नेत्रहीन स्कूल का वजूद खतरे में, राशन खरीदने तक के नहीं हैं पैसे

डोनेशन और फंड में भारी गिरावट के चलते ब्लाइंड स्कूल नेत्रहीन बच्चों को वापस भेज रहे हैं. ये स्कूल दो समय के खाने के लिए जूझ रहे हैं.

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संस्था चलाने के लिए तोड़नी पड़ी एफडी

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देवेंद्र सिंह रघुबीर नगर में स्थित अखिल भारतीय नेत्रहीन संघ के महासचिव हैं. अपने पिता के गुजरने के बाद देवेंद्र इस संस्था को चला रहे हैं. वो बताते हैं, “कोरोना की दूसरी लहर जब से शुरू हुई है तब से कोई संस्था में नहीं आया. संस्था को मिलने वाले डोनेशन में पचास फीसदी गिरावट के चलते कर्मचारियों को सैलरी देने में दिक्कत आ रही है. हमने स्टाफ़ में से किसी को निकाला नहीं है लेकिन उनकी सैलरी में कटौती करना हमारी मजबूरी है. हमने कई सालों से एफडी (फिक्स्ड डिपोसिट) जोड़ी थीं. लेकिन टीचरों को सैलरी देने और संस्था का काम चलते रहने के लिए एक-एक कर सभी एफडी तोड़नी पड़ रही हैं. हमने कंप्यूटर लैब भी बंद कर दी. अब केवल बच्चों को असाइनमेंट के ज़रिए पढ़ाया जा रहा है. जो बच्चे गांव चले गए उनके पास इतनी सुविधा भी नहीं है कि पढाई कर सकें."

नहीं चल पा रहा रोज़ाना का खर्चा

ऑल इंडिया कॉन्फिडरेशन ऑफ़ ब्लाइंड के संस्थापक और पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित 76 वर्षीय जेएल कौल पिछले 40 सालों से यह संस्था चला रहे हैं. महामारी की दूसरी पारी के दौरान संस्था चलाने में दिक्कत आ रही हैं. जिसके चलते हॉस्टल में रह रहे 70 बच्चों को वापस घर भेजना पड़ा. जेएल कौल ब्लाइंड स्कूल के साथ ही मानसिक रूप से अक्षम बच्चों के लिए भी अलग से स्कूल चलाते हैं.

“उनके इन संस्थानों में 65 लोगों का स्टाफ़ काम करता है लेकिन पैसों के अभाव में उन्हें सैलरी देने में मुश्किल हो रही है. हमारे यहां ब्लाइंड स्कूल में 70 से 80 बच्चे रहते हैं. महामारी के चलते हमने सभी बच्चों को वापस उनके घर भेज दिया. केवल दो अनाथ लड़कियां यहां रह रही हैं. हम नहीं चाहते थे कि कोई बीमार पड़े और संक्रमण फैले. इलाज के लिए भी पैसा चाहिए. यहां केयर करने के लिए कोई नहीं है. पिछले साल हमने किसी को नहीं भेजा था. उस समय संक्रमण की तीव्रता इतनी तेज़ नहीं थी." जेएल कौल बताते हैं.

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संस्था में वोकेशनल ट्रेनिंग जैसे हिंदी स्टेनोग्राफी और कंप्यूटर सिखाया जाता है. लेकिन लॉकडाउन के बाद से कंप्यूटर प्रयोगशाला धूल फांक रही है. "हम कोशिश कर हैं. जिनके पास लैपटॉप है वो घर से पढ़ पा रहे हैं लेकिन ज़्यादातर बच्चों के पास स्मार्ट फोन तक नहीं है. हम भी कितने बच्चों को अपनी जेब से मोबाइल दिला सकते हैं? पिछले दो महीनों में 70 प्रतिशत डोनेशन कम हुआ है. ज़्यादातर लोग बैंक से ट्रांसफर करते हैं. कोई पांच हज़ार रूपये दे रहा है, कोई दो हज़ार रूपये. ऐसे में रोज़ का खर्चा पूरा करने में भी दिक्कत आ रही है. फिर बिजली और पानी का बिल भी देना पड़ता है." जेएल कौल कहते हैं.

नहीं मिली कोई सरकारी मदद

दिल्ली के लगभग सभी ब्लाइंड स्कूलों का एक जैसा हाल है. डोनेशन की कमी के चलते धीरे- धीरे नेत्रहीन बच्चों को वापस घर भेजना पड़ रहा है. संस्थाओं के पास अब इतना फंड भी नहीं बचा है कि दो समय का पौष्टिक आहार बनाकर खा पाएं. इन संस्थाओं को सरकार की तरफ से भी कोई मदद नहीं मिली है.

देवेंद्र बताते हैं, “सरकार की तरफ से एक बार लोग ज़रूर आय थे लेकिन केवल यह देखने कि संस्था का काम कैसा चल रहा है. हैंडीकैप बच्चों के लिए सरकार द्वारा बनाई कोई योजना काम नहीं कर रही है.”

जेएल कौल भी यही कहते हैं कि सरकार की तरफ से अब तक उन्हें कोई सहायता नहीं मिली है. निर्मल भी परेशान होकर कहती हैं, “अगर पास के गुरुद्वारे से मदद नहीं मिलती तो कितने दिन हम भूखे ही सो जाते. लेकिन अब सबको संक्रमण का डर है. सरकार की तरफ से हमें कोई सुविधा नहीं पहुंची है."

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चौंकाने वाले हैं आंकड़े

भारत नेत्रहीन बच्चों की सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश है. ऐसे में ये संस्थाएं ही हैं जो इन बच्चों को बाहरी दुनिया के साथ चलने में सशक्त बनाती हैं. लेकिन कोरोना वायरस की इस घड़ी में शायद सरकार और जनता इन्हें कही पीछे भूल गई. ध्यान दें कि इस वर्ष के बजट में विकलांग व्यक्तियों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रमों के लिए निर्धारित कुल व्यय रुपये में कटौती की गई. इसे 655 करोड़ रुपये से 584 करोड़ रुपये कर दिया गया. राष्ट्रीय विकलांग वित्त और विकास निगम नेत्रहीन और अलग-अलग शारीरिक दिक्कतों से जूझ रहे व्यक्तियों को अपना बिज़नेस शुरू करने के लिए सस्ता लोन देती हैं. 2019-20 के बजट में 41 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था जो इस बार केवल 0.01 करोड़ रुपये है.

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