आगरा के पेठे के स्वाद के पीछे छुपा है पर्यावरण का बड़ा नुकसान

उचित प्रबंधन के अभाव में आगरा के पेठे से निकलने वाला जैविक कचरा गंदगी और अव्यवस्था का पर्याय बन चुका है. इस कचरे का आसान समाधान मौजूद है जिस पर किसी का ध्यान ही नहीं है.

WrittenBy:भागीरथ
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बात आगरा की पहचान और शान की हो तो लोग ताजमहल का नाम सबसे पहले लेते हैं, लेकिन जब यह जिक्र स्वाद से जुड़ता है तो पेठे की महक और मिठास जेहन से जुबां तक घुलमिल जाती है. आगरा की यही पहचान और शान यानी पेठा इस शहर के लिए अभिशाप भी बन चुका है. यह कहना है आगरा के लोहामंडी इलाके में रहने वाले 38 वर्षीय कुमार संभव जैन का. उनके जेहन में पेठे की अच्छी-बुरी यादें रची-बसी हुई हैं. बचपन से लेकर अब तक उनके घर में पेठे की मौजूदगी रही है. खाने के साथ पेठे का लालच उनके स्कूल जाने और घर जल्दी लौटने में काफी अहम भूमिका निभाता था. पेठा उनके लिए मिठाई के साथ-साथ भूख मिटाने वाला सस्ता भोजन भी रहा. संभव आगरा की जिस बस्ती में रहते हैं, वहां अपनी आंखों के सामने पेठा बनते देखकर जवां हुए. भीषण गर्मी में दो डली पेठा खाकर और एक गिलास पानी-पीते ही उनके मन को अब भी सुकून मिल जाता है.

भारत में रहने वाला शायद ही कोई शख्स हो, जिसने अपने जीवन में कभी न कभी पेठा न चखा हो. और पेठा का खयाल आते ही सबसे पहले उत्तर प्रदेश के आगरा शहर का नाम जुबान पर आ जाता है. पर्यटन के लिए आगरा आने वाले या ट्रेन अथवा सड़क मार्ग से गुजरने वाले पेठे लिए बिना नहीं लौटते. आगरा जाने वाले सभी रास्तों में पेठे से सजी दुकानें बताती हैं कि आप पेठा नगरी आगरा में पहुंच चुके हैं. इसी तरह आगरा रेलवे स्टेशन पर पेठा बेचने वालों की आवाज एहसास करा देती है कि आप पेठे के लिए मशहूर आगरा में पहुंच गए हैं. आगरा का पेठा महज एक सस्ती मिठाई ही नहीं है, बल्कि यह यहां की सांस्कृतिक धरोहर भी है.

संभव इसी सांस्कृतिक धरोहर के बीच पले-बढ़े हैं. जब वह पेठे की बुरी यादों की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय पेठे से होने वाली गंदगी और कचरे से है. संभव इसे विस्तार से समझाते हैं, "जिस तरह दिल्ली के गाजीपुर लैंडफिल से उठने वाली बदबू और गंदगी से स्थानीय लोग परेशान रहते हैं, उसी तरह हम भी पेठे से निकलने वाले कचरे से परेशान रहते हैं. सड़क-नालियों में जमा इस गंदगी के बीच से नाक बंद करके निकलना पड़ता है. जहां पेठे का कचरा फेंका जाता है, वहां से तो रास्ता पार करना भी बेहद मुश्किल हो जाता है. पेठे के कचरे के कारण नूरी दरवाजे पर लाल पत्थरों से बने रास्ते का रंग भी सफेद हो चुका है. यहां तक कि नालियों में बहने वाला गंदा पानी भी सफेद ही दिखाई देता है."

पेठा कचरा, बड़ी समस्या

पेठा बनाने की प्रक्रिया से निकलने वाले ठोस कचरे का निपटान और प्रबंधन हमेशा से आगरा नगर निगम (एएनएन) के लिए किसी चुनौती से कम नहीं रहा है. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा हाल में प्रकाशित रिपोर्ट "पेठा वेस्ट मैनेजमेंट इन आगरा सिटी एन अनेलिसिस" के अनुसार, आगरा में 796.3 टन ठोस कचरा निकलता है यानी प्रति व्यक्ति 0.37-0.45 किलोग्राम कचरा प्रतिदिन पैदा होता है. पेठा कचरे की बात करें तो साल 2021 में प्रतिदिन औसतन 17.8 टन यानी 17,800 किलो कचरा निकला है. यह 2020 के आंकड़े से अधिक है.

