प्रधानजी के ताजा-ताजा आंसू और इज़राइल-फिलिस्तीन पर एंकर-एंकराओं की गदहपचीसी

दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
Date:
   

बीते दिनों परधानजी फिर से रो दिए. अच्छा खासा मौसम था. पहली बार मई के तपते महीने में पूरे देश में बारिश हो रही थी, जनता राहत की सांस ले रही थी, लेकिन परधानजी रो दिए. उनका रोना था कि दुनिया भर के मगरमच्छों, घड़ियालों की शामत आ गई. सोशल मीडिया के जीव जंतु तो लगे ही, लगे हाथ मीडिया वालों ने भी मगर घड़ियालों को अपने कीचड़ में घसीट लिया.

बीते सात साल में परधानजी आठ बार रो चुके हैं. यानि औसतन एक साल में वो एक से सवा बार रोते हैं. बरवक्त रोने के मामले में सिर्फ एक ही नेता ही उनसे आगे हैं, आडवाणीजी. इस बार परधानजी के रोने को लेकर जनता इतनी आश्वस्त थी कि लगभग समूचा जम्बुद्वीप कई दिनों से उम्मीद लगाकर बैठा था.

उम्मीद का आलम ये था कि फेसबुक पर उनके ताजा रोवनपट वाले वीडियो को जनता ने लाइक, लव या डिसलाइक से ज्यादा हाहा वाले इमोटिकन से सलामी दी है. अब देश के प्रधानजी के आचार-व्यवहार को जनता हाहा के नजरिए से क्यों देख रही है यह मौजूदा दौर के समाजशास्त्रियों, मनोविज्ञानियों के लिए शोध का विषय है.

बीते हफ्ते इजराइल और फिलिस्तीन के बीच हुए युद्ध ने एक बार फिर से खबरिया चैनलों के दिवालिएपन की कलई खोलकर रख दी. चैनल दर चैनल इजराइल के समर्थन में कसीदे काढ़े गए. सोशल मीडिया भी अछूता नहीं रहा. यहां भी इंडिया विद इजराइल का हैशटैग ट्रेंड हुआ. अनपढ़ भक्त और अधपढ़ आईटी सेल के कारिंदों ने इजराइली प्रधानमंत्री बिनयामिन नेतनयाहू को ट्रोल किया क्योंकि उन्होंने अपने समर्थक देशों वाले एक ट्वीट में भारत को अपना समर्थक ही नहीं माना.

इजराइल-फिलिस्तीन के मसले को थोड़ा बारीकी से समझना होगा. फिलिस्तीन के साथ भारत के संबंधों का इतिहास बहुत पुराना है. भारत 1975 में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता देने वाला पहला ग़ैर अरब देश था. 1988 में भारत उन शुरुआती देशों में था, जिन्होंने फिलिस्तीन को बतौर राष्ट्र मान्यता दी. पीएलओ के प्रमुख यासिर अराफात को भारत में राष्ट्राध्यक्ष का दरजा दिया जाता था. यह भारत की विदेश नीति है जिसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि इज़रायल के प्रति नरम रुख वाली मोदी सरकार ने भी हाल ही में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा काउंसिल की आपात बैठक में फिलस्तीनी मुक्ति आंदोलन का समर्थन किया है.

इज़राइल-फिलिस्तीन के बजरिए आप एक और कहानी जान लें. इजराइल इस देश के संघियों और कट्टरपंथियों का लिटमस टेस्ट है जिसके जरिए इनका क्रूर और दोमुंहा रूप उजागर होता है. दरअसल इन्हें किसी से प्रेम नहीं है, न इज़राइल से न किसी और से. इन्हें सिर्फ नफरत है. आज इन्हें फिलीस्तीनियों पर बम मारने वाले इजराइली यहूदी अच्छे लग रहे हैं. कल तक इन्हें इन्हीं यहूदियों की हत्या करने वाला नाज़ी नेता एडोल्फ हिटलर अच्छा लगता था. इनके ख्वाबों की उड़ान थी कि जिस तरह से हिटलर ने यहूदियों का प्रश्न हल किया, उसी तरह से भारत में मुसलमानों का प्रश्न हल करने पर विचार किया जा सकता है. वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइंड में गुरु गोलवलकर ने उस कल्पना की उड़ान भरी थी. भारत की विदेश नीति के तत्व भारत की आजादी के आंदोलन के मूल्यों से निकले हैं जिसमें किसी भी तरह के साम्राज्यवाद, दास प्रथा, नस्लभेद, तानाशाही का विरोध है. भारत हमेशा आज़ादी और बराबरी के पक्ष में खड़ा था. लेकिन आईटी सेल के कारिंदों, ट्रोल्स और भक्तों को ये बातें नहीं बताई जाती हैं बिल्कुल उसी तरह जैसे स्वयंसेवकों को कम पढ़ने लिखने की सलाह दी जाती है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
Also see
article imageपत्रकारों पर बढ़ते हमलों को लेकर अंतर्राष्ट्रीय प्रेस बॉडी का पीएम मोदी को पत्र
article imageफिलिस्तीन की नाउम्मीदी का अगला कदम है ट्रंप की जेरुसलम घोषणा
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like