सेंट्रल विस्टा: राजपथ के खुदे हुए बाग़ और नदारद जंजीरों का एक और सच है

कानून, स्वतंत्र संस्थानों और अमूमन जनता से शत्रु की तरह बर्ताव करके यह संभव हुआ है.

WrittenBy:अल्पना किशोर
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यह हुआ कैसे?

कैसे वे संस्थाएं जिन्हें संवैधानिक कर्तव्यों को निभाने की जिम्मेदारी और विभिन्न अधिकार दिए गए, और जो कानून केस हैरान कर देने वाले दुरुपयोग को पूरी तरह समझते हैं, ने एक के बाद एक यह उल्लंघन कैसे होने दिए?

देश के सबसे ज्यादा संरक्षित विरासतीय क्षेत्र में सेंट्रल विस्टा परियोजना को पास कराने की कुंजी उसे पूरी तरह गुप्त रखना और उसे सारी कानूनी अड़चनों को पार कर खुद ब खुद स्वीकृत हुई योजना की तरह पेश करना था, जिससे कोई सवाल ही न उठा सके.

आमतौर पर किसी भी शहरी योजना को एक नगर निगम जैसी किसी स्थानीय इकाई से मंजूरी लेनी पड़ती है. सेंट्रल विस्टा परियोजना के लिए यह संस्था नई दिल्ली नगर निगम होती जिसमें स्थानीय प्रतिनिधि और तकनीकी विभाग सारे नियम कानूनों के पालन किए जाने की जांच करते. इसके लिए सारे तकनीकी नक्शों को जमा किया जाना जरूरी होता है.

इसके बाद विरासतीय मामलों के लिए विरासत संरक्षण समिति की स्वीकृति चाहिए होती है. अन्य विभाग जैसे अग्नि सुरक्षा, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इत्यादि जरूरत के हिसाब से मत देते हैं. सेंट्रल विस्टा परियोजना के मामले में, सेंट्रल विस्टा कमेटी जिसको विरासत, क्षितिज, सड़क का फर्नीचर, उपयुक्त निशान और हरियाली के मानकों को सख्ती से संरक्षित करने की जिम्मेदारी दी गई है, उसकी भी स्वीकृति की आवश्यकता पड़ती है. बड़ी योजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय की विशेषज्ञ सलाहकार कमेटी से भी स्वीकृति चाहिए होती है, जो पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की विस्तृत जानकारी को जमा करने के बाद मिलती है जिसमें कटने वाले पेड़ों से लेकर पानी की निकासी, प्रदूषण की रोकथाम, ट्रैफिक और पार्किंग के मुद्दों जैसी चीजें शामिल होती हैं.

इन सब मंज़ूरियों के मिलने के बाद ही योजना दिल्ली नगर कला आयोग के पास जाती है, जहां पर अंत में उसके देखे जा सकने वाले पहलुओं का आंकलन होता है. डीयूएसी की जिम्मेदारी दिल्ली के नगरीय और पर्यावरण सौंदर्य को संरक्षित करना है. इसकी स्थापना 1973 में एक सशक्त और स्वतंत्र सलाहकार इकाई के रूप में हुई थी जिसके पास एक सिविल अदालत के अधिकार हैं.

डीयूएसी और एनडीएमसी का आपसी संबंध और उनकी भूमिकाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं. जहां डीयूएसी एक स्वीकृति देने वाली संस्था है, वहीं एनडीएमसी आधिकारिक रूप से अनुमति देने वाली संस्था है. डीयूएसी केवल उन्हीं योजनाओं पर अपना मत दे सकती है जो उसे एनडीएमसी के द्वारा मिलें. अगर एनडीएमसी को लगता है कि कोई परियोजना ठीक नहीं है, तो वह उसे कभी डीयूएसी को देगी ही नहीं.

इसके साथ साथ स्थानीय नियमों के अनुपालन की जांच परख डीयूएसी का काम नहीं है. कई मायनों में भले ही वह एनडीएमसी से ऊपर की संस्था मानी जाती है क्योंकि उसके पास परियोजना बाद में पहुंचती है, लेकिन वह नियमों के अनुपालन की जांच नहीं करती. जब कोई भी फाइल डीयूएसी के पास आती है, तो यह निहित है कि यह जांच पहले ही हो चुकी है वरना फाइल वहां तक आती ही नहीं. उसके बाद वे फाइल को स्वीकृत या अस्वीकृत कर सकते हैं.

ऐसे निर्णय क्यों लिए गए?

स्थानीय इकाई एनडीएमसी, जिसमें विपक्ष के भी सदस्य हैं जो ग्रेड एक विरासतीय क्षेत्र में इस परियोजना के विनाशकारी प्रभावों और मौजूदा उप नियमों के पालन न किए जाने पर ऐसा करने वाले सवाल उठा सकते थे, शायद इसीलिए सरकार ने एक अजब निर्णय लिया.

उन्होंने स्थानीय इकाई के अस्तित्व को ही नगण्य बना दिया.

इसकी जगह पर सीपीडब्ल्यूडी, एनडीएमसी को नजरअंदाज कर डीयूएसी से सीधी "आधिकारिक स्वीकृति" लेगी, क्योंकि डीयूएसी के ही द्वारा उसे स्थानीय इकाई की मान्यता मिल चुकी थी.

