आज अपने चारों ओर बुने जा रहे झूठ से कैसे लड़ते भगत सिंह

भगत सिंह को लेकर सोशल मीडिया पर भ्रामक पोस्ट किए जा रहे हैं. इन पोस्टों को देखकर चिंता और भय उत्पन्न होता है.

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सच्चाई यह है कि 8 अगस्त 1929 को जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्त तथा उनके साथियों से मिले थे. नई दिल्ली स्थित नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में 10 अगस्त 1929 के ट्रिब्यून अखबार के लाहौर से प्रकाशित सांध्य संस्करण की प्रति उपलब्ध है जिसमें इस मुलाकात का समाचार प्रकाशित हुआ था. समाचार का शीर्षक है- पंडित जवाहर लाल नेहरू इंटरव्यूज हंगर स्ट्राइकर्स. समाचार के अनुसार- पंडित जवाहरलाल नेहरू ने गोपीचंद (एमएलसी) के साथ लाहौर सेंट्रल तथा बोर्स्टल जेल का आज (8 अगस्त) को दौरा किया और लाहौर कॉन्सपिरेसी केस के अभियुक्तों का इंटरव्यू लिया. पंडित नेहरू पहले सेंट्रल जेल गए जहां वे सरदार भगत सिंह और बीके दत्त (बटुकेश्वर दत्त) से मिले और उनसे भूख हड़ताल के विषय में चर्चा की.

अनेक लेखकों ने यह भी उल्लेख किया है कि अपने वकील और मित्र प्राणनाथ मेहता से फांसी के चंद घंटों पहले हुई अपनी अंतिम मुलाकात में भगत सिंह ने उनसे खास अनुरोध किया था कि वे जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस का विशेष रूप से आभार व्यक्त करें क्योंकि उन्होंने भगतसिंह के मामले में गहन रुचि ली थी.

तीसरी वायरल पोस्ट के अनुसार भगत सिंह और उनके साथियों को वैलेंटाइन डे अर्थात 14 फरवरी 1931 को फांसी दी गई थी. इसलिए वैलेंटाइन डे को इनकी शहादत के दिन के रूप में मनाया जाना चाहिए. सच्चाई यह है भगत सिंह और उनके साथियों को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी. इन क्रांतिकारियों को पहले 24 मार्च 1931 की सुबह फांसी दी जानी थी किन्तु अचानक ब्रिटिश सरकार ने इनकी फांसी की तिथि बदल दी और इन्हें पूर्वनिर्धारित समय से 11 घंटे पहले 23 मार्च 1931 को संध्या साढ़े सात बजे लाहौर जेल में फांसी दे दी गई. इस वायरल पोस्ट का झूठ बड़ी आसानी से पकड़ा गया तब इसके दो अन्य रूप सामने आए.

पहले रूप के अनुसार भगत सिंह को 14 फरवरी 1931 को फांसी की सजा सुनाई गई. यह तथ्य भी गलत था. दरअसल भगतसिंह और उनके साथियों को 7 अक्टूबर 1930 को फांसी की सजा सुनाई गई थी. दूसरे रूप के अनुसार 14 फरवरी 1931 को पंडित मदन मोहन मालवीय ने भगत सिंह के लिए मर्सी पिटीशन दायर की थी जिसे वायसराय ने खारिज कर दिया था. इतिहासकारों का एक छोटा समूह इस बात का समर्थन करता है किंतु बहुत से इतिहासकार इससे असहमत हैं. हमें यह समझना होगा कि सच्चा राष्ट्रवाद कभी झूठ की बुनियाद पर पैदा नहीं होता, झूठ फैलाकर केवल हिंसक उन्माद पैदा किया जा सकता है.

