प्रकाशन की आध्यात्मिक दुनिया में रॉयल्टी की माया वाया विनोद कुमार शुक्ल

हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल के एक वीडियो ने लेखकों और प्रकाशकों के बीच की असहज परतों को खोल दिया है.

WrittenBy:बसंत कुमार
Date:
Article image

वाणी प्रकाशन के साथ रिश्ता

विनोद कुमार शुक्ल की बहुचर्चित और साहित्य अकादमी से सम्मानित किताब ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. इसके अलावा वाणी से कविता संग्रह ‘अतिरिक्त नहीं’ और कविता संकलन प्रकाशित हुई है.

शाश्वत ने न्यूज़लॉन्ड्री को जो डाक्यूमेंट उपलब्ध कराए हैं उसके मुताबिक साल 1996 से साल 2021 तक यानी बीते 25 सालों में वाणी ने शुक्ल को रॉयल्टी के रूप में 1 लाख 35 हजार रुपए दिए हैं. ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को साल 1999 में साहित्य अकादमी अवार्ड मिला था. अक्सर ऐसा होता है कि जिस किताब को अवार्ड मिलता है उस साल उसकी बिक्री ज्यादा होती है. साल 1999-2000 के दौरान वाणी ने शुक्ल को 5,816 रुपए की रॉयल्टी दी. यहां यह जानना जरूरी है कि तब दीवार में एक खिड़की रहती थी, की कीमत 125 रुपए थी.

वाणी प्रकाशन ने अपनी प्रेस रिलीज में बताया कि दीवार में एक खिड़की रहती थी, किताब का पहला संस्करण वर्ष 1997 में हार्डबाउंड 125 रुपए का था. वहीं वर्ष 2000 में पेपरबैक संस्करण 50 रुपए पर प्रकाशित हुआ. हार्डबाउंड और पेपरबैक संस्करण वर्ष 2010 तक इसी मूल्य पर प्रकाशित हुए. इसके बाद हार्डबाउंड संस्करण 250 रुपए और पेपरबैक 125 रुपए पर प्रकाशित हुआ. साल 2018 से हार्डबाउंड संस्करण 395 रुपए और पेपरबैक संस्करण 195 रुपए पर प्रकाशित हुआ. हार्डबाउंड पर 15% और पेपरबैक पर 10% रॉयल्टी है.’’

न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद डॉक्यूमेंट के मुताबिक वाणी प्रकाशन की तरफ से सबसे ज्यादा रॉयल्टी 2020 में 18 हजार रुपए की मिली है. अगर वाणी प्रकाशन द्वारा दिए गए रॉयल्टी का औसत निकाले तो हर साल प्रकाशक ने लेखक को 5,422 रुपए दिए हैं.

विनोद कुमार शुक्ल ने अपने वीडियो में वाणी प्रकाशन पर आरोप लगाए थे कि बार-बार किताब प्रकाशित नहीं करने के लिए लिखित में कहने के बावजूद वाणी प्रकाशन किताब छापता रहा.

न्यूज़लॉन्ड्री के पास शुक्ल और वाणी प्रकाशन के बीच हुआ पत्राचार मौजूद है. 2 नवंबर 2016 को विनोद कुमार शुक्ल ने वाणी प्रकाशन के प्रमुख अरुण महेश्वरी को पत्र लिखा. अपने पत्र में शुक्ल लिखते हैं, ‘‘कृपया कर मेरी किताबों का हिसाब तथा रॉयल्टी शीघ्र भिजवा दें. आपसे यह निवेदन है कि बिना मेरी अनुमति के मेरी किताबों का नया संस्करण भी न निकालें, प्रूफ की गलतियां ऐसे में रह जाती हैं.’’

2016 में वाणी प्रकाशन को विनोद कुमार शुक्ल द्वारा लिखा गया पत्र

करीब तीन महीने बाद तीन फरवरी 2017 को अरुण महेश्वरी ने शुक्ल को जवाब दिया. इस जवाब में महेश्वरी लिखते हैं, ‘‘पत्र के साथ वित्तीय वर्ष 2015-16 की रॉयल्टी का हिसाब, चेक व पिछले वर्षों की बिक्री का ब्यौरा भेज रहे हैं. पिछले वर्ष की बिक्री ब्यौरा भेजा गया है. आपकी प्रतिक्रिया नहीं मिली. कृपया उपन्यास में संशोधित कर एक प्रति शीघ्र भेजें ताकि नए संस्करण की तैयारी की जा सके.”

