पेगासस स्पाइवेयर: इस जासूसी ने हमारे वजूद का अंतरंग चौराहे पर ला दिया है

भारत में मौतों का मनहूस मौसम बड़ी तेज़ी से जासूसी के मौसम में बदलता हुआ दिखायी दे रहा है.

WrittenBy:अरुंधति रॉय
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इधर कुछ वर्षों में हम उस मनहूस सीमा के विद्वान हो गये हैं जहां तक मोदी सरकार उन लोगों को फंसाने के लिए जा सकती है जिन्हें यह दुश्मन मानती है– और यह महज खुफिया निगरानी से बढ़ कर है. द वाशिंगटन पोस्ट ने हाल में मैसाच्युसेट्स की एक डिजिटल फोरेंसिक कंपनी आर्सेनल कन्सल्टिंग की एक रिपोर्ट के नतीजे प्रकाशित किये, जिसने दो बीके आरोपितों रोना विल्सन और सुरेंद्र गडलिंग के कंप्यूटरों की इलेक्ट्रॉनिक प्रतियों की जांच की है. जांच करने वालों ने पाया कि उनके दोनों कंप्यूटरों में एक अज्ञात हैकर ने घुसपैठ की थी और उनकी हार्ड ड्राइव के हिडेन (छुपे हुए) फोल्डरों में उन्हें फंसाने वाले दस्तावेज़ रख दिये थे. सनसनी बढ़ाने के लिए उनमें एक बेतुकी चिट्ठी मोदी की हत्या करने की एक नीरस साजिश के बारे में थी.

आर्सेनल रिपोर्ट के गंभीर संकेतों से भारतीय न्यायपालिका या इसके मुख्यधारा के मीडिया में इंसाफ के मकसद से कोई हलचल नहीं मची है. हुआ इसका उलटा ही है. जिस वक्त इसकी लीपापोती की भारी कोशिशें हो रही थीं और वे रिपोर्ट के संभावित नुकसानों को सीमित करने में लगे थे, बीके आरोपितों में से एक, 84 साल के एक जेसुइट पादरी फादर स्टेन स्वामी की जेल में कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बाद तकलीफदेह मौत हो गयी. इस शख्स ने झारखंड में जंगल में रहने वाले उन आदिवासी लोगों के बीच काम करते हुए अपनी जिंदगी के कई दशक गुजारे थे जो अपनी धरती पर कॉरपोरेट कंपनियों के कब्जे के खिलाफ लड़ रहे हैं. अपनी गिरफ्तारी के समय स्वामी को पार्किन्संस की बीमारी और कैंसर था.

तो हम पेगासस को कैसे समझें? हकीकत से आंखें मूंदते हुए इसको खारिज कर दें, कह दें कि शासक अपने शासितों की निगरानी करने के लिए जो सदियों पुराना खेल चलाते आए हैं, यह उसका महज एक नया तकनीकी हथकंडा है? ऐसा करना एक गंभीर गलती होगी. यह कोई मामूली खुफिया निगरानी नहीं है. हमारे मोबाइल फोन हमारे सबसे अंतरंग वजूद में शामिल हैं. वे हमारे दिमाग और हमारे शरीर का विस्तार हैं. भारत में मोबाइल फोन की गैर-कानूनी निगरानी नयी बात नहीं है. हरेक कश्मीरी को यह पता है. ज्यादातर भारतीय एक्टिविस्ट भी यह जानते हैं, लेकिन हमारे लिए सरकारों और कॉरपोरेट कंपनियों को इस बात का कानूनी अधिकार दे देना कि वे हमारे फोन में घुसपैठ करें और उस पर कब्जा कर लें, ऐसा ही होगा मानो हम अपनी मर्यादा का हनन करने के लिए खुद को उनके हाथों में सौंप दें.

पेगासस प्रोजेक्ट से उजागर होने वाली बातें दिखाती हैं कि इस स्पाइवेयर का संभावित खतरा पुरानी किसी भी किस्म की खुफियागीरी या निगरानी से कहीं अधिक आक्रामक है. यह गूगल, अमेजन और फेसबुक के अलगोरिद्म्स से भी अधिक आक्रामक है जिनके ताने-बाने के भीतर करोड़ों लोग अपनी जिंदगियां जी रहे हैं और अपनी चाहतों से खेल रहे हैं. यह अपनी जेब में एक जासूस लिए फिरने से भी बड़ी बात है. यह मानो ऐसा है कि आपका सबसे प्रियतम– या उससे भी बदतर, आपका अपना दिमाग, अपने दुरूह कोनों तक में आपकी खुफियागीरी कर रहा हो.

पेगासस जैसे स्पाइवेयर न सिर्फ हरेक संक्रमित फोन के उपयोगकर्ता को, बल्कि उसके दोस्तों, परिवारवालों, सहकर्मियों के पूरे दायरे को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जोखिम में डालते हैं.

जनता की व्यापक निगरानी के बारे में सबसे ज्यादा और सबसे गहराई से शायद एडवर्ड स्नोडेन से सोचा है, जो संयुक्त राज्य की नेशनल सि‍क्योरिटी एजेंसी के पूर्व एनालिस्ट और आलोचक हैं. गार्डियन के साथ एक हालिया इंटरव्यू में उन्होंने चेतावनी दी, “अगर आप इस तकनीक की बिक्री को रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं तो यह सिर्फ 50,000 लक्ष्‍यों तक सीमित नहीं रहेगी. यह पांच करोड़ हो जाएगी और यह हमारे अंदेशों से कहीं अधिक जल्दी होने वाला है.” हमें उनको सुनना चाहिए. वे इसके भीतर थे और उन्होंने इसको आते हुए देखा है.

