सेकेंड वेव में दैनिक भास्कर: ‘जो दिख रहा है वह रिपोर्ट कर रहे हैं’

दैनिक भास्कर की रिपोर्टिंग में हाल के दिनों में आई आक्रामकता ने सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा है.

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उत्तर प्रदेश भास्कर के डिजिटल टीम में काम कर रहे विजय सिंह चौहान कहते हैं, “भास्कर हमेशा से ही सच्चाई के साथ रिपोर्ट करता है. हमारी रिपोर्टिंग जनता से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित होती है. इस समय कोविड महामारी से लोग मर रहे है, ऑक्सीजन नहीं मिल पा रहा है, मौतों को छुपाया जा रहा है. हम उसे ही कवर कर रहे है.”

उत्तर प्रदेश भास्कर की डिजिटल टीम से जुड़े एक पत्रकार नाम नहीं लिखने की शर्त पर कहते हैं, "इस वक़्त हो सकता है दूसरे लोग कम काम कर रहे हैं और भास्कर ग्राउंड रिपोर्टिंग ज़ोर से कर रहा है तो उसकी कहानियां प्रमुखता से दिख रही हैं. हमने पिछले साल भी इसी तरह की रिपोर्टिंग की थी, लेकिन इस साल बहुत सी मौतें हो गयी हैं तो खबरें भी उसी तरह की हो रही हैं."

डिजिटल टीम से ही जुड़े एक अन्य पत्रकार नाम ना लिखने की शर्त पर कहते हैं, "उत्तर प्रदेश की स्थिति यह है कि अगर आप कोई अखबार उठा कर देखेंगे तो ऐसा लगेगा की सरकार ने अखबार प्रकाशित किया है. ऐसे में भास्कर द्वारा की जा रही रिपोर्टिंग अलग नज़र आ रही है."

दैनिक भास्कर भोपाल में काम करने वाले एक पत्रकार कहते हैं, "पिछली बार के मुकाबले भास्कर की रिपोर्टिंग और आक्रामक हुई है. सरकारों की व्यवस्थाएं भी पूरी तरह से असफल रहीं और इसके बारे में लिखना बहुत ज़रूरी था. दैनिक भास्कर ने ही भोपाल में ऑक्सीजन की कमी के चलते मृत्यु होने की खबर सबसे पहले प्रकाशित की थी. खबर करने के बाद प्रशासन और सरकार ने खबर का खंडन करने का दबाव भी बनाया था लेकिन भास्कर ने खंडन नहीं किया क्योंकि खबर तथ्यों के आधार पर थी. इसी तरह सरकार द्वारा कोविड सिटी वैल्यू बताने वाले लैब्स को बंद करने के ऊपर जब भास्कर ने खबर की थी तब भी सरकार की तरफ से खंडन करने का दबाव बनाया गया था लेकिन भास्कर ने ऐसा नहीं किया. हम लोग खबरों को बहुत जांच-परख कर ही प्रकाशित करते हैं."

गौरतलब है कि भास्कर के मैनेजमेंट ने अभी हाल ही में घोषणा की थी कि जिन कर्मचारियों की कोविड के चलते मृत्यु हो गयी है उनके परिवार को कंपनी एक साल तक उनकी तनख्वाह मुहैय्या करवाएगी, इसके अलावा परिवार के लोगों को सात लाख रुपये का मुआवजा भी दिया जाएगा.

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कोरोना महामारी ने सरकारों को बेपर्दा कर दिया है. राज्य से लेकर केंद्र तक सभी सरकारें जनता को मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मुहैया करा पाईं. अपनी नाकामी को छुपाने के लिए सरकारों ने मीडिया को प्रभावित करने का काम हमेशा की तरह जारी रखा है. लेकिन इस मुश्किल समय में दैनिक भास्कर जिसकी छवि एक ऐसे अखबार की है जो सरकार के खिलाफ खुल कर नहीं लिखता है ने सरकार से काफी कड़े सवाल किये हैं.

