यह चुनाव तो ममता बनर्जी जीत जायेंगी लेकिन…

...बंगाल में भाजपा अब वो चुनौती है जिसका सूरज चढ़ने से रोकना तृणमूल कांग्रेस के लिए दिनोंदिन असंभव होता जायेगा.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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कोलकाता से करीब 100 किलोमीटर दूर बैरकपुर लोकसभा सीट के आमडांगा गांव में ममता बनर्जी, नरेंद्र मोदी को ललकार रही हैं- “किसी को भी चुन लेना लेकिन एक फासीवादी को वोट मत देना.” ममता मंच से दहाड़ती हैं और नीचे खड़े उनके समर्थक उनकी जय-जयकार करते हैं.

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अपने राजनीतिक जीवन का एक और निर्णायक चुनाव लड़ रही ममता बनर्जी के सामने आज कई मोर्चों पर संकट है और बीजेपी ने ममता के गढ़ पश्चिम बंगाल में ही उन पर चौतरफा हमला बोला हुआ है. मोदी ने बंगाल में दिये अपने भाषणों में बनर्जी पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने से लेकर अल्पसंख्यक संतुष्टीकरण और राजनीति में गुंडागर्दी को संरक्षण देने के आरोप लगाये हैं. साथ ही प्रधानमंत्री ने निकट भविष्य में तृणमूल कांग्रेस में संभावित टूट की धमकी भी दे डाली है.

आज बंगाल में लोकसभा की लड़ाई ममता और मोदी की जंग बन गयी है और लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस पार्टी इस जंग में एक तमाशबीन की तरह निरीह दिखते हैं.

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(ममता बनर्जी के चुनावी भाषण प्रधानमंत्री मोदी को वापस गुजरात भेजने और किसी भी हाल में एनआरसी लागू न किये जाने पर केंद्रित हैं)

ध्रुवीकरण और बीजेपी का विस्तार

बीजेपी का लक्ष्य बंगाल की 42 में से 23 लोकसभा सीटें जीतने का है और भारत-बांग्लादेश सीमा से लगा बशीरहाट उन सीटों में है जहां बीजेपी प्रवेश के लिये दस्तक दे रही है. मोदी-शाह की पूरी राजनीति वोटों के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित है और बशीरहाट इसके लिये सबसे मुफीद मैदान है.

बशीरहाट 2017 में एक फेसबुक पोस्ट से भड़की सांप्रदायिक हिंसा के बाद चर्चा में आया था और तभी यह तय हो गया था कि यह सीट लोकसभा चुनाव का बैरोमीटर बनेगी. करीब 10 लाख मुस्लिम आबादी वाले बशीरहाट में बांग्लादेश से घुसपैठ और सीमापार गाय की तस्करी जैसे मुद्दों ने हिंदू समुदाय पर अपना असर दिखाया है और बीजेपी के लिये यह सीमा मनोविज्ञान काफी अहम है.

बशीरहाट के बाज़ार में हमारी मुलाकात प्राइमरी स्कूल के दो युवा शिक्षकों धीमन राय और सुजॉय दास से होती है. दोनों को लगता है कि इस बार यहां “बदलाव का मूड” है और “कड़ी टक्कर” होना तय है.

धीमन और सुजॉय की भविष्यवाणी को समझने के लिये हम बशीरहाट में बीजेपी दफ़्तर का रुख करते हैं, जिसकी इमारत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के ऑफिस से लगी हुई है. लेकिन इस विरोधाभास से अधिक दिलचस्प और चौंकाने वाली बात यहां के चुनावी नतीजे हो सकते हैं, जिनमें ज़्यादातर वोटों का बंटवारा बीजेपी और टीएमसी के बीच होने की संभावना है.

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(भारत बांग्लादेश सीमा से लगा बशीरहाट धीरे-धीरे आरएसएस की प्रयोगशाला बन रहा है. फोटो – हृदयेश जोशी)

बशीरहाट लोकसभा सीट पर कुल 15 लाख वोटर हैं. पिछली बार यहां 4.92 लाख वोट लेकर जीतने वाले उम्मीदवार इदरीस अली को हटाकर ममता बनर्जी ने इस बार बंगाली फिल्मों की अभिनेत्री नुसरत जहां को टिकट दिया है. बीजेपी को 2014 में कुल 2.33 लाख वोट मिले थे, जबकि सीपीआई को 3.82 लाख. लेकिन बशीरहाट में साफ महसूस होता है कि पिछले चुनावों में बीजेपी से 1.5 लाख वोट अधिक पाने वाली सीपीआई को इस बार अपने वोटों के खिसकने का सर्वाधिक डर है.