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आगरा प्रत्येक जोन में प्रतिदिन कच्चे पेठा का इस्तेमाल और निकलने वाला कचरा (किलो में) पेठे से निकलने वाले कचरे की मात्रा की अनुमानित जानकारी मई 2013 में एशिया पेसेफिक जर्नल ऑफ मार्केटिंग एंड मैनेजमेंट रिव्यू में प्रकाशित के. वसंत और प्रिया सोनी के अध्ययन से भी मिलती है. यह अध्ययन बताता है कि आगरा में प्रतिदिन 628 टन ठोस कचरा पैदा होता है. इस कचरे में 5.73 प्रतिशत यानी 36 टन की हिस्सेदारी पेठा कचरे की होती है.

2013 के अध्ययन और सीएसई के ताजा अध्ययन में पेठा कचरे की मात्रा में करीब दोगुना अंतर है. दरअसल 2013 से 2021 के बीच आगरा के पेठा व्यवसाय की दशा और दिशा काफी हद तक बदल चुकी है (देखें, अर्श से फर्श पर, पेज 26) . 2013 से पहले आगरा की लगभग सभी पेठा इकाइयां कोयले या लकड़ी का प्रयोग कर रही थीं लेकिन 1996 में प्रदूषण के मद्देनजर उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद दृश्य पूरी तरह बदल गया. 1996 में उच्चतम न्यायालय ने ताज ट्रेपेजियम जोन (टीटीजेड) में कोयले को प्रतिबंधित कर दिया था और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) और जिला प्रशासन को आदेश दिया था कि प्रदूषण कम करने के लिए पेठा उद्योग को शहर के बाहर स्थानांतरित करे.

1999 में टीटीजेड प्राधिकरण ने 10,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को ताजमहल को प्रदूषण से बचाने हेतु कवरेज क्षेत्र घोषित किया. इस दायरे में आने वाले उद्योगों को कोयले या कोक से प्राकृतिक गैस में स्थानांतरित करना अनिवार्य कर दिया गया. 2003 में टीटीजेड क्षेत्र में आने वाले उद्योगों को गैस आधारित तकनीक पर स्थानांतरित करने का आदेश दिया गया. जो ऐसा करने में असमर्थ थे, उन्हें सरकार द्वारा चिन्हित दूसरी जगह में जाने को कहा गया. प्रशासन ने कालिंदी विहार को पेठा नगरी के रूप में चिन्हित किया.

साल 2013 पेठा कारोबार के लिए काफी चुनौतीपूर्ण साबित हुआ क्योंकि इस साल प्रशासन और यूपीपीसीबी ने कोयला लेकर आगरा आने वालों ट्रकों पर पूर्णत: पाबंदी लगा दी. इससे पेठा निर्माता इकाइयों का ईंधन का स्रोत बंद हो गया और उन्हें मजबूरन गैस की तरफ जाना पड़ा. जो निर्माता ऐसा नहीं कर पाए, उन्होंने या तो अपना कारोबार बंद कर दिया या दूसरी जगहों पर चले गए. प्रशासन की सख्ती के बाद जिन इकाइयों को कालिंदी विहार में स्थानांतरित किया गया, वहां वर्तमान में केवल एक इकाई काम कर रही है. सीएसई के अध्ययन के अनुसार, कालिंदी विहार में 15-16 इकाइयां स्थानांतरित हुई थीं लेकिन खराब गुणवत्ता के पानी के कारण अधिकांश इकाइयां बंद हो गई.