करीब दो साल बाद सितंबर 2019 में शुक्ल ने एक पत्र वाणी प्रकाशन को लिखा. इस पत्र में शुक्ल बेहद नाराजगी में लिखते नजर आते हैं. जिसकी गवाही पत्र का विषय ही देता है. इस पत्र का विषय, ‘‘उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का अनुबंध समाप्त करें.’ है.

इस पत्र में शुक्ल लिखते हैं, ‘‘वित्तीय वर्ष 2017-18 तथा 2018-19 का लेखा 3 सितंबर 2019 को मिला. वर्ष 18-19 के लेखा में उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती है’ की 500 प्रतियां हार्डबाउंड और 500 प्रतियां पेपरबैक आपने पुनः प्रकाशित कर नया संस्करण निकाला है. इससे पहले मैंने 2 अक्टूबर 2016 को स्पीड पोस्ट तथा ई -मेल भेजा था कि बिना मेरी अनुमति के नया संस्करण न निकालें. इस संबंध में आपने फिर नया संस्करण निकाल दिया. इसके पूर्व में जितने संस्करण निकले हैं, उसकी पूर्व सूचना मुझे कभी नहीं दी गई. इससे मैं दुखी हूं. आपसे अनुरोध है कि उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का अनुबंध समाप्त कर दें.’’

सितंबर 2019 में शुक्ल द्वारा वाणी प्रकाशन को लिखा गया पत्र

इसके बाद शुक्ला और वाणी प्रकाशन के बीच कुछ और पत्राचार हुए. जिसमें शुक्ल अपनी किताबों की संख्या की मांग करते हैं. वाणी प्रकाशन द्वारा 4 दिसंबर 2021 को एक विस्तृत पत्र शुक्ल को लिखा गया. इसी पत्र में अब तक दिए गए रॉयल्टी की जानकारी दी गई.

इस पत्र में महेश्वरी शुक्ल के पांच साल पुराने पत्र का जिक्र करते हैं, जिसमें उन्होंने किताब में भाषा की गलती होने की बात करते हुए किताब नहीं प्रकाशित करने की बात की थी. अपनी तबीयत खराब होने और कोरोना के कारण आई परेशनियों का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘आपने पुस्तक ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में प्रूफ गलतियों की ओर इंगित किया है. पुस्तक में गलतियां नहीं होनी चाहिए. इसके पक्षधर लेखक-प्रकाशक दोनों ही हैं, हम सभी का सम्मिलत ध्येय पाठक है. कृपया मेरे पत्र 2 फरवरी, 2107 को देखें. मेरी चिंता भी आपके समान है. आपने प्रूफ की गलतियां चिन्हित नहीं की. सम्भवतः व्यस्तता होगी. मैं प्रूफ की गलतियों के प्राप्त होने पर नया संस्करण प्रकाशित करूंगा. इस बीच आपका पाठक वर्ग पुस्तक से वंचित नहीं रहना चाहिए. इसलिए हम संस्करण कर ले रहे हैं. यूं भी 2016 से अब तक किसी पाठक ने अशुद्धियों की तरफ इंगित नहीं किया है.’’

शुक्ल नवंबर 2016 को किताब में अशुद्धियों की तरफ ध्यान देते हुए वाणी को पत्र लिखते हैं. 2017 में वाणी किताब की तरफ से अशुद्धियों को दूर करके एक प्रति भेजने के लिए कहा जाता है. 2019 में फिर शुक्ल अनुबंध खत्म करने की बात पत्र में लिखते हैं. इसके बाद 2021 के दिसंबर महीने में वाणी प्रकाशन द्वारा विस्तृत जवाब दिया जाता है. यह बताता है कि लेखक और प्रकाशक के बीच किस हद तक संवादहीनता है.

हालांकि इसको लेकर वाणी प्रकाशन की निदेशक (कॉपीराइट व अनुवाद विभाग) अदिति महेश्वरी गोयल का कहना है, ‘‘इस बीच कई पत्र उनको हमारी तरफ से लिखे गए. वे हमारे वरिष्ठ लेखक हैं. उनकी किताबों को प्रकाशित करना हमारे लिए गर्व की बात है. अचानक से वे किताब वापस लेने की बात करने लगे थे. हमने उनसे पूछा कि आखिर ऐसा क्या हुआ. उन्होंने कहा कि किताब में अशुद्धियां हैं. इस पर हमने कहा कि अगर अशुद्धियां हैं तो हम इसको दूर कराएंगे.’’

