'पक्ष'कारिता: निर्वस्‍त्र लाशों के लहलहाते खेत और नरसिम्हा राव का प्रेत

डेढ़ महीने में हमने अखबारी पत्रकारिता का उत्‍कर्ष देखा है. अखबारों ने अगर लाशें नहीं दिखायी होतीं तो सरकार को उन पर से चादर नहीं खींचनी पड़ती.

Article image
  • Share this article on whatsapp

दैनिक जागरण की ‘परंपरा’

इस संदर्भ में दैनिक जागरण का जिक्र अलग से किया जाना ज़रूरी है, जिसने लाशों को दफनाये जाने की ‘परंपरा’ का हवाला देते हुए उत्‍तर प्रदेश की सरकार को एक सुरक्षा कवच मुहैया करवा दिया और बिना कुछ सोचे-समझे मुख्‍यमंत्री कार्यालय ने जागरण की खबर को प्रमाण के रूप में न सिर्फ ट्वीट कर दिया, बल्कि केंद्र सरकार को दिये अपने स्‍पष्‍टीकरण में भी ‘परंपरा’ की ही दुहाई दी.

‘परंपरा’ का तर्क आते ही सारी बहस दो पाले में बंट गयी- एक वे थे जिन्‍होंने दावा किया कि ऐसी कोई परंपरा नहीं है और फेंकने या दफनाने से शवों का अपमान हुआ है; दूसरे वे थे जिनका कहना था कि मामला परंपरा का ही है. दोनों ओर अर्धसत्‍य था. दोनों ओर ऐसे दावों के पीछे की मंशा कुछ और रही. यह सच है कि न केवल जीवित परंपरा में बल्कि हिंदू धर्मग्रंथों में भी कुछ खास स्थितियों में शव को बहाने या दफनाने की बात कही गयी है. अंतिम संस्‍कार की विधियों में ऋग्‍वेद के श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र विभिन्न बातें कहते हैं और आगे चलकर मध्य एवं पश्चात्यकालीन युगों में ये विधियां और विस्तृत होती चली गयी हैं. निर्णयसिन्धु इस बारे में स्पष्ट कहता है कि अन्त्येष्टि हिंदू धर्म की प्रत्येक शाखा में भिन्न रूप से वर्णित है, लेकिन कुछ बातें सभी शाखाओं में एक-सी हैं.

"अन्त्य-कर्मों के विस्तार, अभाव एवं उपस्थिति के आधार पर सूत्रों, स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों के काल-क्रम-सम्बन्धी निष्कर्ष निकाले गये हैं, किन्तु ये निष्कर्ष बहुधा अनुमानों एवं वैयक्तिक भावनाओं पर ही आधारित हैं."

जाहिर है, परंपरा की दुहाई देकर व्‍यवस्‍था की विफलता को छुपा ले जाने की नाकाम कोशिश करने वाले दैनिक जागरण के मालिकान और सम्‍पादकों से लेकर उत्‍तर प्रदेश सरकार के कर्णधारों को धर्मग्रंथों के संदर्भ नहीं पता होंगे. धर्मग्रंथ तो छोडि़ए, बक्‍सर के एक सरकारी अधिकारी ने तो हिंदू धर्म में कुछ विशेष तबकों और श्रेणियों में लाशों को दफनाने की परंपरा को ही नकार दिया. बिलकुल यही बात उन लोगों पर लागू होती है जिन्‍होंने ‘परंपरा’ की अज्ञानता में संवेदना की दुहाई दी. फिर बात पुरानी तस्‍वीरों व वीडियो के सहारे अपना खूंटा गाड़ने तक आ गयी. दैनिक जागरण ने 2018 की एक तस्‍वीर बैनर बनाकर छाप दी और दावा किया कि तीन साल पहले भी घाटों पर लाशें ऐसे ही दफन थीं. दूसरे पाले में इसे फर्जी ठहराने की कवायद शुरू हो गयी. फिर मामला 2015 तक जा पहुंचा जब कुछ लाशें गंगा में दिखायी दी थीं और बीबीसी सहित कई मीडिया संस्‍थानों ने उसकी खबर चलायी थी. इस द्विभाजन के फेर में मौतों के आंकड़े में प्रशासन द्वारा की गयी हेराफेरी का मूल सवाल ही दब गया!

imageby :

मानवीय त्रासदी के इस भयावह अध्‍याय में दैनिक जागरण ने विशुद्ध परंपरा की आड़ लेकर जो सरकार समर्थक और मानवरोधी नैरेटिव सेट किया, उसके प्रतिपक्ष में किसी भी हिंदी अखबार ने एक अदद बुनियादी सवाल नहीं पूछा कि महामारी के पीक के तीन हफ्तों में ही जनता को थोकभाव में परंपरा की याद क्‍यों आयी. चूंकि बहस का असली सिरा छूट चुका था, तो बहसप्रेमी हमारा हिंदी समाज हज़ारों लाशों से उछल कर हफ्ते भर के भीतर एक और फेंके गये जाल में फंस गया- एलोपैथी बनाम आयुर्वेद. यहां भी बीच की ज़मीन गायब रही, जबकि दोनों ही पाले में मूल सवाल बाज़ार और व्‍यापारिक हितों पर उठना चाहिए था, पद्धति पर नहीं. उत्‍तर प्रदेश की सत्‍ता को बचाने के लिए लाशों को दबाने का दैनिक जागरण से शुरू हुआ यह खेल रामदेव से होता हुआ अब केंद्र सरकार की ढाल बन चुका है. चलते-चलते इस ढाल की कुछ छवियां भी देख लेते हैं.

