हम मीडिया पर रिपोर्ट क्यों करते हैं?

राजनेताओं, नौकरशाहों और न्यायपालिका की तरह ही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की जवाबदेही भी जरूरी है.

WrittenBy:मनीषा पांडे
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न्यूज़लॉन्ड्री ने 2012 में एक ऐसे व्यंग्यात्मक शो के विचार के साथ अपनी यात्रा शुरू की थी जो मीडिया को ही कटघरे में खड़ा करता था. जब मधु और अभिनंदन (न्यूज़लॉन्ड्री के दो संस्थापक) ने इस सोच के साथ अलग-अलग मीडिया घरानों से संपर्क किया, तो वे उन्हें बोर्ड में शामिल करने के लिए काफी उत्साहित दिखे. लेकिन वो आलोचना के 'दायरे' के बारे में जानने को उत्सुक थे. क्या इसमें "हम भी" शामिल होंगे? सभी मीडिया हाउस? हर पत्रकार? क्या कोई इससे परे नहीं होगा? और क्योंकि इन सभी सवालों का जवाब "हां" था, इसलिए अंततः कोई भी इस शो को मुख्यधारा के मीडिया में स्तान देने को तैयार नहीं हुआ.

ऐसे में एक पूरी वेबसाइट लॉन्च की गई. शो को नाम था 'क्लॉथ्सलाइन'. इसमें मधु, मेजबान के रूप में किसी को नहीं बख्शती थीं- बरखा, राजदीप, सागरिका, अर्नब... हर कोई इसकी जद में आया. और यह वेबसाइट न्यूज़लॉन्ड्री ही है जो कि अब पूरी तरह से एक समाचार और मीडिया समीक्षा के पोर्टल के रूप में विकसित हो चुका है.

हमारी दो सबसे लोकप्रिय पेशकश, टीवी न्यूसेंस और एनएल टिप्पणी, मुख्यधारा के उस टेलीविजन मीडिया परिदृश्य पर नजरें जमाये रखती है, जो कि 2012 से ही टीआरपी के लिए अंधे गड्ढों की ओर दौड़ रहा है. वैचारिक और राजनीतिक तौर पर अतिपक्षपातपूर्ण और सनसनी वाले माहौल के अलावा, टेलीविजन मीडिया की समाज में मूलभूत भूमिका में भी नकारात्मक बदलाव हुए हैं.

आज टीवी न्यूज़ चैनलों की पत्रकारिता दरअसल उसी जनता को जी-जान से अपना निशाना बनाने में जुटी हुई है जिसके हितों के लिए उसे खड़ा होना था. चाहे वह सीएए विरोधी प्रदर्शन हों, कृषि कानून का विरोध हो या हालिया अग्निवीर आंदोलन हो- कई स्टार एंकर केवल सरकार की बात रखते हुए या उसका बचाव करते हुए कई बार बहुत आगे निकल जाते हैं. नागरिकों को ही खलनायक के रूप में पेश करने के लिए वो कभी कांट- छांट किए गए विडियो का, तो कभी सीधे फर्जी खबरों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते.

टीवी न्यूज़ चैनलों द्वारा हर रात प्राइम टाइम पर, अल्पसंख्यकों को खलनायक के तौर पेश किया जाता है- मेरे पास उन तमाम जिहादों की गिनती नहीं है जिनको टीवी न्यूज़ चैनलों ने इसलिए ईजाद किया ताकि वे हिंदुओं को यह बता सकें कि कैसे वे अपने ही देश में असुरक्षित हैं. न्यूज़लॉन्ड्री की पत्रकार निधि सुरेश ने जुलाई 2021 में एक महिला द्वारा अदालत में दी गयी शिकायत के बारे में रिपोर्ट किया था. उस महिला की शिकायत थी कि इस्लाम धर्म अपना लेने के कारण उसे मीडिया के लोगों द्वारा धमकियां दी जा रही थीं. और यह स्टोरी करने के नतीजे में हमें एक और एफआईआर मिली.

हाल ही में दर्शकों को लुभाने वाले एक भयानक खेल की तर्ज पर हमने न्यूज़ एंकर्स को बुल्डोजरों पर चढ़ कर रिपोर्टिंग करते हुए देखा. ऐसा कर ये मीडियाकर्मी अपने दर्शकों को उन घरों और दुकानों को दिखाना चाह रहे थे जिन्हें जमींदोज किया जा सकता था. मेरी जानकारी के अनुसार यह टीआरपी का एक खजाना साबित हुआ. इस बीच असली खबरें कहीं नेपथ्य में चली जाती हैं- हमने पाया है कि इस साल मार्च के बाद से ही हिंदी और अंग्रेजी के चोटी के न्यूज़ चैनलों के प्रमुख एंकरों ने बेरोजगारी पर एक भी बहस या चर्चा नहीं की है.

आज जब मीडिया में कुछ लोगों ने जनता की सेवा के विचार को ही पूरी तरह से उलट दिया है, तब मीडिया के समीक्षक के तौर पर न्यूज़लॉन्ड्री की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है. हमारे शो शायद अधिकतम दर्शकों तक पहुंचते हैं, लेकिन हमारी रिपोर्ट्स, पॉडकास्ट्स और साक्षात्कार भी हैं, जो मीडिया पर केंद्रित हैं. हमने व्यावसायिक हितों की वजह से समाचार से संबंधित फैसलों पर पड़ने वाले प्रभाव, सिर्फ मुनाफे के लिए देशभक्ति का मॉडल, न्यूज़ रूम में छंटनी और खबरें इकट्ठा करने में इसका असर, हितों का टकराव (इसकी वजह से हमें कानूनी नोटिस मिला), भारत के गांव-देहातों में रिपोर्टिंग की कठिनाई, समाचारों में सूक्ष्म और स्पष्ट दुष्प्रचार, टीआरपी की लड़ाईयों की सरफिरी दुनिया, खबरों की दुनिया में निष्पक्षता और पूर्वाग्रह की अवधारणा, मीडिया के स्वामित्व के स्वरूप को गहराई से देखना, और अन्य बहुत से विषयों पर रिपोर्टिंग की है और लिखा है.

मीडिया लोकतंत्र में सत्ता को मनमानी करने से रोककर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है- न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका और निर्वाचित प्रतिनिधियों तक, सभी मीडिया की आलोचना के दायरे में आते हैं. लेकिन जिस मीडिया को यह कठिन जिम्मेदारी सौंपी गई है, उस मीडिया की खुद अपनी जवाबदेही और समीक्षा में कोई रुचि नहीं है. भारत में ऐसा कोई व्यवसाय नहीं होगा जिसमें मीडिया जितनी अपारदर्शिता व्याप्त हो. किसी पत्रकार को उसके द्वारा की गयी गलती के लिए माफी मांगते हुए देखना असंभव कल्पना है. 2012 में न्यूज़लॉन्ड्री का मिशन, सवालों से परे रहने की इस प्रवृत्ति को बदलना था. जिसका अर्थ है कि जब प्रश्न यह हो कि मीडिया को क्या रिपोर्ट करना चाहिए और क्या नहीं, तब न्यूज़लॉन्ड्री समेत कोई भी आलोचना के दायरे से बाहर नहीं है.

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