“बंगाल में कुछ प्रतिशत टीएमसी विरोधी वोटर हैं जो ममता को सत्ता से हटाना चाहते हैं. ये लोग ममता के ख़िलाफ़ अलग-अलग पार्टी या गठबंधन को वोट देते रहे हैं. इस बार यह सारे वोटर बीजेपी की ताकत बन सकते हैं,” वरिष्ठ पत्रकार और समाचार वेबसाइट द बंगाल स्टोरी डॉट कॉम के संपादक बितनु चटर्जी कहते हैं.

लेकिन क्या बीजेपी के पक्ष में होता यह झुकाव उसे बशीरहाट में जीत दिलाने के लिये काफ़ी होगा? बशीरहाट में करीब 50% आबादी मुस्लिम वोटरों की है, जो टीएमसी की ताकत तो बनेंगे लेकिन बीजेपी को और अधिक ध्रुवीकरण करने का ईंधन भी देंगे.

बशीरहाट पार्टी कार्यालय में वरिष्ठ बीजेपी नेता रमन सरकार पहले टीएमसी के कार्यकर्ताओं की ‘गुंडागर्दी’ की शिकायत करते हैं और फिर अपनी पार्टी की सोच और उसके राजनीतिक कार्यक्रम की रूपरेखा समझाते हैं.

“वह (टीएमसी कार्यकर्ता) यहां पर खुले आम हथियार लेकर घूम रहे हैं और हत्या-मारपीट करते हैं. उन्हें किसी का कोई डर नहीं है. जो लोग उनके समर्थक नहीं होते हैं, वह उन्हें डराने-धमकाने के साथ उनकी महिलाओं से रेप करने की धमकी देते हैं.” सरकार हमें बताते हैं.

सरकार के मुताबिक उनकी पार्टी बंगाल में “तृणमूल कांग्रेस के संरक्षण” में हो रही गौ-तस्करी और घुसपैठ के ख़िलाफ़ लड़ रही है. बीजेपी नेताओं को यहां लगता है कि मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है कि वह देश के प्रति प्यार प्रदर्शित करें.

“जो मुसलमान भारत से प्यार करते हैं और भारत माता की जय कहते हैं उनसे हमें (बीजेपी को) कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन सीमा पार से घुसपैठ और यहां से वहां (बांग्लादेश को) गायों की तस्करी बीजेपी के लिये महत्वपूर्ण विषय हैं. हम इन्हें चुनावों में उठा रहे हैं,” रमन ये आरोप लगाने के साथ ही हमें बताते हैं कि इस इलाके में गौ तस्करों को पुलिस का संरक्षण मिला हुआ है.

जहां टीएमसी के नेता इन आरोपों को बीजेपी की ‘हताशा’ और ‘कुचक्र’ करार दे रहे हैं वहीं ममता के दूसरे राजनीतिक विरोधियों का कहना है कि बंगाल की मुख्यमंत्री ने ही पिछले कुछ सालों में आरएसएस-बीजेपी के पनपने के लिये उपजाऊ ज़मीन तैयार की है.

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(यूपी में संभावित नुकसान की भरपायी के लिये बीजेपी की नज़र बंगाल पर है. मोदी ने अपनी रैली में टीएमसी में टूट की चेतावनी दी है.)

अल्पसंख्यकों का डर और सिकुड़ता सेक्युलर स्पेस

बरहामपुर से कांग्रेस के सांसद और मौजूदा उम्मीदवार अधीर रंजन चौधरी ममता बनर्जी को बीजेपी का “सबसे बड़ा प्रमोटर” बताते हैं और कहते हैं कि अगर बीजेपी को बंगाल में कामयाबी मिलती है तो नरेंद्र मोदी को ‘अपनी दीदी’ का शुक्रिया अदा करना होगा. रंजन ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “बीजेपी अगर बंगाल से सीट जीतेगी तो वह ममता बनर्जी का योगदान होगा, क्योंकि (बंगाल में) सत्ता में आने के बाद उन्होंने (ममता बनर्जी ने) जिस तरह से लेफ्ट और कांग्रेस पार्टी पर हमला करके सेक्युलर स्पेस को खत्म किया है, उसी से बीजेपी को यहां पैर पसारने का मौका मिला है.”

लेकिन अपने पराभव का दोष ममता बनर्जी पर मढ़ते वक्त वामपंथी और कांग्रेसी नेता यह भूल जाते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल है. ममता बनर्जी ने राज्य में लेफ्ट फ्रंट को हराने के बाद पिछले 8 साल में अपना किला मज़बूत करने की कोशिश की है. इसीलिए जब मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर ध्रुवीकरण शुरू किया तो ममता बनर्जी ने खुद भी बंगाल में ध्रुवीकरण पर ज़ोर दिया ताकि मुस्लिम वोटों को खींचकर लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस को हाशिये पर धकेला जा सके.

