.

यह हमें बताता है कि कई व्यक्तियों ने अपने इस्तेमाल में आने वाले एक से ज्यादा मोबाइल फोन नंबर को इस्तेमाल करना छोड़ दिया है, क्योंकि उनके खर्चे बढ़ गए हैं.

यानी औसत भारतीय उपभोक्ता का आर्थिक खर्च बढ़ गया है. इसका एक दूसरा कारण यह है कि पहले घरेलू निवेश में वृद्धि ने निजी निवेश की वृद्धि को बढ़ावा दिया. जब अनौपचारिक क्षेत्र ने अच्छा प्रदर्शन किया तो घरेलू निवेश बढ़ा. ऐसा होने पर खपत की मांग भी बढ़ गई, जिससे निजी क्षेत्र ने अच्छा प्रदर्शन किया और अधिक निवेश किया.

इसमें कोई संदेह नहीं कि आबादी का संपन्न वर्ग लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रहा है और यह कई आर्थिक मानदंडों से भी परिलक्षित होता है. निजी कॉरपोरेट आर्थिक विकास के बारे में पूछे जाने पर भले ही सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहें, लेकिन वे साफ़ तौर पर से इस बात को समझते हैं और यह उनके निवेश के निर्णयों में भी परिलक्षित होता है. उनकी वास्तविक प्राकट्य वरीयता अलग है.

वित्त मंत्री ने अपने संबोधन में यह भी कहा था कि विदेशी लोग भारत पर बड़ा दांव लगा रहे हैं. आइए भारत में सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में नेट विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को देखें.

शुद्ध विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) का आंकड़ा प्राप्त करने के लिए विदेशी निवेशकों के द्वारा किसी भी साल भारत में लाई एफडीआई को लेकर उसमें से, उस साल के दौरान हुए वापस अपने देश लौटने जाने वाली पूंजी को घटा दिया जाता है. जैसा कि हम देख सकते हैं, सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में शुद्ध एफडीआई, 2008-09 में सकल घरेलू उत्पाद के 3.5 प्रतिशत के चरम पर पहुंचने के बाद के सालों से लगभग समान ही रही है. 2021-22 में यह जीडीपी की 1.8 फीसदी थी.

फिर भी, कुल मिलाकर देखें तो पिछले कुछ वर्षों में शुद्ध एफडीआई के आंकड़े में बढ़ोतरी हुई है. 2021-22 में 56.2 बिलियन डॉलर के शिखर पर पहुंच गया और शायद इसी का जिक्र वित्त मंत्री अपने संबोधन में कर रही थीं.

इसलिए, यह हमारे पास एक आखिरी सवाल छोड़ देता है: निजी कॉरपोरेट्स पिछले कुछ वर्षों में कमाए अपने मुनाफे के साथ क्या कर रहे हैं, खास तौर पर जब उन्होंने पिछले दो वर्षों में बढ़ती औपचारिकता, कम ब्याज दरों, स्मार्ट लागत में कटौती और सितंबर 2019 में लागू कॉर्पोरेट आयकर दर में कटौती की वजह से बंपर मुनाफा कमाया है?

अर्थशास्त्री महेश व्यास ने 3,299 गैर-वित्त कंपनियों का विश्लेषण किया, जिनमें से 2,509 कंपनियां सूचीबद्ध हैं और शेष गैर-सूचीबद्ध हैं. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के प्रावेस डेटाबेस द्वारा अनुसरित 25,000 कंपनियों की बिक्री में लगभग 60 फ़ीसदी हिस्सा इन्हीं कंपनियों का है. इन कंपनियों ने 2021-22 में 6.7 लाख करोड़ रुपये का उत्कृष्ट शुद्ध लाभ कमाया, जो पहले के किसी भी साल की तुलना में काफी अधिक है. इस धन का इस्तेमाल नई क्षमताओं के निर्माण में नहीं किया गया.

जैसा कि व्यास लिखते हैं, "गैर-वित्त कंपनियों की शुद्ध अचल संपत्ति 2020-21 में केवल 2.3 प्रतिशत और फिर 2021-22 में केवल 2.1 प्रतिशत बढ़ी." इसमें से भी, "संयंत्र और मशीनरी में हुआ निवेश 2020-21 में केवल 0.97 प्रतिशत और 2021-22 में 0.21 प्रतिशत बढ़ा."

साफ़ है कि कंपनियां क्षमता विस्तार में ज्यादा निवेश नहीं कर रही हैं. लेकिन फिर भी, वे शेयरों और ऋण साधनों में निवेश करने को लेकर बड़े उत्साहित थे. व्यास लिखते हैं, “इक्विटी शेयरों में निवेश 17.4 प्रतिशत बढ़ा. ऋण साधनों या डेब्ट इंस्ट्रूमेंटस में होने वाले निवेश में 28.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.”

इसका अर्थ है कि जहां एक तरफ कंपनियां इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि बिक्री का कोविड के गिरे हुए स्तर से उबरना जारी रहेगा. फिर भी कंपनियां बिक्री में इतनी तेजी से वृद्धि नहीं देख रही हैं कि वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की उनकी मौजूदा क्षमता पर कोई दबाव आए. इसलिए निवेश करने की कोई आवश्यकता नहीं है. साफ़ शब्दों में कहें तो निजी क्षेत्र के पास उधार लेने और विस्तार करने के प्रलोभन बहुत कम हैं.

(विवेक कॉल बैड मनी के लेखक हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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