एक अन्य विवाद जो भगत सिंह को लेकर आजकल चर्चा में रहा है उसके अनुसार वामपंथी इतिहासकारों की दृष्टि में भगत सिंह एक टेररिस्ट थे. यह कहा जाता है कि सुप्रसिद्ध वामपंथी इतिहासकार बिपिनचंद्र ने भगत सिंह को आतंकवादी कहा. दरअसल बिपिनचंद्र ने भगत सिंह के लिए रेवोल्यूशनरी टेररिस्ट शब्द का प्रयोग किया था. 1920 के दशक में भूमिगत हिंसा का प्रवेश भारतीय राजनीति में हुआ. यह हिंसा अलोकप्रिय और अत्याचारी ब्रिटिश अफसरों को निशाना बनाने तक सीमित थी. उस समय इस प्रवृत्ति को रेवोल्यूशनरी टेररिज्म कहा जाता था. बाद में विशेषकर 1980 के दशक में टेररिज्म शब्द ने बिलकुल अलग अर्थ ले लिया और टेररिज्म निर्दोष लोगों की बेरहमी से हत्या और अविचारित हिंसा, क्रूरता तथा बर्बरता का पर्याय बन गया.

बिपिन चंद्र ने 1920 में क्रांतिकारियों के लिए प्रचलित तकनीकी शब्दावली का ही उपयोग किया था. आज यदि हम भगत सिंह को एक क्रांतिकारी -समाजवादी, तर्कवादी, नास्तिक, प्रखर धर्मनिरपेक्षतावादी और प्रारंभिक मार्क्सवादी विचारक के रूप में जानते हैं तो इसका बहुत कुछ श्रेय बिपिनचंद्र को है. उन्हें 1931 में कारावास में भगत सिंह द्वारा लिखे गए निबंध मैं नास्तिक क्यों हूं की प्रति उपलब्ध हुई. उन्होंने इसकी भूमिका लिखकर पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से इसके प्रकाशन में योगदान दिया और एक रुपए मूल्य वाली यह पुस्तिका आम लोगों तक भगत सिंह के बौद्धिक और वैचारिक पक्ष को पहुंचाने का प्रथम माध्यम बनी.

बिपिन चंद्र ने भगत सिंह पर बहुत शोध किया और कक्षा 12वीं के विद्यार्थियों हेतु मॉडर्न इंडिया नामक पाठ्य पुस्तक में उनके योगदान को प्रभावशाली ढंग से रेखांकित किया. इसके बाद उन्होंने अपनी पुस्तक इंडियाज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस में भगत सिंह को एक नए रूप में प्रस्तुत करते हुए भारतीय राजनीतिक चिंतन में उनके स्थान को निर्धारित किया. उन्होंने 2007 में एक साक्षात्कार में भगत सिंह के प्रति अपने सम्मान और रेवोल्यूशनरी टेररिस्ट शब्द के प्रयोग के संबंध में विस्तार से बताया. अपनी मृत्यु से पहले वे भगत सिंह की जीवनी पर कार्य कर रहे थे जो पूरी न हो सकी.

भगतसिंह वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न थे और उनमें इतनी अधिक वैचारिक प्रगतिशीलता और लचीलापन था कि वे बहुत जल्द आतंकवाद की सीमाओं को समझ गए थे. फरवरी, 1931 के अपने ऐतिहासिक मसविदा दस्तावेज में भगतसिंह ने स्पष्ट कहा था- आतंकवाद हमारे समाज में क्रांतिकारी चिंतन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है या एक पश्चाताप. इसी तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार भी है. आतंकवाद अधिक से अधिक साम्राज्यवादी शक्तियों को समझौते के लिए मजबूर कर सकता है. ऐसे समझौते, हमारे उद्देश्य– पूर्ण स्वतंत्रता– से हमेशा ही कहीं दूर रहेंगे. इस प्रकार आतंकवाद केवल एक समझौता, सुधारों की एक किस्त निचोड़कर निकाल सकता है.

ब्रिटिश साम्राज्यवाद तो भगत सिंह को न डरा पाया न हरा पाया किन्तु वैज्ञानिकता की बुनियाद पर टिके आधुनिक भारत के निर्माण की भगत सिंह की संकल्पना से एकदम विपरीत एक अतार्किक, अराजक और धर्मांध भारत बनाने कोशिशों का मुकाबला वे किस तरह करते इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है.

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