मध्यप्रदेश के किसानों के लिए काला सोना नहीं रहा सोयाबीन, कौन है जिम्मेवार

सबसे अधिक सोयाबीन की फसल मध्यप्रदेश में उगाई जाती है, बावजूद इसके सोयाबीन उगाने वाले किसान लगातार घाटे में जा रहे हैं.

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बीज निगम के आंकड़े सिरोही की बात को पुष्टि भी करते हैं. बीज निगम बीज उत्पादन कार्यक्रम के तहत प्रदेश के 4500 किसानों को बीज वितरित करता है और उन्हें बाजार भाव से ज्यादा दरों पर खरीदता भी है, इसके बाद उसे प्रोसेस और टैगिंग करके दोबारा वितरित किया जाता है.

निगम के अपने भी 42 फार्म हैं जहां उत्पादन किया जाता है. निगम की वेबसाइट पर प्रमाणित आधार बीज वितरण में मार्केटिंग के जो आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं उनके अनुसार 2015 में जहां 86295 क्विंटल सोयाबीन बीज का वितरण किया गया था जो घटकर 2020 में 15341.45 प्रति क्विंटल ही रह गया.

खरीफ सीजन की कुल फसलों में जिनमें धान, मक्का, ज्वार, उड़द, मूंग, अरहर, सोयाबीन आदि शामिल है, उसका कुल बीज वितरण 93923 क्विंटल से घटकर 25239 क्विंटल पर आ गया, जबकि इसी अवधि में रवी सीजन की फसलों के लिए बीज वितरण में केवल 1214 क्विंटल की मामूली कमी हुई. इससे साफ जाहिर होता है कि सोयाबीन के बीज वितरण में सबसे ज्यादा कटौती हुई है.

रकबा बढ़ा, उत्पादन घटा

मप्र के आर्थिक सर्वेक्षण में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं- "पिछले सालों की अपेक्षा सोयाबीन क्षेत्र का रकबा 14 प्रतिशत तक बढ़ा है. हालांकि इससे उत्पादन नहीं बढ़ा, मप्र में पिछले साल कुल तिलहन फसलों के उत्पादन में 27 प्रतिशत की कमी आई है जबकि सोयाबीन के कुल उत्पादन में पिछले साल की तुलना में 33.62 प्रतिशत की कमी आई है."

इसका एक कारण खराब मौसम भी है. प्रोफेसर कश्मीर सिंह उप्पल कहते हैं, "बेमौसम भारी बारिश या अतिवृष्टि इसमें लगातार घाटा हुआ है और लोग इससे दूर हो रहे हैं. फसल बीमा के आंकड़ों को देखें तो यह बात सही भी लगती है. वर्ष 2020 में जहां रबी फसल में 8.95 लाख किसानों को फसल बीमा मिला, जबकि खरीफ के सीजन में 95 लाख किसानों ने फसल खराब होने का दावा प्रस्तुत कर बीमा लिया है. हालांकि बीमा की राशि नुकसान की तुलना में काफी कम है."

बाबूलाल दहिया बताते हैं, "सोयाबीन पूर्णतः व्यावसायिक फसल है जिसका किसान के घर में कोई उपयोग नहीं है. इसकी खेती में हल, बैल, गाय, गोबर, हलवाहा, श्रमिक किसी का कोई स्थान नहीं है. पूरा पूंजी का खेल है. पहले मंहगे दामों पर बीज फिर रासायनिक उर्वरक फिर जुताई में डीजल य किराए के रूप में नगदी खर्च. फिर कीटनाशक और नींदानाशक में नगद खर्च. फिर कटाई में भी भारी खर्च होता है इससे यह एक भस्मासुर जैसी फसल बन गई है."

(डाउन टू अर्थ से साभार)

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