वाशिंगटन में 6 जनवरी को अमेरिकी संसद पर हुए हमले के तुरंत बाद पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के ट्विटर और फ़ेसबुक अकाउंट निलंबित कर दिये गये थे.
सवाल यह खड़ा होने वाला है कि वर्तमान में अहिंसक और ‘साइलेंट’ प्रतिरोध के वाहक बने ये सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म्स अगर नागरिकों से छीन लिए जाएंगे अथवा उनकी धार को धीरे-धीरे भोथरा और उनकी गति को निकम्मा कर दिया जाएगा तो लोग व्यवस्था के प्रति अपने हस्तक्षेप को किस तरह और कहां दर्ज कराएंगे? चंद अपवादों को छोड़ दें तो मुख्यधारा के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस समय सरकारी बंदरगाह (गोदी) पर लंगर डालकर विश्राम कर रहा है. इसका एक जवाब यह हो सकता है कि आपातकाल से लड़ाई के समय न तो मोबाइल और सोशल मीडिया था और न ही निजी टीवी चैनल्स, फिर भी लड़ाई तो लड़ी गयी. यह बात अलग है कि उस लड़ाई में वे लोग भी प्रमुखता से शामिल थे जो कि आज सत्ता में हैं और सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्मों के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप की अगुवाई कर रहे हैं.
ट्रंप द्वारा अपना सोशल मीडिया प्लेटफार्म खड़ा करने की घोषणा न सिर्फ़ एकाधिकार प्राप्त कम्पनियों की सत्ता को चुनौती देने की कोशिश है, बल्कि भारत जैसे राष्ट्र के शासकों को भी इस दिशा में कुछ करने की प्रेरणा दे सकती है. इस तरह की कोई कोशिश चुपचाप हो भी रही हो तो अचम्भा नहीं.
वर्ष 2014 में मोदी को चुनाव प्रचार की तकनीक बराक ओबामा के सफल चुनाव प्रचार से ही मिली थी. तब ओबामा को दुनिया का पहला फ़ेसबुक राष्ट्रपति कहा गया था. टेक कम्पनियों की ताक़त का दूसरा पहलू यह है कि वे ट्रंप को सत्ता में वापस न आने देने के लिए भी अपना सारा ज़ोर लगा सकती हैं. अतः सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्मों को लेकर वर्तमान में जो तनाव हमारे यहां चल रहा है उससे टेक कम्पनियों की ताक़त और उसमें सरकारी हस्तक्षेप की ज़रूरत के गणित को समझा जा सकता है.
हमने अभी इस दिशा में सोचना भी शुरू नहीं किया है कि कोरोना का पहला टीका ही लगने का इंतज़ार कर रही करोड़ों की आबादी को जब तक दूसरा टीका लगेगा तब तक नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर क्या-क्या और कैसे-कैसे खेल हो चुके होंगे! जिस सोशल मीडिया का उपयोग हम अभी नशे की लत जैसा इफ़रात में कर रहे हैं वह अपनी मौजूदा सूरत में ज़िंदा रह पाएगा भी या नहीं, हमें अभी पता नहीं है. जनता जब तक सोचती है कि उसे अब कुछ सोचना चाहिए, तब तक सरकारें न सिर्फ़ अपना सोचना पूरा कर चुकती हैं बल्कि अपने सोचे गये पर अमल भी शुरू कर चुकी होती हैं.
(साभार- जनपथ)
General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?