(बैरकपुर से टीएमसी के उम्मीदवार दिनेश त्रिवेदी का मुकाबला अपनी ही पार्टी के बागी अर्जुन सिंह से है. फोटो – हृदयेश जोशी)

बंगाल की अधिकतर सीटों पर चतुष्कोणीय मुकाबला है क्योंकि लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस 2016 के विधानसभा चुनावों की तरह इस बार मिलकर नहीं लड़ रहे. जिन इलाकों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा वहां बीजेपी को विपक्षी वोटों के बंटवारे का फायदा मिलेगा.

डायमंड हार्बर सीट पर ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के खिलाफ सीपीएम के डॉ फुहाद हलीम एक लोकप्रिय चिकित्सक हैं जो गरीबों का मुफ्त इलाज करते हैं. डॉ हलीम न केवल ममता बनर्जी पर बीजेपी की राह आसान करने का आरोप लगाते हैं वह यहां तक कहते हैं कि बीजेपी और टीएमसी इन लोकसभा चुनावों में एक दूसरे की मदद कर रहे हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री ने डायमंड हार्बर के कई इलाकों में जाकर हालात का जायज़ा लिया. यहां का “सेक्युलर वोट” सीपीएम और कांग्रेस का साथ छोड़कर अब ममता बनर्जी के साथ जाता दिख रहा है, क्योंकि इन मतदाताओं को लगता है कि ममता ही मोदी को रोक सकती हैं.

पेशे से दर्जी मोहम्मद इज़हार और वारिस अली कहते हैं कि उनके इलाके में लोग पहले लेफ्ट फ्रंट, कांग्रेस और टीएमसी को वोट देते आये लेकिन इस बार मुस्लिम समुदाय अपनी बिरादरी का वोट बंटने नहीं देगा.

कोलकाता में द स्टेट्समैन के कॉर्डिनेटिंग एडिटर उदय बसु मुस्लिम समाज की इस रणनीति को टैक्टिकल वोटिंग कहते हैं. उनका कहना है कि पूरे राज्य और खासतौर से सीमावर्ती जिलों में ऐसा ध्रुवीकरण पहले से कमज़ोर वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस को पूरी तरह से चित कर देगा. यह बात मोदी, अमित शाह और ममता बनर्जी तीनों जानते हैं.

बीजेपी पिछले लोकसभा चुनाव में अलीपुरद्वार सीट सबसे कम अंतर से हारी थी. इसीलिए अमित शाह ने चुनाव प्रचार की शुरुआत में ही यहां आकर “इमामों को मिल रहे भत्ते” से लेकर स्कूलों में “उर्दू थोपने” तक के सवाल उठाये और कहा कि बीजेपी सरकार बनी तो वह राज्य से “घुसपैठियों” को निकाल बाहर करेगी.

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(डायमंड हार्बर से सीपीएम के उम्मीदवार डॉ. फुहाद हलीम पेशे से चिकित्सक हैं लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने लेफ्ट और कांग्रेस की राह कठिन कर दी है. फोटो – हृदयेश जोशी)

“नरेंद्र मोदी की सरकार फिर से आने वाली है. बंगाल के अंदर हम एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ पॉपुलेशन) लेकर आयेंगे एक-एक घुसपैठिये को चुन-चुन कर निकालने का काम भारतीय जनता पार्टी सरकार करेगी.” अमित शाह ने अपने भाषण में यह भी ऐलान किया कि “सिख, बौद्ध और हिन्दू” शरणार्थियों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं है.

मोदी-शाह और बीजेपी नेताओं के ऐसे बयानों ने मुस्लिम समाज में असुरक्षा का एक और दरवाज़ा खोल दिया है. जिसका असर अलीपुरद्वार और बशीरहाट के साथ साथ मालदा, मुर्शीदाबाद, बलुरघाटर और रायगंज समेत बंगाल के दर्जन भर से अधिक ज़िलों देखा जा रहा है. इसीलिए ममता बनर्जी अपने हर भाषण में कहती हैं, “एनआरसी होना तो दूर उसका एन भी बंगाल में नहीं होगा.”

ममता ने एनआरसी का ज़िक्र अपने भाषणों तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि अपने कार्यकर्ताओं को हर घर तक यह पैगाम पहुंचाने को कहा है. डायमंड हार्बर लोकसभा सीट के मटियाबुर्ज इलाके में टीएमसी पार्षद अफताउद्दीन अहमद वोटरों को इस बारे में “सावधान” कर रहे हैं.

