जब हिंदी सिनेमा में अभिनय को लेकर कोई सोच नहीं थी, तब दिलीप कुमार एक सोच लेकर आए थे.
मैंने उनसे स्पीच सीखी. ‘मुग़ले आज़म’, ’देवदास’ और ‘दिल दिया दर्द लिया’ हो. ‘दिल दिया दर्द लिया’ का खंडहर का दृश्य याद करें, इसमें जब वे नायिका से संवाद कर रहे हैं. मैं अपने साथी अभिनेताओं से कहूंगा कि इस दृश्य को जाकर देखें. अनेक सालों के बाद ‘मशाल’ का दृश्य याद करें, जब वे अपनी पत्नी की मदद के लिए आवाज़ दे रहे हैं. वह सीन दिलीप साब की वजह से इतना प्रभावकारी बना. उन्हें स्पीच की बेइंतहा समझ थी. इमोशन को स्पीच के जरिए दर्शकों तक पहुंचाना वे जानते थे. इधर ट्विटर पर कुछ फ़िल्मों के सीन लगाए थे उन्होंने. उन फ़िल्मों को देखिए.
वे पढ़ते बहुत थे. उनकी राजनीतिक-सामाजिक समझ थी. हमारे लिए वे प्रेरणा के स्रोत रहे हैं. अपने अभिनय पर वे लगातार काम करते रहे. ‘शक्ति’ देख लें. उनकी चुप्पी कैसे बोलती है. अभिनय के हर पहलू के वे उस्ताद रहे. वे कुशल डान्सर नहीं थे, लेकिन उनके मटकने में भी अभिनय था. थिएटर और फ़िल्मों में आने के बाद मैंने उन्हें समझना शुरू किया. उनसे सीखने की कोशिश की.
दिलीप कुमार को थिएटर के लोगों ने अधिक स्वीकार नहीं किया और फ़िल्मों के कलाकार उनकी बारीकी सीख नहीं सकते थे. यही वजह है कि उनके अभिनय का सही मूल्यांकन और अध्ययन नहीं हो पाया. मैं ज़ोर देकर कहूंगा कि सभी अभिनेताओं को उनकी फ़िल्में देखनी चाहिए. फ़िल्मों की एक्टिंग वह समझते थे कि कैमरे के आगे कैसे क्या करना चाहिए?
(अजय ब्रह्मात्मज की मनोज बाजपेयी से बातचीत पर आधारित)
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