पुस्तक समीक्षा: 'संघम् शरणम् गच्छामि- आरएसएस के सफर का एक ईमानादार दस्तावेज़'

आरएसएस 1925 में अपने स्थापना वर्ष से ही लगातार कई गंभीर सवालों के घेरे में रहा है. करीब सौ साल होने को आए, क्या अब संघ बदल रहा है?

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इस किताब के माध्यम से विजय हमें बताते हैं कि कैसे, संघ यह मानता है कि, परिवर्तन ही स्थायी है. अब ज़िन्दगी का शायद ही कोई पहलू हो जिसे संघ नहीं छूता. बदलते वक़्त के साथ संघ ने सिर्फ़ अपना गणवेश ही नहीं बदला, नज़रिए को भी व्यापक बनाया है. और शायद यही कारण है कि, तीन-तीन बार सरकार के प्रतिबंधों के बाद भी उसे ख़त्म नहीं किया जा सका, बल्कि उसका सतत विस्तार हुआ.

इक्कीसवीं सदी में देश के साथ-साथ आरएसएस भी बदल रहा है. संघ संस्कृति और परपंराओं को आगे बढ़ाने के साथ आधुनिक और मौजूदा वक्त की जरूरतों के हिसाब से बदलने की बात करता है. संगठन के तौर पर भी उसमें ऐसे ही बदलाव होते रहते हैं.

इस किताब में तथ्यों के साथ, लेखक हमें अवगत करवाते हैं कि कैसे आरएसएस में बदलाव को चुनौती की तरह लेने का हिम्मत भरा काम सबसे पहले तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने किया था. अब आरएसएस को एक रहस्यमयी संगठन नहीं कहा जा सकता है, उसने अपने दरवाज़े खोले हैं, ज़्यादा पारदर्शी और जवाबदेह हो गया है. संघ अब अपने विरोधियों को तो स्पष्ट तौर पर जवाब देता ही है, अपने कार्यक्रमों और विचारों को भी सार्वजनिक तौर पर रखने में उसे हिचकिचाहट नहीं होती.

इसी क्रम में विजय हमें बताते हैं कि, कैसे संघ ने समाज के बदलावों को समझा है और उनके साथ चलने की कोशिश की है. जो लोग संघ को पुरातनपंथी संगठन समझते हैं उन्होंने उसके सफ़र और बदलावों को गहराई से समझने का प्रयास नहीं किया है. समय के साथ यहां तक कि समाज में परिवार के स्तर और सामाजिक स्तर पर हुए बदलावों को संघ ने स्वीकार किया है.

विजय त्रिवेदी ने बहुत स्पष्टता के साथ आरएसएस की कार्यशैली में आये बदलावों को हमारे सामने रखा है.

संघ औरत और पुरुष को परिवार में बराबरी के हक के पक्ष में है और महिलाओं के योगदान को कम नहीं आंकता. संघ पारिवारिक हिंसा और महिला भ्रूण हत्या के खिलाफ है.

संघ अंतरजातीय विवाहों के पक्ष में है लेकिन फिलहाल ‘लिव–इन-रिलेशनशिप’ के विरोध में खड़ा दिखाई देता है.

ट्रांसजेंडर यानी किन्नरों के साथ सामाजिक भेदभाव के खिलाफ है.

अब संघ ने नया कार्यक्रम पर्यावरण और जल संकट को लेकर शुरू किया है, इस वक्त संघ के प्रमुख एजेंडे में ग्राम विकास है.

आरएसएस ने परिवारों में होते बदलावों, तेज़ी से बढ़ती तलाक दर, परेशानियों, टूटते परिवारों की समस्या को भी उसने समझा है. इक्कीसवीं सदी के हिसाब से आरएसएस ने ना केवल खुद के स्वरूप को बदला है बल्कि अपने कार्यक्रमों और मुद्दों के फोकस में भी बदलाव किया है. लेखक अपने भाषा शिल्प और पत्रकरिता के अनुभव से बताते हैं कि, किस प्रकार से आरएसएस ने पिछले 25 सालों में अपने सहयोगी संगठनों के विस्तार पर काम किया, साथ ही कोशिश की है कि इन संगठनों का काम ना केवल सामाजिक कार्य और सेवा हो बल्कि उनका असर सरकारों के नीतिगत फैसलों पर भी पड़े और सरकारें इसके लिए ज़रूरी बदलाव करें. हर संगठन अपने क्षेत्र के काम के लिए राज्य सरकारों और केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहता है. इस प्रकार का विकास, भारत के वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना सही है, यह एक अलग विमर्श का विषय है.