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ताजमहल को प्रदूषण से बचाने के लिए चली इस कानूनी कवायद का पेठा उद्योग पर बहुत बुरा असर पड़ा. रही सही कसर कोरोनावायरस महामारी ने पूरी कर दी. आगरा की मशहूर "प्राचीन पेठा" के मालिक और पेठा एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेश अग्रवाल बताते हैं कि कोयला बंद करने के कारण करीब 85 प्रतिशत पेठा इकाइयां बंद हो गईं. नूरी दरवाजा जो पेठा इकाइयां का गढ़ था, वहां 2013 से पहले 500 से अधिक इकाइयां थीं. यहां की आधे से अधिक इकाइयां बंद हो चुकी हैं. सीएसई के अध्ययन के मुताबिक, वर्तमान में यहां करीब 70 इकाइयां ही बचीं हैं. राजेश अग्रवाल के अनुसार, "2020 में लॉकडाउन के बाद कच्चा पेठा खेतों में सड़ गया क्योंकि पेठा कारोबार बंद होने के बाद उसकी खरीद नहीं हो पाई."

नूरी दरवाजा पर 30 साल से पेठा बना रहे दीपक शर्मा पेठा उद्योग की बदहाली का एक और कारण बताते हैं, "पहले पेठा केवल आगरा में बनता था लेकिन अब कई राज्यों में पेठा बनने लगा है. पहले हम जयपुर में पेठे की आपूर्ति करते थे लेकिन अब जयपुर में पेठा बनने लगा है जिससे आगरा पेठा की आपूर्ति ठप हो गई है. हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के दूसरे जिलों में पेठा बनने से भी आगरा के पेठा कारोबार को नुकसान पहुंचा है."

कोयले से गैस में स्विच करने के आदेश से पेठा बनाने की लागत बढ़ गई और बहुत से पेठा उत्पादक इस लागत को बर्दाश्त नहीं कर पाए जिससे उनका कारोबार बंद हो गया. नूरी दरवाजा पर पांच साल पहले तक पेठा बनाने वाले राहुल शर्मा को भी अपना व्यापार समेटना पड़ा. राहुल के परिवार में कुल 15-16 लोग पेठा उद्योग से जुड़े थे. कारोबार बंद होने से सभी बेरोजगार हो गए और बहुत से लोग नौकरी की तलाश में पलायन कर गए.

भले ही पेठा कारोबार पिछले आठ सालों में सबसे बुरे दौर से गुजर रहा हो लेकिन यह भी सच है कि पेठा उद्योग सरकार की भारी उपेक्षा का शिकार रहा है. पेठा कारोबारी कहते हैं कि आगरा में प्रदूषण के लिए पेठा कारोबारियों को खलनायक बना दिया. सरकार ने कभी भी इस उद्योग को पटरी पर लाने के प्रयास नहीं किए और न ही गैस में किसी प्रकार की सब्सिडी दी. राजेश अग्रवाल कहते हैं, "पेठा के व्यापार को उद्योग कहना गलत है, बल्कि यह लघु व कुटीर उद्योग है. अधिकांश पेठा इकाइयां छोटे स्तर की हैं. इन्हीं पर सरकारी आदेशों की सबसे बड़ी मार पड़ी है. केवल कुछ चुनिंदा बड़ी इकाइयां ही अतिरिक्त लागत को वहन करने में सक्षम थीं. छोटी इकाइयां सरकार की मदद के बिना अपना अस्तित्व नहीं बचा सकती थीं."

कचरे का प्रबंधन

वर्तमान में भले ही पेठे का उत्पादन और उसे बनाने वाली इकाइयां सीमित मात्रा में रह गई हों, लेकिन यह भी सच है कि पेठे से निकलने वाले कचरे के उचित प्रबंधन पर अब तक किसी ने ध्यान नहीं दिया है. अब भी करीब 18,000 किलो ठोस जैविक निकल रहा है. यह कचरा कच्चा पेठा (पेठा मिठाई बनाने में उपयुक्त फल) के छिल्कों, बीजों और उसके गूदे के रूप में होता है.

हालांकि आगरा में पेठा बनाने वाली कुल कितनी इकाइयां हैं और उनसे कितनी मात्रा में कचरा निकलता है, इसकी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है. यही वजह है कि ठोस कचरे की कुल मात्रा की जानकारी अध्ययनों और अनुमानों पर ही केंद्रित है. उदाहरण के लिए ग्रेटर नोएडा स्थित शारदा विश्वविद्यालय के गौरव सैनी और स्नेहा सिंह द्वारा किए गए और जर्नल ऑफ सिविल इंजीनियरिंग एंड एनवायरमेंट टेक्नोलॉजी में साल 2014 में प्रकाशित अध्ययन में 1,500 पेठा उत्पादक इकाइयों का जिक्र है. रिपोर्ट के अनुसार, ये इकाइयां प्रतिदिन 700-800 टन पेठा बनाती हैं. वहीं आगरा के पेठा असोसिएशन के अनुसार, 2013 में 700 पेठा इकाइयां थीं.