वाणी की तरफ से जारी प्रेस रिलीज में लिखा है, ‘‘वर्ष 2013 में मैंने एक पत्र में शुक्ल जी से कहा था कि 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' के पृष्ठ संख्या 119 पर नीचे से ऊपर की ओर चौथी पंक्ति में 'विभागाध्यक्ष' के स्थान पर 'प्राचार्य' होना चाहिए- ऐसा एक पाठक ने सुझाव दिया है.’’

अदिति महेश्वरी गोयल वाणी द्वारा पाठक की बात लेखक तक पहुंचाने की बात का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘‘ऐसा शायद ही कोई प्रकाशक करता है. यह गैरजिम्मेदार प्रकाशक के लक्षण नहीं हैं. हमने उनसे कई बार कहा कि आप अशुद्धियां बताएं, लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं बताया.’’

शुक्ल द्वारा किताब नहीं प्रकाशित करने की बात पर वाणी प्रकाशन की प्रेस रिलीज में लिखा है, ‘‘3 फरवरी 2017 को मैंने उन्हें पत्र में लिखा था कि वे संशोधन यथाशीघ्र भेजें ताकि पुस्तक कभी आउट ऑफ स्टॉक न हो. उनसे कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ. पुस्तक को दोबारा प्रूफ रीड कर पाठकों के लिए नया संस्करण प्रकाशित किया गया. नए संस्करण का ब्यौरा उन्हें रॉयल्टी स्टेटमेंट में दिया गया है.’’

शुक्ल की तरफ से किताबों को प्रकाशित नहीं करने वाले पत्र के सवाल पर अदिति कहती हैं, ‘‘हां, हमें उनका पत्र प्राप्त हुआ है. हम उनसे इसको लेकर बात कर रहे हैं. हमने उन्हें आदरपूर्व पत्र भेजा है. जिसमें हमने आग्रह किया कि वो हमसे संवाद करें. पुनर्विचार करें. हम पुस्तकों के साथ, शुक्ल जी के साथ खड़े रहना चाहते हैं. लेखक-प्रकाशक संबंध विश्वास पर निर्भर होता है. हमारा उनका 26 साल का संबंध है.’’

किंडल पर मौजूद विनोद कुमार शुक्ल की किताबें

पूरे विवाद की जड़ रॉयल्टी है. शुक्ल के मुताबिक दूसरे लेखकों को लाखों में रॉयल्टी मिलती है. वहीं उन्हें बेहद कम मिलती रही. जिसका अहसास उन्हें लंबे समय बाद हुआ. इस पर अदिति कहती हैं, ‘‘पहली बात यह है कि जिस वर्ष की रॉयल्टी अमाउंट को हेडलाइन बनाकर उछाला गया वो कोरोना काल का था. उस समय किताबें बिक नहीं रही थीं. तब लेखक पढ़े गए और हमने उन्हें स्टेटमेंट भेजा. किताबों रॉयल्टी बिक्री पर निर्भर करती है. कोई और जरिया रॉयल्टी अमाउंट को बढ़ाने का नहीं है.’’

अदिति आगे जोड़ती हैं, ‘‘मैं बिना नाम लिए बताना चाहती हूं कि जिन प्रकाशकों ने बेसिर-पैर की रॉयल्टी ऑफर की हैं, आज उन पर ताले लटके हुए हैं. जबकि वे भारत में दुनिया के सबसे बड़ी कंपनी के पब्लिशिंग हाउस हैं. अभी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में पद्मश्री उर्वशी बुटालिया, जो प्रकाशन जगत का सम्मानित नाम है. उन्होंने ऑन कैमरा यह बात कही कि पब्लिशिंग में से एडवांस को बंद कर देना चाहिए. क्योंकि कोई प्रकाशक का दर्द नहीं जानता कि बिना किताब को जाने वो एक लेखक पर दांव लगाता है.’’

लेखक, अनुबंध और उसकी भाषा

विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि अनुबंध पत्र कानून की भाषा में होता है. इकतरफा शर्तें होती हैं. इस पर अदिति कहती हैं, ‘‘शुक्लजी के साथ जो अनुबंध हुआ है वो उनकी सहूलियत के लिए हिंदी में रखा गया है. ऐसे में यह कहना कि अनुबंध की भाषा कठिन है. यह हैरान करता है.’’

