गोवा चुनाव और खनन उद्योग: 'यहां का लोहा कुछ लोगों के लिए सोना बन गया है'

लौह अयस्क का खनन गोवा की जीवनरेखा रहा है, लिहाजा हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी नेता और राजनीतिक दल इस लकीर को पीट रहे हैं.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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अमित शाह का दावा दिलचस्प इसलिए है क्योंकि भाजपा पिछले 10 साल से गोवा की सत्ता में है. फिर भी उनका कहना है कि अगली सरकार बनने के बाद वो खनन का काम शुरू करवाएंगे. लगभग इसी तरह के मिलते जुलते दावे गोवा में किस्मत आजमा रही दूसरी राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के भी हैं.

राजनीतिक दल जो बात अपने मतदाताओं को नहीं बता रहे हैं वह है खनन को बंद करने के लिए आया सुप्रीम कोर्ट का आदेश. सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ये दल किस तरह से माइनिंग के रास्ते से हटाएंगे, इस पर वो न तो कोई बात करते हैं, ना ही इससे निपटने का कोई रास्ता सुझाते हैं.

इसका तीसरा पहलू सबसे महत्वपूर्ण है. वो पहलू है पर्यावरण का, प्राकृतिक संसाधनों पर नागरिकों के हक का, प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर लंबे समय तक एक टिकाऊ खनन मॉडल स्थापित करने का. यानी सस्टेनेबल खनन का मॉडल. यह बात सर्वविदित है कि गोवा में लबे समय से अंधाधुंध खनन हो रहा था. यह राज्य की संपत्ति थी, इसका लाभ गोवा के नागरिकों को मिलना चाहिए था लेकिन सच्चाई यह थी कि गोवा के पूरे खनन कारोबार पर कुछ गिने-चुने व्यापारी घरानों का कब्जा था. वो मनमाने तरीके से खनन कर रहे थे. उनकी कमाई हजारों करोड़ रुपए में थी. और सरकार के पास इस कमाई का बहुत छोटा अंश जा रहा था.

यह कमाई अवैध तरीके से जारी थी. कम से कम 2007 के बाद से इन सारी कंपनियों की कमाई अवैध थी. क्योंकि इस साल सभी प्राइवेट कंपनियों की लीज की अवधि खत्म हो गई थी. इसके बावजूद ये धड़ल्ले से खनन करते रहे. उस प्राकृतिक संसाधन का जिसका हक राज्य के पास होना चाहिए था, जिसका लाभ उसके नागरिकों को मिलना चाहिए था, वह सारी कमाई आठ-दस बड़ी प्राइवेट खनन कंपनियां कर रही थीं.

गोवा के पर्यावरण, प्रकृति और खनन को बचाने की लड़ाई में लगी गोवा फाउंडेशन ने इस अवैध खनन को रोकने का काम अपने हाथ में लिया. 1986 में स्थापित हुई गोवा फाउंडेशन ने माइनिंग के मामले पर 1992 में ही काम करना शुरू कर दिया था. 2012 में उन्हें सफलता हाथ लगी, जब सुप्रीम कोर्ट ने खनन पर पूरी तरह से रोक लगाने का आदेश जारी किया.

गोवा फाउंडेशन के रीसर्च डायरेक्टर राहुल बसु हमें इस पूरे मसले से जुड़ा पांच सूत्रीय फार्मूला बताते हैं. वो कहते हैं, “खनन के मुद्दे को पांच बिंदुओं में समझना होगा. पहला, प्राकृतिक खनिजों के मालिक गोवा के आम नागरिक हैं. सरकार उनकी सिर्फ ट्रस्टी है. दूसरा, खनिज हमें विरासत में मिले हैं, हमने इन्हें बनाया नहीं है, इसलिए यह हमारी जिम्मेदारी है कि इसे आगे की पीढ़ियों को हस्तांतरित करें. तीसरा, अगर हम खनन करते हैं तो हमें जीरो लॉस सुनिश्चित करना होगा. चौथा, इससे प्राप्त धनराशि को गोवा के स्थायी कोश में रखना होगा, पूरी दुनिया में ऐसा ही होता है. पांचवां सभी खर्चों के बाद होने वाले मुनाफे को गोवा के नागरिकों में बांटा जाए.”

राहुल की इस बात से एक संदेश निकल कर आता है कि वो और उनका संगठन खनन को पूरी तरह से बंद करने के पक्षधर नहीं हैं. इनका मत है कि खनन वैध तरीके से हो, प्राकृति के साथ टिकाऊ संतुलन के साथ हो, उसका लाभांश नागरिकों को मिले न कि गिने-चुने व्यापारियों को और अपरोक्ष तरीके से राजनीतिक दलों और नेताओं को.

राहुल इस सस्टेनेबल यानी टिकाऊ खनन मॉडल के बारे में हमें बताते हैं, “खनन पर निर्भर व्यक्तियों को लाभ होना चाहिए. खनन से प्रभावित लोगों का लाभ होना चाहिए. गोवा की सरकार को लाभ होना चाहिए. गोवा के नागरिकों को लाभ होना चाहिए. आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हमें कुछ बचाकर रखना है, ताकि उन्हें भी लाभ मिले और खननकर्ता कंपनी को 20 प्रतिशत तक लाभ दिया जा सकता है, लेकिन उन्हें बेरोक लूट की छूट नहीं दी जा सकती.”

गोवा में खनन का मुद्दा जटिल परतों में उलझा हुआ है. इसके तीन पक्ष हमारे सामने आते हैं. पहला पक्ष है गोवा की आम आबादी जिसकी आजीविका किसी न किसी तरीके से खनन पर निर्भर थी. इसका दूसरा पक्ष है पर्यावरण और उससे जुड़ी चिंताएं. तीसरा पक्ष है राजनीतिक दल और नेता. इसका चौथा पक्ष है वो चुनिंदा व्यापारिक घराने जो मोटा मुनाफा कमाते हुए, बिना किसी जावबदेही के बचे रहते हैं.

गोवा का खनन उद्योग इन चार पालों में बंटा हुआ है. इसमें तीसरे और चौथे पक्ष के हित आपस में जुड़े हुए हैं. इसीलिए एक पारदर्शी, वैध खनन का मॉडल दे पाने में सारे राजनीतिक दल अभी तक नाकाम रहे हैं.

(मेघनाद एस और लिपि वत्स के महत्वपूर्ण सहयोग के साथ)

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