पेठा इकाइयों की सबसे ताजा जानकारी सीएसई के अध्ययन में मिलती है. इस अध्ययन अनुसार वर्तमान में पेठा बनाने की 130 इकाइयां ही सक्रिय हैं. ये इकाइयां प्रतिदिन 26.8 टन पेठा बना रही हैं और इस प्रक्रिया में 17.8 टन कचरा निकल रहा है. हालांकि राजेश अग्रवाल कचरे की इस मात्रा पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है. उनका कहना है, "पूरे आगरा में 17 टन कच्चा पेठा नहीं कटता. ऐसे में इतना कचरा पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता." आगरा नगर निगम के पास भी पेठा इकाइयों की ठोस व प्रमाणिक संख्या की जानकारी नहीं है. निगम को यह भी नहीं पता कि पेठा से कितना कचरा निकलता है. आगरा के कुबेरपुर लैंडफिल पर कितना पेठा कचरा पहुंचता है, इससे भी निगम अनभिज्ञ है.

लैंडफिल पर मौजूद अधिकारियों ने बताया कि पेठा कचरा लेकर निगम की कोई गाड़ी नहीं आती. पेठा कचरा जो थोड़ा बहुत आता है वह सामान्य कचरे के साथ मिला होता है. इसलिए यह पता पाना संभव नहीं है कि पेठे से निकलने वाला कितना कचरा लैंडफिल पहुंचता है. इसका अर्थ है कि पेठा बनाने वाली इकाइयां अपने-अपने ढंग से कचरे को ठिकाने लगा रही हैं. आगरा दौरे के दौरान नालियों और सड़क किनारे पेठा कचरा पड़ा देखा, जिससे पता चल रहा था कि इसके प्रबंधन का कोई ठोस तंत्र विकसित नहीं हुआ है.

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गौरव सैनी और स्नेहा सिंह के अध्ययन के मुताबिक, पेठा मिठाई बनाने में कच्चे पेठा के केवल 40 प्रतिशत हिस्सा की उपयोग में लिया जाता है, शेष 60 प्रतिशत कचरे के रूप में निकलता है. यह कचरा शहर में जगह-जगह ठिकाने लगा दिया जाता है. इस कचरे का अधिकांश हिस्सा खुले में फेंक दिया जाता है जो दुर्गंध और अव्यवस्था का कारण बनता है. जबकि सीएसई की रिपोर्ट कहती है कि पेठा बनाने में 40 प्रतिशत कचरा निकलता है. यानी अगर 100 किलो पेठा मिठाई बनती है तो उसमें 150-200 किलो कच्चे पेठा की जरूरत पड़ती है और इसमें 60-80 किलो कचरा पैदा होता है. रिपोर्ट के लेखक कुलदीप चौधरी ने बताया, "अगर इस कचरे का ठीक से प्रबंधन हो जाए तो शहर में जगह-जगह सडांध मार रही गंदगी से छुटकारा मिल सकता है."

आगरा के करकेटा में पेठा इकाई के मालिक सत्यप्रकाश पेठा कचरे को बड़ी समस्या ही नहीं मानते हैं. जब उनसे पूछा कि कचरे का क्या करते हैं, तब उनका जवाब था, "छिल्का गांव-भैंस वाले ले जाते हैं. बीज सुखाकर बेच देते हैं और गूदा नाली में बहा देते हैं." आगरा की अधिकांश पेठा इकाइयां इसी तरह कचरा को ठिकाने लगा रही हैं. ऐसे कई इकाइयों के मालिकों से बात की तो सबने माना कि वे कच्चा पेठे के गूदे को नाली में बहा रहे हैं क्योंकि इसके अलावा उनके पास कोई दूसरा उपाय नहीं हैं.