लेखक विजय त्रिवेदी ने इस किताब में संघ की यात्रा के माध्यम से वह भारतीय राजनीति के कुछ अनकहे क़िस्सों की परतें भी उघाड़ते हैं. संघ के लगभग सभी पहलुओं को छूने वाली यह किताब न सिर्फ़ अतीत का दस्तावेज़ है, बल्कि भविष्य का संकेत भी है.

संघम् शरणम् गच्छामि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कई मायनों में एक संपूर्ण किताब है जो उसके समर्थकों के साथ-साथ उसके आलोचकों को भी पढ़नी चाहिए, क्योंकि हकीकत यह है कि आप संघ को पसंद कर सकते हैं या फिर नापसंद, लेकिन उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है.

प्रकाशक : वेस्टलैंड एका

भाषा : हिंदी

पृष्ठ : 437

मूल्य : 599

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इक्कीसवीं सदी में देश के साथ-साथ आरएसएस भी बदल रहा है. संघ संस्कृति और परपंराओं को आगे बढ़ाने के साथ आधुनिक और मौजूदा वक्त की जरूरतों के हिसाब से बदलने की बात करता है. संगठन के तौर पर भी उसमें ऐसे ही बदलाव होते रहते हैं.

इस किताब में तथ्यों के साथ, लेखक हमें अवगत करवाते हैं कि कैसे आरएसएस में बदलाव को चुनौती की तरह लेने का हिम्मत भरा काम सबसे पहले तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने किया था. अब आरएसएस को एक रहस्यमयी संगठन नहीं कहा जा सकता है, उसने अपने दरवाज़े खोले हैं, ज़्यादा पारदर्शी और जवाबदेह हो गया है. संघ अब अपने विरोधियों को तो स्पष्ट तौर पर जवाब देता ही है, अपने कार्यक्रमों और विचारों को भी सार्वजनिक तौर पर रखने में उसे हिचकिचाहट नहीं होती.

इसी क्रम में विजय हमें बताते हैं कि, कैसे संघ ने समाज के बदलावों को समझा है और उनके साथ चलने की कोशिश की है. जो लोग संघ को पुरातनपंथी संगठन समझते हैं उन्होंने उसके सफ़र और बदलावों को गहराई से समझने का प्रयास नहीं किया है. समय के साथ यहां तक कि समाज में परिवार के स्तर और सामाजिक स्तर पर हुए बदलावों को संघ ने स्वीकार किया है.

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आरएसएस ने परिवारों में होते बदलावों, तेज़ी से बढ़ती तलाक दर, परेशानियों, टूटते परिवारों की समस्या को भी उसने समझा है. इक्कीसवीं सदी के हिसाब से आरएसएस ने ना केवल खुद के स्वरूप को बदला है बल्कि अपने कार्यक्रमों और मुद्दों के फोकस में भी बदलाव किया है. लेखक अपने भाषा शिल्प और पत्रकरिता के अनुभव से बताते हैं कि, किस प्रकार से आरएसएस ने पिछले 25 सालों में अपने सहयोगी संगठनों के विस्तार पर काम किया, साथ ही कोशिश की है कि इन संगठनों का काम ना केवल सामाजिक कार्य और सेवा हो बल्कि उनका असर सरकारों के नीतिगत फैसलों पर भी पड़े और सरकारें इसके लिए ज़रूरी बदलाव करें. हर संगठन अपने क्षेत्र के काम के लिए राज्य सरकारों और केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहता है. इस प्रकार का विकास, भारत के वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना सही है, यह एक अलग विमर्श का विषय है.

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