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इसे दूसरे तरीके से कहें तो, वेतनभोगी इंजीनियरों के एक समूह के पास पार्षदों जैसे ही अधिकार होंगे. सीपीडब्ल्यूडी के एक पत्र का शीर्षक इसे परिभाषित करता है- "सरकारी इमारतों के निर्माण को नियंत्रित करने के लिए उनकी निगमीय कानूनों से छूट." जिसका अर्थ है, वे जहां चाहे वहां कुछ भी, बिना किसी कानून के पालन किए बना सकते हैं, जिनका बाकि जनता को पालन करना पड़ता है.

यह कदम अकेला ही अभूतपूर्व रूप से संविधान के 74वें संशोधन को नष्ट करता है, उसकी गरिमा को इस कदर भंग करता है कि उसको जब चाहे किनारे किया जा सकता है. इसका यह मतलब भी है कि यह ढांचा जनता की जवाबदेही से परे है. पीएम केयर्स फंड की तरह यह भी एक पहचान रहित, सरकार के हुक्म की तामीर करने वाला है जो जानकारी को सार्वजनिक नहीं कर सकता.

डीयूएसी की "स्वीकृति" का असल मतलब क्या है?

सीपीडब्ल्यूडी को स्थानीय निकाय की मान्यता देने के ढर्रे पर ही, पीएसएन राव की अध्यक्षता वाली डीयूएसी ने नई संसद की इमारत को मंजूरी 1 जुलाई 2020 को दी. कोई भी योजना, बिना स्थानीय इकाई से स्वीकृति लिए डीयूएसी के पास जाकर "संकल्पित" मंजूरी ले सकती है. हालांकि इसके बावजूद, उस परियोजना को स्थानीय इकाई की जांच और स्वीकृति की प्रक्रिया के बाद ही आधिकारिक मंजूरी मिल सकती है. यह डीयूएसी के विनियामक ढांचे का हिस्सा है. निम्नलिखित चित्र देखें.

सोर्स- दिल्ली शहरी कला आयोग

नई संसद की इमारत को मिली हुई "स्वीकृति" तभी वैध है जब वह "आधिकारिक" स्वीकृति हो. लेकिन डीयूएसी से मिली हुई मंजूरी, चुनी हुई स्थानीय इकाई और विशेषज्ञ कमेटी की प्रक्रिया से नहीं होकर गुजरी थी, उसने तकनीकी नक्शे नहीं जमा किए थे और उसे जमा एक बिना चुनी हुई "स्थानीय इकाई" ने किया था जिसकी मान्यता खुद डीयूएसी ने ही दी थी, जिसका उसे अधिकार भी नहीं है लेकिन उसने ऐसा आवासीय और शहरी मामलों के मंत्रालय के निर्देशों पर किया. अर्थात, उसने एनडीएमसी को रास्ते से हटा दिया. यह छद्म रूप से अधिकार गढ़ा जाने जैसा था, इसलिए यह मंजूरी आधिकारिक मंजूरी नहीं है बल्कि अभी भी संकल्पित ही है.

प्राथमिक परेशानी अभी भी यही है. इस परियोजना के कानूनन नियमों का अनुपालन करने पर अभी तक किसी ने भी मुहर नहीं लगाई है.

कहीं और भी सही प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ है. मोदी सरकार के अधिकतर योजनाओं की तरह ही 'विश्व स्तरीय' और 'कुशल' या 'समय से पहले' जैसे विशेषणों का सही मतलब है कि कानूनों को उन संस्थाओं ने तोड़ा-मरोड़ा है, जिनके ऊपर उनके पालन की जिम्मेदारी थी लेकिन उन्हें भ्रष्ट और खोखला किया जा चुका है.

इसीलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ, जब डीयूएसी के अध्यक्ष पीएनएस राव, जिनके ऊपर किसी परियोजना का आंकलन कर उसकी आवश्यकता और उसे मिली हुई सारी स्वीकृतियों को जांचना है, को सेंट्रल विस्टा परियोजना के टेंडरों का आंकलन करने वाली कमेटी का भी अध्यक्ष बना दिया गया.

इस कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर वह सलाहकार सेवाओं के लिए प्रतिष्ठान का चुनाव भी करेंगे, और योजना की पूरी जानकारी के साथ, उसे डीएसई में भी जमा करवाएंगे. इसके बाद डीयूएसी के अध्यक्ष की भूमिका अदा करते हुए वह उसे मंजूरी दे देंगे.

मतलब वह अपने ही द्वारा चुनी गई परियोजना को खुद ही जमा करके, उसकी स्वीकृति खुद ही दे देंगे.

एक ही इकाई या व्यक्ति को एक परियोजना में स्वीकृति मांगने और देने वाले का अर्थ यह है कि कोई भी हद बहिष्कृत नहीं है. यह कानून को एक मज़ाक और सही प्रक्रिया को केवल आम नागरिकों का काम बना देती है.

यह धोखा इसलिए संभव हो पाया क्योंकि इस योजना के हर चरण पर कानून, स्वतंत्र संस्थानों और, खास तौर पर जनता से शत्रु की तरह बर्ताव किया गया. जिसकी वजह से, उन्हें हर कदम पर धोखे, फरेब और बेपरवाही के इस्तेमाल से नाकाम किया जाना "आवश्यक" है. शायद यही एक तरीका है जिससे यह पूरी तरह से अवैध परियोजना आगे बढ़ सकती है.

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