आखिर ऐसा क्यों है कि तालिबान पर सरकार कर कुछ और रही है और जनता को अखबार बता कुछ और रहे हैं?
तालिबान एक्सपर्ट मतलब कौन?
अकेले शेखर गुप्ता तालिबान एक्सपर्ट नहीं हैं, मोतियों की लंबी अनाम सी माला है. आइए, बड़े अखबारों के लेखकों का चेहरा देख लें एक बार, बात और साफ होगी. अव्वल तो भारतीय जनता पार्टी के नेता, प्रवक्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग तालिबान के एक्सपर्ट हैं. उसके बाद बारी आती है विदेश सेवा से जुडे अधिकारियों और फौजियों की. फिर आते हैं कुछ छुटभैया लेखक जिन्हें तालिबान के बहाने विषवमन का थोड़ा मौका मिला है. ये लेखक सरोगेट विज्ञापन करते हैं. तालिबान का नाम लेकर मुसलमान और इस्लाम पर लेख लिखते हैं. मसलन, अवधेश कुमार आजकल अफगान एक्सपर्ट बन गए हैं. मौसम ही ऐसा है!
अगस्त के आखिरी दिन का नवभारत टाइम्स देखिए- कोई नहीं मिला तो सीधे भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी को ही छाप दिया गया. नवभारत टाइम्स को मोटे तौर पर न्यूट्रल माना जाता है. जब न्यूट्रल दाएं भाग गया, तो बाकी का क्या कहना.
दैनिक जागरण रोज तीन-चार लेख तालिबान पर छाप रहा है. इसको मुखौटे की जरूरत नहीं, ये सीधे संघ के नेताओं को छापता है. संघ के नेता कैरमबोर्ड खेलने में माहिर हैं. अफगानिस्तान के स्ट्राइकर से केरल में वामपंथ का शिकार करते हैं. तस्वीर देखिए, 20 अगस्त को जागरण के संपादकीय पन्ने की है.
क्या आपको जिज्ञासा है कि संघ और भाजपा के अलावा बाकी लोग क्या लिख रहे हैं? एक व्यंग्यकार हैं आलोक पुराणिक, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ पढ़ाते भी हैं. लंबे समय से लोग उन्हें व्यंग्यकार के रूप में जान रहे हैं. उन्होंने 24 अगस्त को दैनिक ट्रिब्यून में 'उलटबांसी' के नाम से जो लिखा है, उसे व्यंग्य किस पैमाने पर कहा जाएगा ये आप खुद तय करें.
आलोक पुराणिक इतना उम्दा व्यंग्य लिखते हैं कि इन्हें हिंदुस्तान भी छापता है. चुपके से इन्होंने मुनव्वर राणा पर चुटकी ली है और अंत में लिखा है कि शायर और तालिबान नेता ने मिलकर पत्रकार को पीट दिया.
लेखों से लेकर व्यंग्य तक, विदेश सेवा के पूर्व अधिकारियों से लेकर नेताओं और लेखकों तक, तालिबान पर सबकी भाषा एक है. जरूरी नहीं कि सीधे भाजपा और संघ के नेता ही छपें, जो छप रहा है उन्हीं के श्रीमुख से निकला हुआ लग रहा है. 20 करोड़ लोग रोज अलग-अलग अखबारों में भाजपा और संघ की वैचारिक लाइन पढ़कर ये समझ रहे हैं कि सरकार और अखबार सब के सब तालिबान के घोर खिलाफ हैं. इससे एक धारणा बन रही है जिसमें तालिबान, इस्लाम, मुसलमान सबका घोर-मट्ठा बन गया है.
असली उलटबांसी
ऐसे में हमारी सरकार क्या कर रही है? ये समझने के लिए खोज कर डॉ. वेदप्रताप वैदिक के लेख पढ़ लीजिए- खोजकर इसलिए क्योंकि बीते पांच दशक से अफगानिस्तान पर निजी रिश्ते और प्रामाणिक जानकारी रखने वाला यह दक्षिणपंथी विद्वान आजकल अखबारों के लिए अछूत हो गया है. केवल दैनिक भास्कर में डॉ. वैदिक का लेख दिखा, और किसी बड़े अखबार में नहीं. वजह? वैदिक लगातार पहले दिन से भारत सरकार की सुस्ती और अमेरिकापरस्ती की आलोचना कर रहे हैं. यह बात जनता तक नहीं पहुंचने देनी है, इसलिए वैदिक को अब अखबार नहीं छाप रहे.
दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पूर्व राजनयिकों के साथ डॉ. वैदिक की एक पैनल परिचर्चा थी बीते दिनों, जिसमें उन्होंने बहुत तफ़सील से पूरा मामला समझाते हुए बताया था कि तालिबान से भारत सरकार को क्यों बात करनी चाहिए. इस वीडियो को आप चाहें तो नीचे देखकर खुद मामला समझ सकते हैं.
असली उलटबांसी यह है कि काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमले पर तालिबान को अमेरिका ने बिल्कुल निर्दोष बताया तो अब भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के नाते जो बयान जारी किया है, उसमें आतंकवाद का विरोध तो किया गया है लेकिन उस विरोध में तालिबान शब्द कहीं भी नहीं आने दिया है जबकि 15 अगस्त के बाद जो पहला बयान था, उसमें तालिबान शब्द का उल्लेख था.
सवाल है कि 20 करोड़ लोगों को तालिबान पर रोज टनों अक्षर पढ़वाने वाले अखबारों ने क्या यह सूचना उन्हें दी? बीबीसी हिंदी और एकाध वेबसाइटों को छोड़ दें, तो अखबारों में अकेले हिंदुस्तान ने हेडिंग में लिखा है कि भारत ने बतौर अध्यक्ष 'तालिबान' का नाम बयान में से हटा दिया है, बाकी सबने 'सकारात्मक' हेडिंग दी है कि अफगानिस्तान पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से जारी प्रस्ताव में भारत की चिंताओं को शामिल किया गया है.
20 करोड़ का सवाल
आखिर ऐसा क्यों है कि तालिबान पर सरकार कर कुछ और रही है और जनता को अखबार बता कुछ और रहे हैं? याद कीजिए 2019 के लोकसभा चुनावों के अंतिम परिणामों का आंकड़ा- भारतीय जनता पार्टी को कुल मिले वोटों की संख्या थी 229,076,879 जो कुल पड़े वैध वोटों का 37.36 प्रतिशत है जिससे लोकसभा में उसे 303 सीटें आयी थीं. दूसरे स्थान पर रही कांग्रेस पार्टी को 11 करोड़ के आसपास वोट मिले थे जो साढ़े 19 प्रतिशत के आसपास थे. यानी भाजपा को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए सवा अरब लोगों के इस देश में केवल बीसेक करोड़ वोटों की ही जरूरत है!
अब इतने वोटर तो अकेले हिंदी पट्टी में ही हैं जो हिंदी के अखबार पढ़ते हैं! संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हमारी 'अध्यक्ष' सरकार कुछ भी करती रहे, अखबार 20 करोड़ पाठकों को वही बताएंगे जो सरकार चलाने वालों के लिए फायदेमंद होगा. ये है अखबारों के तालिबान प्रेम का असली सूत्र! ऐसे में भारत सरकार उर्फ भाजपा उर्फ आरएसएस के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई शर्मिंदगी या हार भी हाथ लगी, तो उसे अपने घर में कोई फर्क नहीं पड़ता है. फिसल गए तो हर हर गंगे जैसा मामला है! अब 20 करोड़ की गिनती गिनिए और चैन से सोचिए कि असली 'किस्मतवाला' कौन है?
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