कोरोना की पहली लहर अप्रैल-मई 2020 के दौरान दैनिक भास्कर की रिपोर्टिंग देखने के लिए हमने दिल्ली संस्करण को देखा. पहली लहर के दौरान कोविड को लेकर अखबार में वह तेजी और आक्रामक रुख नहीं दिखा जो इस बार दिख रहा है. अखबार के संपादकीय में प्रकाशित लेख भी वैसे नहीं हैं जो इस बार दिख रहे हैं. पहले लेखों में वह धार नहीं दिखी जो अभी दिख रही है. अन्य अखबारों की तरह ही भास्कर ने भी पहली लहर को कवर किया था.

वहीं अप्रैल और मई 2021 की रिपोर्टिंग की चर्चा हर जगह है. राज्य दर राज्य सरकारों के दावों पर अपनी रिपोर्टिंग से कड़े सवाल दाग कर अखबार ने गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है. ऐसी बहुत सारी रिपोर्टों और लेखों के जरिए भास्कर जनता से जुड़े मुद्दों को उठा रहा है.

भास्कर ने अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश में भी भाजपा सरकार से बेहद कड़े सवाल किए. भोपाल में बड़े पैमाने पर हो रही मौतों को कहीं रिपोर्ट नहीं किया जा रहा था. लेकिन जब भास्कर ने श्मशान घाट की तस्वीर प्रकाशित की तो सभी ने सरकार से सवाल पूछने शुरू कर दिए. कोविड से लोगों की मौत हो रही थी और सरकार उन्हें आम मौत बता रही थी. भोपाल में छुपाए जा रहे मौत के आंकड़ों पर न्यूज़लॉन्ड्री ने खुद भी ग्राउंड से रिपोर्ट की है.

दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट एडिटर मुकेश माथुर कहते हैं, "अलग अलग प्रदेशों में स्थानीय स्तर पर जो भी गलत होता है भास्कर हमेशा उसके खिलाफ लिखता है. इस वक़्त हमारी रिपोर्टिंग उभर के इसलिए दिख क्योंकि करोना वैश्विक मुद्दा है और दूसरा बाकी लोग हमारी तरह की आक्रमक रिपोर्टिंग नहीं कर रहे हैं. चाहे भाजपा शासित प्रदेश हों या कांग्रेस शासित हम हर जगह खुल के खबरें कर रहे हैं. आजकल राइट विंग मीडिया और लेफ्ट विंग का एक चलन सा हो गया लेकिन हम इससे कोई वास्ता नहीं रखते. हम सवाल उससे करते हैं जो सत्ता में होता है ना कि विपक्ष में.

राजस्थान में की गई भास्कर की एक रिपोर्ट के बारे में बताते हुए वह कहते हैं, "हमने 25 जिलों में अपने रिपोर्ट्स को श्मशान घाटों, कब्रिस्तान आदि जगहों पर भेज कर ग्राउंड से खबरें कराई थी. नतीजा यह निकला कि राजस्थान सरकार जो मौतों के आंकड़े छुपा रही थी उसकी पोल खुल गयी."

भास्कर बिहार के एक पत्रकार कहते है, “भास्कर हमेशा से ही मौके पर जो दिखता है उसे ही कवर करता है. अन्य अखबारों में चुनाव आते ही कहा जाता है कि दिनदहाड़े, ताबड़तोड़ सनसनीखेज और ऐसे शब्दों का उपयोग ना करें जिससे सरकार और प्रशासन की नाकामी दिखे. लेकिन अगर कोई घटना दिन में बाजार में सरेआम होती है तो उसे क्यों नहीं दिनदहाड़े लिखा जाए.”