“ऐसा एक आदमी (नरेंद्र मोदी) जो हम लोगों को बांग्लादेश भेजने वाला है तो उसी को हम लोगों को हटाना है. उन्हें हमें प्रधानमंत्री की सीट से हटाकर वापस गुजरात भेजना है. यही बात हम सब लोगों को समझा रहे हैं,” अहमद ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया.

परिवारवाद से उपजा असंतोष और बीजेपी की सेंधमारी

पिछले 5 सालों में बंगाल में बीजेपी तेज़ी से फली-फूली है. 2011 के विधानसभा चुनावों में राज्य में केवल 4 प्रतिशत वोट लाने वाली पार्टी के पास तब कोई विधायक नहीं था. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने न केवल आसनसोल और दार्जिलिंग की दो लोकसभा सीटें जीतीं बल्कि उसे कुल 17% वोट भी मिला.

(कभी ममता बनर्जी के सबसे भरोसमंद सिपहसालार रहे मुकुल रॉय अब टीएमसी के लिये सबसे बड़ा ख़तरा हैं.)

मोदी लहर में हुए इन चुनावों में बीजेपी को विस्तार के लिये एक नया आकाश मिल गया. इसके 2 साल बाद 2016 के विधानसभा चुनावों जब ममता बनर्जी लोकप्रियता के शिखर पर थीं तो बीजेपी ने 3 विधायकों के साथ पश्चिम बंगाल विधानसभा में खाता तो खोला लेकिन पार्टी का वोट लोकसभा चुनावों के मुकाबले काफी कम रहा. केवल 10%.

टीएमसी के किले में बीजेपी की सेंधमारी का खेल इसके बाद शुरू होता है. टीएमसी में विभाजन की कोशिशों को हवा मिलनी तब तेज़ हुई जब ममता के सबसे भरोसेमंद मुकुल रॉय बीजेपी में शामिल हो गये.

मुकुल रॉय कहते हैं, “ममता की पार्टी अब एक लोकतांत्रिक पार्टी नहीं रही. वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. ममता उसकी एमडी (मैनेजिंग डायरेक्टर) हैं और उनके भतीजे उसके दूसरे डायरेक्टर हैं.”

ममता ने अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को पार्टी में अपने उत्तराधिकारी के रूप में बढ़ाना शुरू किया तो मुकुल रॉय और पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को अपना कद छोटा होता दिखने लगा. इसके बाद ही टीएमसी के विधायकों में नाराज़गी की ख़बरें आने लगीं.

(कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी बरहामपुर से उम्मीदवार हैं.)

आज विधायक अर्जुन सिंह टीएमसी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और बैरकपुर सीट पर वर्तमान सांसद दिनेश त्रिवेदी को कड़ी टक्कर दे रहे हैं. अर्जुन सिंह कहते हैं, “ममता बनर्जी एक तानाशाह हैं. उसने हमें अपना गुलाम समझा था. अब कोई उस पार्टी में नहीं रहना चाहता.” हालांकि टीएमसी नेताओं का कहना है कि अर्जुन सिंह का “स्वाभिमान” तब जागा जब उन्हें टीएमसी से टिकट नहीं मिल पाया, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि तृणमूल के कई विधायक आज मुकुल रॉय के संपर्क में हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 29 अप्रैल को श्रीरामपुर में हुई रैली में खुलेआम कहा कि टीएमसी के 40 विधायक उनके संपर्क में हैं.

“प्रधानमंत्री तो बड़े नेता है. हम बंगाल में राजनीति करने वाले छोटे नेता हैं. मैं आपको बता रहा हूं कि 40 नहीं बल्कि टीएमसी के सवा सौ विधायक मेरे संपर्क में हैं,” मुकुल रॉय ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा.

राजनीतिक जानकार उदय बसु कहते हैं, “बंगाल में यह सबको मालूम है कि बीजेपी, टीएमसी के भीतर विभाजन चाहती है लेकिन पीएम का खुलेआम विधायकों के संपर्क में होने की बात कहना एक अप्रत्याशित बयान है. उनकी यह रणनीति ममता बनर्जी के खेमे में खलबली मचाने और बंगाल में अगले विधानसभा चुनावों को जीतने के लिये है.”

 भ्रष्टाचार के नारे और चुनावी हिंसा का डर  

ममता बनर्जी और मोदी दोनों एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के तीखे आरोप इन चुनावों में लगा रहे हैं. ममता बनर्जी ने राहुल गांधी का “चौकीदार चोर है” नारा बंगाल में जमकर इस्तेमाल किया है हालांकि खुद उनकी सरकार भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी के आरोपों से घिरी है.