स्नोडेन से मैं करीब सात साल पहले दिसंबर 2014 में मॉस्को में मिली थी. उन्हें बगावत किये हुए करीब डेढ़ साल हुए थे और उन्‍हें अपनी सरकार द्वारा अपने ही नागरिकों की अंधाधुंध व्यापक निगरानी से नफरत थी. मई 2013 में वे बाल-बाल बच निकले थे और एक फरार शख्स की ज़िंदगी के धीरे-धीरे आदी होने लगे थे. डैनियल एल्सबर्ग (पेंटागन पेपर्स वाले), जॉन क्यूज़ैक (जॉन क्यूज़ैक वाले) और मैं उनसे मिलने के लिए मॉस्को गये थे. तीन दिनों तक हम खिड़कियों पर दबिश देती रूस की बर्फीली सर्दी के बीच अपने होटल के कमरे में बंद रहे और निगरानी व खुफियागीरी पर बातें करते रहे थे. यह किस हद तक जाएगा? यह हमें कहां ले जाएगा? हम क्या बन जाएंगे?

जब पेगासस प्रोजेक्ट की खबरें आने लगीं तो मैं वापस अपनी रिकॉर्डेड बातचीत के ट्रांस्क्रिप्ट पढ़ने लगी. यह कुछ सौ पन्नों में है. अंत में मेरे रोंगटे खड़े हो गये. तब महज अपने 30वें साल में रहे स्नोडेन एक सख्त पैगंबर की तरह बोल रहे थे, “तकनीक वापस नहीं ली जा सकती है, तकनीक तो बनी रहेगी… यह सस्ती होने वाली है, यह अधिक कारगर होने वाली है, यह और अधिक उपलब्ध होने वाली है. अगर हम कुछ नहीं करते, तो एक तरह से हम सोते-सोते एक मुकम्मल निगरानी वाले राज्य में पहुंच जाएंगे जहां एक सुपर स्टेट होगा जिसके पास ताकत का उपयोग करने की अथाह क्षमता होगी और जानने और [इसलिए] उस [ताकत को] निशाने पर लगाने की अथाह क्षमता होगी– और यह एक बहुत खतरनाक मिश्रण है… भविष्य की यह दिशा है.”

दूसरे शब्दों में, हम एक ऐसी दिशा में बढ़ रहे हैं जहां हम पर ऐसे राज्यों का शासन होगा जो हर वह बात जानते हैं जो लोगों के बारे में जानी जा सकती है, लेकिन उन राज्यों के बारे में जनता बहुत कम जानती है. यह असंतुलन सिर्फ एक ही दिशा में ले जा सकता है. एक असाध्य जानलेवा हुक्मरानी. और लोकतंत्र का अंत.

स्नोडेन सही हैं. तकनीक को वापस नहीं लिया जा सकता, लेकिन इसको अनियंत्रित, कानूनी उद्योग के रूप में काम करने की इजाजत देने की जरूरत नहीं है, जो मुक्त बाजार के हलचल भरे महाद्वीपों में पसरे हुए राजमार्गों पर भागते हुए फले-फूले और मुनाफा बटोरे. इस पर कानून की लगाम कसने की जरूरत है. इसको काबू में करना है. तकनीक रह सकती है, लेकिन उद्योग के रहने की जरूरत नहीं है.

तो हम आज कहां हैं? मैं कहूंगी, उसी जानी-पहचानी पुरानी राजनीति की दुनिया में. इस खतरे को सिर्फ राजनीतिक कार्रवाई ही रोक सकती है, उसका नुकसान कम कर सकती है क्योंकि यह तकनीक जब भी उपयोग में लायी जाती है (चाहे कानूनी या गैर-कानूनी तरीके से), वह हमेशा एक जटिल दुष्चक्र में बनी रहेगी जो आज हमारे समय की पहचान है: राष्ट्रवाद, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नस्लवाद, जातिवाद, सेक्सिज्‍म. चाहे यह तकनीक कैसे भी विकसित होती है- यह हमारी लड़ाई का मैदान बनी रहेगी.

हमें अपना बसेरा उठा कर एक ऐसी दुनिया में वापस जाना होगा जहां हम अपने सबसे अंतरंग दुश्मन अपने मोबाइल फोन के कब्जे में, उसके मातहत नहीं जी रहे होंगे. हमें डिजिटल निगरानी की दम घोंट देने वाली हुकूमत के बाहर अपनी जिंदगियों को, संघर्षों को और सामाजिक आंदोलनों को फिर से रचना होगा. हमें उन व्यवस्थाओं को सत्ता से बेदखल करना होगा जो हमारे खिलाफ इसकी तैनाती कर रही हैं. सत्ता की मूठ पर उनकी गिरफ्त को ढीला करने के लिए, उन्होंने जो कुछ तोड़ा उसे जोड़ने के लिए, और उन्होंने जो कुछ चुरा लिया है उसे वापस पाने के लिए हम जो भी कर सकते हैं वह हमें करना होगा.

(यह लेख अंग्रेजी में 27 जुलाई को The Guardian पर प्रकाशित हुआ है. अनुवाद: रेयाज़ुल हक़)

(साभार- जनपथ)

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