वह आगे कहते है, “मेरे संस्थान ने मुझे कभी नहीं रोका. उन्होंने मेरी खबरों को कभी कभार ही काटा होगा नहीं तो मेरी रिपोर्ट्स को ऐसे ही छाप दिया गया है.” वह विज्ञापन नीति पर कहते हैं, “भास्कर का हमेशा ही किसी न किसी मंत्रालय का विज्ञापन रुका होता है. यहां अगर शिक्षा विभाग पर किसी ने स्टोरी की और वह पसंद नहीं आई तो शिक्षा विभाग अगले ही दिन विज्ञापन रोक देता है. विभाग के सचिव एक अन्य मंत्रायल भी देखते है उस मंत्रालय का भी विज्ञापन बंद हो जाता है. ऐसा ही दूसरे मंत्रालयों के साथ भी होता है.”

भास्कर की इस आक्रमक रिपोर्टिंग के पीछे का कारण कुछ लोग भास्कर को सरकारी विज्ञापनों का न मिलना भी बता रहे हैं.

मध्य प्रदेश जनसंपर्क के विज्ञापन विभाग में काम कर चुके एक पूर्व अधिकारी गोपनीयता की शर्त पर कहते हैं, "असल में भास्कर के इस आक्रामक रवैये का एक कारण यह भी है कि पिछले छह महीनों में उनको दिए जाने वाले विज्ञापनों में भारी कटौती की गयी है. दो तरह के विज्ञापन होते हैं एक जिसमें टेंडरों की जानकारी होती है और दूसरे होते हैं डिस्प्ले विज्ञापन जो सरकार के प्रचार प्रसार के बारे में होते हैं. भास्कर को दिए जाने वाले टेंडर विज्ञापनों में पिछले छह महीनों में भारी कमी आयी है और डिस्प्ले विज्ञापन भी उनको इक्का दुक्का मिल रहे थे. खैर डिस्प्ले विज्ञापन तो थोड़े बहुत उनको अब मिल रहे हैं लेकिन टेंडर विज्ञापन अभी भी नहीं मिल रहे हैं."

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस बारे में मध्य प्रदेश जनसंपर्क के विज्ञापन विभाग के मौजूदा उच्च अधिकारी से जब इस बारे में बात की तो उन्होंने खुलकर बात करने से मना कर दिया. बाद में नाम ना लिखने की शर्त पर उन्होंने कहा, "भास्कर के विज्ञापन पिछले छह महीनों में कम ज़रूर किये हैं लेकिन बंद नहीं किये. कोविड के चलते वैसे डिस्प्ले विज्ञापन कम ही दिए जा रहे हैं, लेकिन हां टेंडर विज्ञापन उनके 90 प्रतिशत से कम कर दिए गए हैं. यह बहुत ऊंचे स्तर का मामला है हम लोगों के स्तर का नहीं है. सरकार के ऊपर से निर्देश हैं. पहले हर महीने लगभग 50 लाख से ज़्यादा के विज्ञापन मिलते थे, लेकिन अब कम हो गए हैं. बड़े स्तर का मामला है, हम लोग इस पर ज़्यादा कुछ नहीं बोल सकते हैं."

भोपाल के जाने माने पत्रकार शम्स-उर-रहमान अल्वी कहते है, "राज्यों में ओवरऑल ऐड पॉलिसी (सम्पूर्ण विज्ञापन नीति) और कई अन्य कारण अखबारों की कवरेज पर असर डालते हैं. कुछ अख़बार, काफी हद तक प्रो-इस्टैब्लिशमेंट (सरकार के समर्थन) रहते हैं, सरकार से टकराव पसंद नहीं करते. दैनिक भास्कर की लगातार एक्सपोज़ करने वाली स्टोरीज़ देख कर हैरानी तो होती है. क्योंकि प्रदेश के अंदर भी काफी बंदिशें होती हैं मगर ऐसा लगता है कि यह एक कॉन्शस डिसीज़न (सोच समझ के निर्णय लिया) है. इससे अखबार की इमेज (छवि) को फायदा हो रहा है."