राव की विरासत का सवाल

कोवैक्सिन बनाने वाली कंपनी भारत बायोटेक ने 11 मई को दिल्‍ली सरकार के प्रमुख सचिव को भेजे एक पत्र में टीके की आपूर्ति में असमर्थता जताते हुए लिखा था, "हम सम्‍बंधित सरकारी अधिकारियों के निर्देशों के हिसाब से वैक्‍सीन को डिसपैच कर रहे हैं, इसलिए आपके द्वारा मांगी गयी अतिरिक्‍त आपूर्ति करने में खेद जताते हैं."

imageby :

अब कुछ और तस्‍वीरें देखिए:

imageby :
imageby :
imageby :

सरकारी अस्‍पताल में वैक्‍सीन का स्‍टॉक खत्‍म है, पांचसितारा होटल वैक्‍सीन पर्यटन करवा रहे हैं. ये तस्‍वीरें पिछले कुछ दिनों से ट्विटर पर खूब घूम रही हैं. वैक्सिनेशन घोटाला ट्विटर पर ट्रेंड कर चुका है. दिल्‍ली की सरकार ने इसका आरोप केंद्र सरकार पर लगाया है. उसे भेजे गये भारत बायोटेक के पत्र में "सरकारी अधिकारियों के निर्देश" की जो बात कही गयी है, क्‍या उसका आशय यही है? क्‍या सरकारी अस्‍पतालों को टीके से महरूम रख के पांचसितारा होटलों में वैक्‍सीन भेजी जा रही है? हम नहीं जानते, लेकिन जिन्‍होंने ऐसा ही एक सवाल सरकार से पूछा था वे तत्‍काल जेल में डाल दिये गये. केंद्र सरकार को सबसे पहले सार्वजनिक रूप से कठघरे में खड़ा करने वाले दिल्‍ली की सड़कों पर लगे ये पोस्‍टर हम नहीं भूले हैं.

imageby :

सवाल परंपरा बनाम भ्रष्‍टाचार का है ही नहीं. लाशें लोगों ने परंपरावश भी फेंकी होंगी, मजबूरी के कारण भी, गरीबी के चलते भी, रोग के डर से भी. कई कारण हो सकते हैं. लाशें प्रशासन ने भी फिंकवायी हैं, अपनी काहिली और ठेकेदारी के चलते, जिसमें किसी काम के लिए कोई जिम्‍मेदार नहीं होता बल्कि ठेका ऊपर से नीचे बस हस्‍तांतरित कर दिया जाता है. प्रशासन ने फेंकी हुई लाशें जलवायी भी हैं. कोविड के पीक दौर में बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जिसे हम किसी एक कारण में नहीं बांध सकते. दो पालों में नहीं बांट सकते. अनगिनत कहानियां हैं, विडम्‍बनाएं हैं. इसी तरह एलोपैथी बनाम आयुर्वेद का सवाल भी हमारे लिए फेंका गया एक चारा है.

असल कहानी नरसिम्हा राव की छोड़ी विरासत को बेपर्द होने से बचाने में छुपी है. निजीकरण और उदारीकरण की वो विरासत, जो बीते तीन दशक में इस देश के घर-घर तक ऐसे जड़ जमा चुकी है कि जनस्‍वास्‍थ्‍य ढांचे से लेकर परंपरा और वैकल्‍पि‍क चिकित्‍सा पद्धतियों पर बात करने वाले को पिछड़ा ठहरा दिया जाता है; वो विरासत, जो जिंदगी से लेकर मौत तक को आउटसोर्स करने की व्‍यवस्‍था में हमारा यकीन जगाती है, भले ही जिंदगी खतरे में पड़ जाय और मौत बदनाम हो जाय; वो विरासत, जो मुनाफे के फेर में आदमी को आदमी के खिलाफ खड़ा करती है- जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी!

इसी बीच डेढ़ महीने में हमने अखबारी पत्रकारिता का उत्‍कर्ष देखा है. अखबारों ने अगर लाशें नहीं दिखायी होतीं तो सरकार को उन पर से चादर नहीं खींचनी पड़ती. ये सच है. दूसरा सच ये भी है कि हमारे अखबारों की हद ज्‍यादा से ज्‍यादा बंदों की गिनती तक जाती है क्‍योंकि अल्‍लामा इकबाल के लिहाज से वे जम्‍हूरियत नाम की तर्ज-ए-हुकूमत में कड़ा भरोसा रखते हैं, चाहे राजा कोई भी हो. वे हमें निजीकरण और उदारीकरण के सामाजिक-सांस्‍कृतिक खतरे और परिणाम कभी नहीं बताएंगे क्‍योंकि उनकी जीवनरेखा उसी पर टिकी है, भले इस देश के लोग चिता के लिए लकड़ी जुटाने में ही मर-खप जाएं. वैसे भी, जिस देश में एक राष्‍ट्राध्‍यक्ष की अधजली लाश पर कुत्‍ते मंडरा सकते हैं वहां आम आदमी की क्‍या बिसात?

Also see
article imageपहलवान सुशील कुमार: खेल के साथ खेल करने का अपराध
article imageमहामारी के दौर में वैज्ञानिक दृष्टिकोण
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like