पेठे के बड़े थोक निर्माता "छोटू पेठा यूनिट" के मोहम्मद अकील तो पेठा के गूदे को कचरा ही नहीं मानते. उनका कहना है, "बीज निकालने से यह गूदा पानी बन जाता है, इसलिए उसे नाली में बहा देते हैं." छोटू पेठा यूनिट में कई युवक पेठा से निकले छिल्कों को बोरियों में भरते दिखे. इन युवकों ने बातचीत के दौरान बताया कि ये छिल्के पशु आहार के रूप में काम आ जाते हैं, इसलिए वे रोज यहां से छिल्कों को इकट्ठा कर ले जाते हैं. सीएसई के अध्ययन में भी 54 प्रतिशत पेठा बनाने वालों ने माना कि पेठा छिल्का पशुपालकों द्वारा एकत्र कर लिया जाता है.

आगरा के पेठा निर्माताओं को तीन जोन-छत्ता जोन, लोहामंडी जोन और ताजगंज जोन में बांटा गया है. सबसे अधिक 90 इकाइयां छत्ता जोन में हैं. इस जोन के अंतर्गत आने वाले नूरी दरवाजा में सर्वाधिक 70 इकाइयां हैं. इस जोन में प्रतिदिन करीब 11,362 किलो पेठा कचरा निकलता है. इसी तरह लोहामंडी की 25 इकाइयों से प्रतिदिन करीब 4,750 किलो कचरा पैदा होता है. ताजगंज जोन की 15 इकाइयों से 1,687 किलो कचरा निकलता है.

समाधान का मार्ग

अगर पेठा इकाइयों से निकलने वाले कचरे का व्यवस्थित तरीके से चैनलाइजेशन कर दिया जाए तो समस्या से काफी हद तक छुटकारा मिल सकता है. सीएसई के अध्ययन के अनुसार, शहर के आसपास 200 पशु फार्म हैं जहां प्रतिदिन 40,000-48,000 किलो चारे की आवश्यकता होती है. अगर पेठा कचरा यहां पहुंचा दिया जाए तो पूरा पेठा कचरा खपाया जा सकता है (देखें, गोशालाओं में खपाया जा सकता है पेठा कचरा).

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सीएसई में म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट इकाई के कार्यक्रम निदेशक अतिन विश्वास इस व्यवस्था का सबसे आसान और असरदार मानते हैं. उनका कहना है, "पेठा कचरे में ही इसका समाधान भी छुपा है, बस थोड़ा बेहतर प्रबंधन की जरूरत है." अभी असंगठित क्षेत्र से जुड़े लोग पास के डस्टबिन और ढलाव पर पेठा कचरा डालते हैं. पेठा इकाइयों की ओर से इन लोगों को प्रतिमाह 500 से 1,000 रुपए का शुल्क देना पड़ता है. नूरी दरवाजा पर स्थित केवल 3 प्रतिशत पेठा इकाइयों को ही आगरा नगर निगम की सेवाएं मिलती हैं. निगम के वाहन स्रोत से कचरा एकत्र करने की एवज में प्रतिमाह 1,000-1,500 रुपए का शुल्क लेते हैं. सीएसई का अध्ययन बताता है कि 38 प्रतिशत पेठा निर्माता खुद पास के डस्टबिन या ढलाव में अपने वाहन से कचरा फेंककर आते हैं.

लोहामंडी जोन के करकेटा में तो पेठा निर्माताओं की निगम की सुविधा नहीं मिलती. अगर निगम पशु फार्म व गोशालाओं और पेठा इकाइयों से जोड़ दें तो कचरा फेंकने की नौबत नहीं आएगी. यह पेठा पशुओं के लिए एक उत्कृष्ट आहार का काम भी करेगा. पेठा व्यवसायी दीपक शर्मा का भी मानना है कि अगर निगम पेठा कचरे को चैनलाइज कर दे तो गंदगी की समस्या खत्म हो सकती है. हालांकि वह इशारों में यह भी कहते हैं, "कुछ लोग आदत से मजबूर हैं, इसलिए वे कचरा नाली में बहाने से बाज नहीं आएंगे." निगम में पर्यावरण इंजीनियर पंकज भूषण को पेठा कचरे को गोशालाओं में भेजने में एक समस्या नजर आती है. उनका कहना है कि यह कचरा प्रदूषित हो सकता है और पशुओं को नुकसान पहुंचा सकता है. वह यह भी मानते हैं कि निगम हर सैंपल की जांच नहीं करा सकता.

सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स 2016 के अनुसार, जो इकाइयां प्रतिदिन 100 किलो से अधिक कचरा उत्पन्न करती हैं, उन्हें बल्क वेस्ट जनरेटर (बीडब्ल्यूजी) की श्रेणी में शामिल करना पड़ता है. ये इकाइयां कचरे के निपटान के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं. अतिन विश्वास के अनुसार, सभी पेठा इकाइयां औसतन 130 किलो जैविक कचरा पैदा करती हैं, इसलिए वे बीडब्ल्यूजी की श्रेणी में खुद ब खुद शामिल हैं. निगम में इन इकाइयों को पंजीकरण बीडब्ल्यूजी के रूप में होना चाहिए और उन्हें लाइसेंस देना चाहिए. कुलदीप चौधरी पेठा कारोबार के कुशल संचालन के लिए पेठा उत्पादकों की जियो टैगिंग को भी अहम मानते हैं. उनका कहना है कि वर्तमान में पेठा उत्पादकों का कोई डाटाबेस निगम के पास नहीं है. निगम को वॉर्ड स्तर पर पेठा इकाइयों का पता लगाकर उन्हें कानूनी दायरे में लाना चाहिए.

पेठे के जैविक कचरे का बेहतर उपयोग खाद या बायो मीथेनेशन प्लांट में भी हो सकता है. निगम ताजगंज जोन में खाद बनाने का एक छोटा संयंत्र लगाने की दिशा में प्रयत्नशील है जहां क्षेत्र से निकलने वाले सूखे और गीले कचरे से खाद बनाई जा सकेगी. ऐसे संयंत्र सभी पेठा जोन में बनाए जा सकते हैं. पंकज भूषण भी कचरे से खाद बनाने को अधिक उपयोगी मानते हैं. इसके अतिरिक्त निगम पेठा इकाइयों के पास बायो मीथेनेशन प्लांट स्थापित करने की भी संभावनाएं तलाश सकता है. ऐसे प्लांट में पेठा कचरे से बायोगैस बनाई जा सकती है. इस प्लांट से बनने वाली गैस पेठा इकाइयों को भी दी जा सकती है. पेठा कचरे से 1,780 क्यूबिक मीटर बायोगैस गैस बनाई जा सकती है. यह गैस 2,120 किलो कोयले के स्थान पर प्रयोग की जा सकती है.

अतिन मानते हैं कि ऐसे प्लांट एक पंथ दो काज वाले साबित होंगे. उनका कहना है कि एक पेठा इकाई से जितना कचरा निकलता से अगर उससे गैस बना ली जाए तो 4-5 घंटे चल सकती है. यह गैस 50 हजार से 1 लाख रुपए के खर्च से प्लांट लगाकर पैदा की सकती है. अगर ऐसा होता है तो जो पेठा इकाई गैस की ऊंची लागत के कारण कोयला का मोह छोड़ने को तैयार नहीं है, वे बायोगैस मिलने पर आसानी से स्वच्छ ईंधन को अपना लेगी. इससे वायु प्रदूषण के साथ कचरे से भी मुक्ति मिल जाएगी.

कुलदीप चौधरी के अनुसार, कोविड काल में पेठा उत्पादन 75-80 प्रतिशत कम हो गया और इसके कचरे में भी कमी आई है लेकिन अब स्थितियां बेहतर हो रही हैं. वह मानते हैं, "पेठा कारोबार कोविड काल से पहली वाली स्थिति में धीरे-धीरे लौट आएगा और इसी के साथ कचरे की समस्या फिर से विकराल हो जाएगी. पेठा आगरा की शान है लेकिन इसका कचरा इस शान पर बट्टा है. शान पर बट्टा लगने से बचाने के लिए कचरे का उचित प्रबंधन बहुत जरूरी है." अतिन पेठा कचरे को समस्या नहीं, संसाधन के रूप में देखते हैं और सुझाते हैं, "निगम व पेठा इकाइयां थोड़ी सी कोशिश कर इसका प्रबंधन भी कर सकती हैं और फायदा भी उठा सकती हैं."

(डाउन टू अर्थ से साभार)

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