भगवान राम का भारतीय होना आरएसएस के लिए क्यों जरूरी है?

केपी ओली के बयान से भारतीय हिंदुओं का कट्टरपंथी और नस्लवादी तबका और उसके हितों को ऊर्जा देने वाले मीडिया का एक हिस्सा बेचैन और कंफ्यूज हो गया है.

WrittenBy:विष्णु शर्मा
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नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भगवान राम और उनकी अयोध्या को लेकर हाल में जो बयान दिया है उससे भारतीय हिंदुओं का कट्टरपंथी और नस्लवादी तबका और उसके हितों को ऊर्जा देने वाले मीडिया का एक हिस्सा बेचैन और कंफ्यूज हो गया है.

कंफ्यूजन की सबसे बड़ी वजह है कि कम्युनिस्ट ओली ने राम के अस्तित्व को खारिज नहीं बल्कि राम की सांस्कृतिक परंपरा को भारतीय हिंदुओं से झपटने की कोशिश की है. अंग्रेजी में इसे कोऑप्ट करना कहते हैं. (वह खारिज करते तो खेल सरल होता और होमग्राउंड पर होता) बेचैनी और कंफ्यूजन ने इस तबके के भीतर गहरे तक मौजूद नस्लवादी अहंकार को फिर सतह पर ला दिया है.

ओली का वह बयान यूं था :

“हम अब भी मानते हैं कि हम लोगों ने भारत के राजकुमार राम को सीता दी. भारत के नहीं हमने अयोध्या के राजकुमार को सीता दी थी. अयोध्या जो बीरगंज के पश्चिम की ओर एक गांव है. वह आज बनाई गई (नकली) अयोध्या नहीं है. वहां (भारत के यूपी) की अयोध्या भीषण विवाद में है. हमारी वाली पर कोई विवाद ही नहीं है. अयोध्या बीरगंज के पश्चिम में है, वाल्मीकि आश्रम नेपाल में है और जब दशरथ को संतान नहीं हुई तो उनके लिए पुत्रेष्टी यज्ञ कराने वाले पंडित जी रिडी (पाल्पा जिले में हैं) के थे. और इसलिए ना उनकी संतान राम भारत की है, ना अयोध्या भारत में है.”

बाद में नेपाल के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर अन्य बातों के अलावा यह जरूर कहा कि “प्रधानमंत्री की अभिव्यक्ति का इरादा किसी की भावना या मत को ठेस पहुंचाना नहीं था”, लेकिन जैसा भारतीय मीडिया बता रहा है नेपाल ने ओली के बयान को वापस नहीं लिया है बल्कि विदेश मंत्रालय ने अपने बयान से इस मामले को और अधिक विस्तार दिया है.

उस महत्वपूर्ण बयान में लिखा है, “श्रीराम के बारे में कई सारे मिथ और संदर्भ हैं और प्रधानमंत्री रामायण में वर्णित सांस्कृतिक भूगोल पर भावी शोध और अध्ययन के महत्व को रेखांकित कर रहे थे”.

फिर भी इस बयान को नेपाल की ह्युमिलिटी ही कहना चाहिए क्योंकि भावना को ठेस पहुंचाकर ओली की पार्टी को वोट का घाटा नहीं होने जा रहा था (नेपाल ने इस बारे में उपरोक्त बयान के अलावा कुछ नहीं कहा है लेकिन आजतक वहां के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली के नाम से झूठी खबरें चला रहा है).

नेपाल के विदेश मंत्रालय ने जिस “भावी शोध और अध्ययन के महत्व” की बात की है, भारत में वह परंपरा लंबे समय से चली आ रही है. वर्तमान राजनीतिक परिवेश में वह धीमी जरूर हुई है लेकिन उसका महत्व कम नहीं हुआ है.

प्रोफेसर एच. डी. संकालिया उसी अकादमिक परंपरा का महत्वपूर्ण स्तंभ हैं. रामायण ग्रंथ में बताये गए नगरों अयोध्या, लंका, दंडकारण्य आदि, पर उनका बहुत शानदार अध्ययन है (अपने एक लेक्चर “रामायण: मिथ ऑर रिएलिटी” में उन्होंने अनुमान लगाया है कि रावण की लंका मध्य प्रदेश के वर्तमान शहर जबलपुर के आसपास कहीं हो सकती है. एक और बात जो उनका लेक्चर पढ़ने से मेरे मन में आती है वह यह कि वर्तमान श्रीलंका को रामायण की लंका बताना विस्तारवादी मानसिकता से प्रेरित हो सकता है).

इसी तरह वानरराज बाली की राजधानी किष्किंधा को भी उन्होंने काल्पनिक बताया है. अयोध्या के बारे में उनका तर्क है कि वह किष्किंधा और लंका की तरह ही कुषाण और गुप्त काल में यानी 100 ईसवी और 400 ईसवी के बीच बसी होगी.

आगे बढ़ने से पहले एक मजेदार बात. भारत के बाद नेपाल में आरएसएस की सबसे ज्यादा शाखाएं हैं, तो उन शाखाओं के प्रमुखों से यदि पूछा जाए कि उनका ओली के कथन पर क्या स्टैन्ड है तो वे क्या कहेंगे? मतलब अगर वे कहें कि ओली झूठे हैं, तो विरोधी उन पर विस्तारवादी होने की तोहमत मढ़ देंगे और यदि वे कहें कि ओली सही हैं, तो वृहद आरएसएस की परंपरा से स्वयं को काटने जैसी बात होगी. इससे आगे बढ़कर यदि कह दें कि दोनों की सही हैं तो उनके राम ऐतिहासिक पुरुष से मिथक बन जाएंगे और संघ के पाठ्यक्रम में रोमिला थापर को भी स्थान मिल जाएगा.

स्कूल के दिनों में एक उपन्यास पढ़ा था जिसमें एक चीनी युवती माओ त्सेतुंग की क्रांति के बाद भारत आ जाती है और बाद में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़ जाती है. उस युवती को यह देख कर मन में बड़ा क्षोभ होता है कि भारत में बुद्ध की आंखें बड़ी-बड़ी हैं. उसे याद आता है कि चीन में बुद्ध की आंखें छोटी होती हैं. वह सोचती है कि यदि वहां भी बुद्ध की आंखें बड़ी बनायी जातीं तो क्या चीनी लोग बुद्ध को स्वीकार करते?

राम अयोध्या में हुए हों या नेपाल के बीरगंज में, इससे कैफ़ी आज़मी को, जिनके राम को छह दिसंबर को दूसरा बनवास मिला था भले फर्क ना पड़ता हो, लेकिन सावरकर को छटपटाहट जरूर होती है क्योंकि सावरकर को मानने वालों के लिए राम का भारतीय होना (और तो और उत्तर भारतीय होना) बहुत जरूरी है. उनकी संकीर्ण सोच एक भूगोल विशेष और नस्ल विशेष की परिधि में कैद है जिससे बाहर सोचना उनके बस की बात है ही नहीं. वे इससे बाहर सोचेंगे तो पाएंगे कि वे जहां फंसे हुए हैं वह भारत का न वर्तमान है और न ही उसका भविष्य बल्कि एक अतीत है. वह भी ऐसा अतीत जो बहुत हद तक काल्पनिक है. वह एक ऐसा अतीत है जिसकी पुनरावृत्ति भारत के लिए ही नहीं, दक्षिण एशिया सहित दुनिया भर के लिए घातक है.

साभार - जनपथ

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