वाणी प्रकाशन ने जो जवाब दिया था उसमें इसको लेकर लिखा है, ‘‘वाणी प्रकाशन से हुए उनके सभी अनुबंध पत्र कठिन विधिक भाषा में नहीं हैं. साहित्यकार निर्मल वर्मा व स्वदेश दीपक के कॉपीराइट प्रबंधकों द्वारा किए गए अनुबंधानुसार शुक्ल जी नया अनुबंध करना चाहें, तो उनका स्वागत है.’’

अदिति अनुबंध के सवाल पर कहती हैं, ‘‘अनुबंध लेखक या उनके परिजनों के अलावा हम किसी से साझा नहीं कर सकते हैं. अगर आप चाहें तो ऑफिस आकर देख सकते हैं. हालांकि हम आपको बता दें कि जब शुक्ल जी अनुबंध हुआ था तो उन्होंने कई बदलाव कराए थे. हमने वो बदलाव माने. मसलन साल 1996 में जो अनुबंध हुआ उसमें उन्होंने हमें पेपरबैक प्रकाशित करने का अधिकार नहीं दिया था. पेपरबैक में प्रकाशित करने का अधिकार उन्होंने हमें कुछ साल बाद दिया था. अनुबंध सिर्फ दो पेज का है वो भी हिंदी भाषा में.’’

यह सवाल जब हमने शाश्वत से पूछा तो वे बताते हैं, ‘‘प्रत्येक अपेक्षा केवल लेखक से ही क्यों? अनुबंध लेखक नहीं बनाते, प्रकाशक तैयार करके भेजते हैं. प्रकाशकों से इसे क्यों नहीं मांगा जाता?’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘मीडिया को क्यों नहीं देखना चाहिए कि लेखकों के साथ होने वाला अनुबंध कैसा है? उनकी भाषा कैसी है? शर्तें कैसी हैं? अनुबंध की शर्तों में कैसी विविधताएं हैं? किस शर्त का कितना कैसा परिणाम हो सकता है? कोई नव लेखक अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने के दौरान किस तरह की, किन-किन और कैसी मजबूरियों से घिर जाता है, क्या घेर तो नहीं दिया जाता है? एक वरिष्ठ लेखक का किसी अनुबंध से निकल पाना क्यों कठिन है? हर समझौता लेखक ही क्यों करे? लेखक क्यों नहीं अपनी बात कह पाता है? आज भी क्यों नहीं खुलकर कह पा रहा? अनुबंध इतने लंबे और बड़े क्यों होते हैं? क्यों नहीं कुछ पंक्तियों में समेटकर अनुबंध बनाएं जाएं?’’

हिंदी युग्म में किस तरह से अनुबंध तैयार होते हैं यह सवाल हमने शैलेश भारतवासी से किया. वे रेंट एग्रीमेंट का उदाहरण देते हुए बताते हैं, ‘‘जितने भी इस तरह अनुबंध होते है वो पहले से चले आ रहे हैं. लेकिन आप उसको पढ़ते हैं कि इसमें क्या ऐसा है जो मेरे पक्ष में नहीं होगा. उसी तरह से मकान मालिक भी पढ़ता है. तो मैं कहना यह चाहता हूं कि अगर दो अलग-अलग किस्म के काम करने वाले लोग कानूनी अनुबंध में जाते हैं तो दोनों ही अपने अधिकारों के लिए उसमें बात कर सकते हैं. अगर कोई बिना पढ़े. बिना सजग हुए उस पर हस्ताक्षर करता है तो वो अपने साथ अन्याय कर रहा है.’’

भारतवासी आगे कहते हैं, ‘‘हमारा अनुबंध भी पहले से चला आ रहा है. लेकिन हमारे अनुबंध में कोई लेखक किसी बिंदु पर आपत्ति जताता है. या उसे समझ नहीं आता तो हम उसे समझाते हैं. या लगता है कि वो बात ठीक कह रहा है तो हम उसे बदलने की कोशिश करते हैं. यह पूरा रिश्ता भरोसे का है.’’

शुक्ल अकेले नहीं!

विनोद कुमार शुक्ल के वीडियो पर बहस का दौर चल ही रहा था तभी वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत ने भी अपनी किताब वापस लेने की बात कही. ‘जिस लाहौर नई देख्या जन्मा नहीं’ नाम से मशहूर नाटक लिखने वाले वजाहत ने फेसबुक पोस्ट लिखा, ‘‘मैं लंबे अरसे से सोच रहा हूं कि विधिवत तरीके से राजकमल प्रकाशन, दिल्ली को अपनी लगभग आठ किताबों के भार से मुक्त कर देना चाहिए.’’