“ममता बनर्जी के विरोधी और समर्थक दोनों भ्रष्टाचार के आरोप एक-दूसरे पर लगाते हैं. इन नारों का कुछ असर तो ज़रूर होगा. ममता की इमेज पर असर पड़ा है और मोदी के रफाल सौदे के बारे में जनता को अब पता चला है जो लोग पहले शायद नहीं जानते होंगे,” दमदम के सोधपुर इलाके में एक दुकानदार भीमा बली ने मुझे बताया.

लेकिन क्षेत्रवार वोटरों को देखने से स्पष्ट होता है कि बीजेपी का समर्थन शहरों और कस्बाई इलाकों में है, तो ममता की ताकत गांवों में. कोलकाता से 50 किलोमीटर दूर नहटी गांव में 40 साल की केया दास को टीएमसी सरकार की योजनाओं का फायदा मिला है. वह आज सड़क किनारे एक दुकान चलाती हैं.

अकेले 5 लोगों के परिवार को पालने वाली केया दास कहती हैं, “दीदी (ममता) बहुत दयालु हैं. गरीब को बहुत कुछ देती है. उनको प्रधानमंत्री बनना चाहिये.” एक ओर जहां टीएमसी के राज में भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी के आरोप लग रहे हैं वहीं राज्य सरकार की दो दर्जन से अधिक योजनाओं ने केया जैसे लोगों को टीएमसी के साथ जोड़ने में अहम भूमिका अदा की है.

कन्याश्री प्रकल्प (पढ़ाई करने और 18 साल तक शादी न करने के लिये कैश ट्रांसफर), सुबूझ साथी (स्कूली बच्चों को साइकिल), खाद्यश्री (राशन), गतिधारा (वाहन के लिये ऋण में सब्सिडी) और स्वास्थ्य साथी (हेल्थ स्कीम) जैसी योजनाओं के दम पर ममता बनर्जी बंगाल की जनता का साथ होने का दावा करती हैं.

“बच्चे के जन्म से लेकर अपने पैरों पर खड़े होने और शादी होने तक हर मौके के लिये दीदी ने योजना बनायी हुई है,” बशीरहाट से टीएमसी उम्मीदवार नुसरत जहां कहती हैं.

लेकिन तृणमूल कांग्रेस के विरोधियों का कहना है ममता की ताकत सामाजिक योजनाओं से अधिक काडर के दबंग रवैये और राज्य के पुलिस तंत्र में बसी है, जो अपराधियों को संरक्षण देता है. पिछले साल पंचायत चुनावों में भारी हिंसा हुई और टीएमसी एक तिहाई से अधिक सीटें निर्विरोध जीत गयी.

“पिछले साल हमारी पार्टी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हारी लेकिन एक भी व्यक्ति को नहीं मारा गया, लेकिन बंगाल के स्थानीय चुनावों में 100 से ज्यादा लोगों की हत्या हुई. ममता बनर्जी लोकतंत्र की हत्या कर रही हैं. पंचायत चुनावों में 34% लोगों को नामांकन तक नहीं भरने दिया गया. मतदान और मतगणना दोनों में धांधली हुई,” मुकुल रॉय बताते हैं.

आरोप-प्रत्यारोप और धुंआंधार प्रचार के बीच उत्तर प्रदेश के साथ बंगाल 2019 का सबसे महत्वपूर्ण राज्य होने जा रहा है. कोलकाता हाइकोर्ट के वकील और राजनीतिक जानकार अनिर्बान बनर्जी कहते हैं कि ममता ने कभी नहीं सोचा था कि बीजेपी उनके लिये इतनी बड़ी चुनौती बनेगी. उनके मुताबिक लेफ्ट फ्रंट को हराने के बाद ममता भगवा पार्टी को कांग्रेस और लेफ्ट पर नियंत्रण के लिये इस्तेमाल करना चाहती थी, लेकिन आरएसएस और वीएचपी ने अब यहां अपना तंत्र पूरी तरह फैला लिया है.

“टीएमसी ने बीजेपी को हल्के में लिया और संघ परिवार के संगठन बंगाल समेत समस्त उत्तर-पूर्वी भारत में अपना पैर पसारते रहे. अचानक ममता को एहसास हुआ कि अब बीजेपी दूसरे स्थान के लिये नहीं, बल्कि पहले स्थान के लिये लड़ रही है. ऐसे में टीएमसी के लिये बीजेपी के संगठित तंत्र का सामना करना मुश्किल होता जा रहा है.” अनिर्बान कहते हैं.

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