क्या प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा वैक्सीन नीति बदलने के पीछे दी गई वजहें मान्य हैं?

यह 'यू-टर्न' स्वागत योग्य है, लेकिन संकट को एक नौटंकी में बदलकर प्रधानमंत्री ने वैक्सीन नीति के गड़बड़ होने की पुष्टि ही की है.

WrittenBy:जॉमी एन राव
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मोदी सरकार की हर चीज को खुद ही मैनेज करने की वजह से आलोचना हुई थी. यह सही है कि राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभागों ने लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने के तरीकों को अपनाने के लिए अधिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता की मांग की थी. उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव पीके मिश्रा के अनुसार, महाराष्ट्र ने यह इच्छा प्रकट की थी कि वे अपने नागरिकों के एक भाग को घर-घर जाकर वैक्सीन देना चाहते थे, लेकिन केंद्र सरकार इसके पक्ष में नहीं थी. कोविन एप पर आधारित वैक्सीन के पंजीकरण पर जोर देना अभी एक विवाद का कारण था लेकिन मोदी सरकार अपने मोबाइल एप पर आधारित तकनीकी युक्तियों के चाव की वजह से अड़ी रही.

इसलिए प्रधानमंत्री का, इन शिकायतों को राज्यों की तरफ से अपने सीमित बजट को वैक्सीन खरीदने में इस्तेमाल करने की मांग के रूप में पेश करना किसी कपट से कम नहीं था.

अगर हम यह भी मान लें कि राज्य और केंद्र शासित प्रदेश खुद आगे बढ़कर वैक्सीन खरीदने के लिए उतावले थे भले ही उनके पास उसके लिए आर्थिक संसाधन हों या न हों, प्रश्न तब भी यही उठता है कि मोदी सरकार ने उनकी इन मांगों को क्यों माना? खासतौर पर जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और प्रधानमंत्री की आपस में सहमति नहीं थी. क्या केंद्र सरकार ने इस प्रश्न को नीति आयोग के पास या कोविड वैक्सीन लगाने पर राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह जिसकी अध्यक्षता वीके पॉल कर रहे हैं, के पास भेजा? आखिरकार बीपी अगस्त 2020 में इस कमेटी का यह स्पष्ट रूप से मत था कि वैक्सीन खरीदने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की ही रहनी चाहिए. इतना ही नहीं, कमेटी ने "सभी राज्यों को वैक्सीन खरीदने के अलग-अलग रास्ते न लेने की सलाह दी थी."

एक सवाल जिसका कोई जवाब देना नहीं चाहता, क्या इस कमेटी ने अगस्त 2020 और अप्रैल 2021 के बीच वैक्सीन की इस दोहरी खरीद पर अपनी राय बदल दी थी, जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने अप्रैल में की. इस समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे सरकार वैक्सीन नीति में हुई गड़बड़ियों का दोष किसी पर मढ़ने में विफल हो रही है.

इसके साथ साथ, प्रधानमंत्री ने 5 से 6 दशकों की पिछली सरकारों को कोई काम ठीक से न करने के पैंतरे का भी इस्तेमाल किया. कोई भी अच्छा सलाहकार उन्हें अपने संदेश में इसे शामिल करने से रोक देता क्योंकि कोरोनावायरस महामारी पूरी तरह से 2020 की समस्या थी और ऐसा करने से उनकी व्याकुलता स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी. (क्या यहां खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे इस्तेमाल हो सकता है?)

उनके द्वारा अपने संदेश में कही गई एक बात की सत्यता को परखना बहुत ज़रूरी है. उन्होंने कहा कि अधिकतर वैक्सीन कार्यक्रमों में साल 2014 तक कवरेज 60 प्रतिशत तक ही था, जो उनके दावे के अनुसार उनके सरकार में आने के समय एक बड़ा चिंता का विषय था. उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन्होंने 2014 के पहले की गति से काम किया होता तो इसे बढ़ाने में 40 साल और लग जाते. उन्होंने दावा किया कि इसीलिए उनकी सरकार ने इस कवरेज को 90 प्रतिशत तक लाने के लिए मिशन इंद्रधनुष शुरू किया था.

इसे नम्रता से भी कहने का कोई और तरीका नहीं है लेकिन यह बात सरासर गलत है. अगर उनके भाषण की स्क्रिप्ट को पहले सरकार के अंदर भी जारी कर दिया जाता तो स्वास्थ्य मंत्रालय के ज्ञाता इस तथ्यात्मक भूल को सही कर देते.

जून 2016 में विश्व स्वास्थ्य संस्था के बुलेटिन के अंदर प्रकाशित, भारतीय डब्ल्यूएचओ और दिल्ली में कार्यरत यूनिसेफ के अधिकारियों तथा स्वास्थ्य मंत्रालय के एक सिविल सर्वेंट के द्वारा लिखे गए एक पेपर के अनुसार, "1999 से 2013 के बीच, अनुमानित राष्ट्रीय कवरेज धीरे धीरे बढ़ता रहा. बीसीजी वैक्सीन का 74% से 91%, डीपीटी-1 वैक्सीन का 74% से 90% और डीपीटी-3 वैक्सीन का 59% से 83%, मुंह के रास्ते दी जाने वाली पोलियो वैक्सीन का 57% से 82% और खसरा के लिए वैक्सीन की पहली खुराक का 56% से 83%."

और वैसे भी, पिछले कई दशकों में भारत का अपनी जनसंख्या को अलग-अलग वैक्सीन देकर शरीर में प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाने का प्रदर्शन कैसा रहा, इसका हमारे सामने खड़ी कोविड वैक्सीन की समस्या से कोई लेना देना नहीं है. न ही यह इस प्रकार के किसी भी वाद विवाद को शुरू करने का सही समय था. अधिक से अधिक, एक संकीर्ण व दलगत दृष्टिकोण से यह बात घुमाने का एक तरीका था, जिसमें आप यह कह रहे हैं कि दूसरी राजनीतिक विचारधाराओं की पिछली सरकारें भी वैक्सीनेशन के कार्यक्रमों में सफल नहीं रही थीं.

चाहे जो भी हो, प्रधानमंत्री के व्यापक वैक्सीनेशन को लेकर एक वार्ता की तरफ जाना यह प्रदर्शित करता है कि प्रधानमंत्री कवरेज रेट के सिद्धांत को समझते हैं और वैक्सीनेशन के लिए जनसंख्या के अनुपात में लक्ष्य रखने की महत्ता का उन्हें ज्ञान है. लेकिन "वह दो वैक्सीन जिन्हें राष्ट्र ने एक साल में ही लांच कर दिया था", इसके संदर्भ में देश के प्रदर्शन की बात करते हुए वह फिर से अपने पुराने ढर्रे, अब तक दी गई 23 करोड़ खुराक़ों पर बार-बार ज़ोर दिए जाने पर लौट आए. देखने में यह संख्या चाहे कितनी भी बड़ी दिखाई दे, लेकिन भारत की जनसंख्या के अनुपात में यह केवल 6% वयस्कों को वैक्सीन की दोनों खुराक और 17.5% के लिए केवल पहली खुराक मात्र है.

यह नीतिगत परिवर्तन सही दिशा की तरफ एक स्वागत पूर्ण कदम है लेकिन संकट को एक नौटंकी में बदलकर, मोदी सरकार ने वैक्सीन नीति के गड़बड़ियां होने के संदेहों की पुष्टि ही की है.

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