किताबों को मुक्त करने के करणों का जिक्र असगर वजाहत ने अपने पोस्ट में नहीं किया है. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए वजाहत लेखकों की परेशानियों का जिक्र करते हैं. वो कहते हैं, ‘‘मेरे लिए रॉयल्टी बड़ा मसला है भी और नहीं भी है. लेखक और प्रकाशक का रिश्ता भरोसे का रिश्ता होता है. पर हम देखते हैं कि प्रकाशक द्वारा कुछ लेखकों को ज्यादा तवज्जो दिया जाता है. प्राथमिकता देने का काम भी अच्छा नहीं होता. दूसरी बात लेखक किताब पाठकों के लिए लिखता है. अगर किताबें उपलब्ध नहीं रहेंगी और पाठक शिकायत करेंगे तो क्या होगा. वो लेखक को अच्छा नहीं लगता है. तीसरी बात प्रकाशक की तरफ से फीडबैक नहीं मिलना भी एक परेशानी है. प्रकाशक कभी नहीं बताते कि किसी किताब का क्या रिस्पॉन्स है. यह लेखक को बड़ा अटपटा लगता है.’’

वजाहत आगे कहते हैं, ‘‘कुछ प्रकाशक लिख देते हैं- ‘इस किताब के किसी भी अंश को किसी भी रूप में प्रस्तुत करने से पहले प्रकाशक की अनुमति अनिवार्य है.’ इसका मतलब यह होता है कि वह लेखक की रॉयल्टी, कॉपी राइट में शेयर कर रहा है. मान लीजिए मेरी किताब का कोई अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहता है. वो लेखक के साथ-साथ प्रकाशक की भी अनुमति लेगा. तब प्रकाशक भी उससे डिमांड करेगा कि मुझे इतना पैसा दो. और लेखक महसूस करेगा कि उसके तो हाथ कटे हैं वो किसी को अनुमति दे नहीं सकता. क्योंकि बीच में प्रकाशक भी है. ऐसे ही कुछ कारण थे जिसके बाद मैंने अपनी किताबों को ‘मुक्त’ कराने की बात लिखी थी.’’

असगर वजाहत द्वारा लिखा गया फेसबुक पोस्ट

असगर वजाहत की आठ किताबें राजकमल से प्रकाशित हुई हैं. इसमें, मैं हिंदू हूं, कैसी आगी लगाई डेमोक्रेसिया, पटकथा लेखन और टेलीविजन लेखन आदि है. विनोद कुमार शुक्ल और असगर वजाहत का मामला हिंदी साहित्य में प्रकाशक और लेखक के बीच हुए विवाद का पहला मामला नहीं है.

इससे पहले ऐसा विवाद हिंदी की दुनिया में निर्मल वर्मा के निधन के बाद उनकी पत्नी कवयित्री गगन गिल और राजकमल प्रकाशन के बीच आया था. इंडिया टुडे की खबर के मुताबिक गिल ने राजकमल पर रॉयल्टी को लेकर आरोप लगाया था. इसके बाद गिल ने अपनी किताबें राजकमल से वापस ले लीं. उसके बाद उन्होंने ज्ञानपीठ को किताबें दीं. वहां से वापस लेकर अब वाणी प्रकाशन को दे दी हैं. हर बार वो अपने हिसाब से अनुबंध बनवाती हैं.

हालिया विवाद के बाद गगन गिल ने समालोचना पत्रिका में एक लेख लिखा है. प्रकाशकों के साथ अपने संघर्ष का जिक्र करते हुए उन्होंने लेखकों को कुछ सुझाव दिए हैं. गिल ने बताया, ‘‘कोई भी अनुबंध जिसमें आपके अधिकार से दूसरे को अधिकार प्राप्त होता है, वह चाहे आपके कॉपीराइट से प्रकाशक के प्रकाशन अधिकार का मामला हो या मकान मालिक से किरायेदार का, उसे आप कभी भी कानूनी नोटिस देकर निरस्त कर सकते हैं. ऐसा कोई अधिकार नहीं जिसके स्वामी तो आप हैं, मगर गलती कर बैठे तो अब संपत्ति ही हाथ से चली जाएगी.

(इस खबर को 30 मार्च की शाम को अपडेट किया गया)

Also see
article imageजय प्रकाश चौकसे: “एक ऐसा लेखक जिनको पढ़ने के लिए हम अखबार खरीदते थे”
article imageहिंदी पट्टी के बौद्धिक वर्ग के चरित्र का कोलाज है 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल' किताब
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like