भोपाल के रहने वाले एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार नाम ना लिखने की शर्त पर कहते हैं, "दैनिक भास्कर और सरकार के रिश्तों के बीच कुछ दरार सी आ गई. इनके विज्ञापन भी सरकार ने बंद कर दिए. अख़बार भी अब प्रदेश में ख़बरों के ज़रिये दबाव की रणनीति अख्तियार करता हुआ नज़र आ रहा है. भास्कर पहले भी बड़ा समूह था और उन्होंने कभी भी सरकार के गलत कामों के खिलाफ मुखर होकर आवाज़ नहीं उठायी. वह जिस तरह की रिपोर्टिंग अभी कोविड के दौरान कर रहे हैं वो पहले भी कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया. लेकिन अखबार की रिपोर्टिंग में यह भी नज़र आ रहा है कि यह राष्ट्रीय स्तर पर भी एक राजनैतिक लाइन पकड़ रहा है. मोदी और शाह किसी को घास नहीं डालते हैं और अख़बार को भी लग रहा है कि शायद इनका दौर जाएगा. लेकिन एक बात यह भी समझिये कि इस तरह के अख़बार बदलती सरकारों के साथ बदल जाते हैं. आपको लगेगा कि अखबार सरकार के गलत कामों के खिलाफ आवाज़ मुखर कर रहे हैं लेकिन कब यह सरकार के सुर में सुर मिलाने लगें यह पता भी नहीं चलेगा."

न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत के दौरान दैनिक भास्कर के एक सीनियर एग्जीक्यूटिव ने बताया कि भास्कर हमेशा तथ्यों के आधार पर रिपोर्टिंग करता है. अगर कोई यह कहता है, कि पिछले साल कोविड पर भास्कर आक्रामक नहीं था और अब बहुत आक्रामक हुआ है तो उसकी एक बड़ी वजह है. इस बार जो हुआ है वह पिछले 50 सालों में कभी नहीं हुआ. जब पिछले साल ऐसा हुआ ही नहीं था तो कैसे आक्रामक होकर रिपोर्ट करते.

उनके मुताबिक भास्कर का संपादकीय सिद्धांत है 'केंद्र में पाठक'. यहां जो भी रिपोर्ट होती है पाठकों को ध्यान में रख कर होती है. इस बार इतनी बड़ी तादाद में लोगों की मृत्यु हो रही थी, बड़ी तादाद में कोविड के मामले बढ़ गए थे, अस्पतालों में लोगों को जगह नहीं मिल रही थी, ऑक्सीजन की कमी के चलते लोगों की जान जा रही थी, रेमडेसिविर इंजेक्शन नहीं मिल रहे थे, एम्बुलेंस नहीं मिल रही थी, ऐसे बहुत से मुद्दे थे. इन मुद्दों को तथ्यों के आधार पर रिपोर्ट किया गया. दुर्भाग्यवश बाकियों ने इस पर रिपोर्ट नहीं किया.

वह हमें बताते हैं, "भास्कर के विज्ञापन को लेकर जो बातें चल रही हैं उसमें गौर करने की बात यह है कि वह विज्ञापन दिसंबर से बंद हैं. उन विज्ञापनों की बंदी का अखबार द्वारा की जा रही रिपोर्टिंग से कोई मतलब नहीं है. ना ही हमारी ख़बरों के चलते हम पर किसी भी सरकार के मुख्यमंत्री या केंद्र सरकार का दबाव बनाया गया, ना ही उनकी तरफ से कोई फ़ोन आया. अगर आप हमारे अखबार की कवरेज देखेंगे तो पाएंगे कि ना हम किसी व्यक्ति को निशाना बना रहे हैं और ना ही किसी पार्टी को. भास्कर गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड सब जगह रिपोर्टिंग कर रहा है. कोई भाजपा शासित प्रदेश हो या गैर भाजपा शासित प्रदेश इस बात से हमें कोई मतलब नहीं है."

जाहिर है भास्कर की मौजूदा रिपोर्टिंग रुख का कोई ब्लैक एंड व्हाइट निष्कर्ष नहीं है. इसकी तमाम वजहें हैं. लेकिन उन सबमें सबसे अहम है संपादकीय स्वतंत्रता जो ज्यादातर संपादकों को मिली हुई है, ऐसा संकेत हमारी रिपोर्टिंग के दौरान मिला.

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