100 दिन का किसान आंदोलन और दैनिक जागरण के पत्रकारीय पतन की सौ कहानियां

जागरण प्रकाशन की खबरें पत्रकारिता के मूल मानदंडों से कोसों दूर हैं. दैनिक जागरण ने लंबे समय से एक ही विचारधारा के मुखपृष्ठ के रूप में काम किया है और अपने कारोबार को आगे बढ़ते हुए आज सबसे ज्यादा बिकने वाले दैनिक समाचार पत्र की तर्ज़ पर स्थापित है.

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जागरण यानी वह अवस्था जिसमें सब वृत्तियां जाग्रत हो जाएं. ऐसा कहा जाता है कि जो जाग्रत (जागरण अवस्था में) है, वह ही सजग है. यानी जागरण शब्द का सजगता के साथ घनिष्ठ संबंध है. नागार्जुन ने केदारनाथ अग्रवाल के ‘जनगण-मन के जाग्रत शिल्प’ के सम्मान में ही अपनी कविता ‘ओ जन मन के सजग चितेरे’ की रचना की थी. महादेवी वर्मा जब ‘चिर सजग आंखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना, जाग तुझको दूर जाना’ रचते हुए ‘जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले’ का आह्वान करती हैं, तो वह भी उन्हीं वृत्तियों को जाग्रत करने की बात करती हैं, जहां ‘मोम के बंधनों से मुक्त’ हो ‘तितलियों के रंगीले पर’ फिर पथ की बाधा नहीं बनते.

दैनिक जागरण अखबार की शुरुआत सन 1942 में पूरन चंद्र गुप्ता ने की थी. अखबार का टैगलाइन है –‘राइज़ एण्ड शाइन विद दैनिक जागरण’ यानी दैनिक जागरण के साथ जागरूक हों और आगे बढ़ें. ज़ाहिर ही है कि दैनिक जागरण की शाब्दिक स्थापना में ही जागरूकता के अर्थ-संयोजन का समावेश है. लेकिन क्या जागरूकता का काम पक्षपात के साथ संभव है?

दैनिक जागरण का प्रकाशन जागरण प्रकाशन कंपनी के अंतर्गत होता है, जिसमें पूरन चंद्र गुप्ता के परिवार का कुल शेयर 60.63% का है. जागरण कंपनी की वेबसाइट के अनुसार दैनिक जागरण की शुरुआत भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जनता की स्वतंत्र आवाज़ बनने की प्रस्तावना के साथ हुई थी. स्वतंत्र यानी किसी पक्ष, दबाव, भय से मुक्त. जागरण के प्रसार की शाब्दिक-संरचना बेहद सुरुचिपूर्ण है. आखिर जनता को और क्या चाहिए. एक ऐसा अखबार जो उसकी स्वतंत्र आवाज़ को पूरी निर्भीकता के साथ आगे ले जाए और अपनी निष्पक्ष खबरों के साथ जनता की जागरूकता बढ़ाए. सवाल यह है कि अखबार के प्रसार को शोभायमान करती यह शाब्दिक-संरचना दैनिक जागरण के लिए कितनी प्रासंगिक है?

तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली के बॉर्डर पर किसानों के आंदोलन को सौ दिन बीत चुके हैं. इस बीच किसान नेताओं और सरकार के बीच 11 दौर की बातचीत के बाद नतीजा सिफ़र ही रहा है. इस बीच बॉर्डर पर बैठे किसानों में 200 से ज्यादा की जानें जा चुकी हैं. बॉर्डर पर हो रही किसानों की मौतों के बरक्स सरकार ने बॉर्डर पर ही कीलें ठुकवाने, नेटवर्क जैमर लगाने, सीमेंट के विशाल पत्थरों से बैरिकेटिंग लगवाने का काम किया है. लोकतान्त्रिक देश में आन्दोलनरत किसानों को शौचालय, पानी, बिजली जैसी मूलभूत ज़रूरतों से भी बार-बार वंचित किया गया है. कई किसान नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज किये गए हैं. न सिर्फ आन्दोलनरत किसानों में से कइयों को गिरफ्तार किया गया है, बल्कि किसान आंदोलन की ख़बर का कवरेज करते कुछ पत्रकारों के खिलाफ भी मामले दर्ज किये गए हैं. किसान आंदोलन पर सरकार के इस रवैये के प्रति किसानों के आक्रोश ने देश भर में आंदोलन को व्यापक समर्थन के साथ तीव्रता दी है. लाखों की संख्या में अपनी उपस्थिति के साथ किसान महापंचायतों के आयोजन इसका उदाहरण हैं. किसान आंदोलन की व्यापकता को तमाम विदेशी मीडिया संस्थानों ने भी अपनी खबरों, प्रकाशनों में प्रमुखता के साथ छापा और प्रसारित किया है.

इन सबके बीच राइज़ एण्ड शाइन विद दैनिक जागरण के टैग लाइन के साथ अखबार में प्रकाशित खबरें विचारणीय हैं. किसी भी ख़बर का सार उसके शीर्षक से ही पता चल जाता है. यहां विश्लेषण के लिए अखबार के विभिन्न प्रदेशों के संस्करणो में आंदोलन से संबंधित छपी खबरों के शीर्षक दिए जा रहे हैं –

कृषि मंत्री बोले– सरकार बातचीत को तैयार, लेकिन किसान कानून हटाने पर अड़े (17.01.2021) (राष्ट्रीय)

पंजाब के कांग्रेस नेता ने कहा– किसान आंदोलन में खालिस्तानी आतंकी भी घुसे, पहचान कर इन्हें खदेड़ें (18.01.2021) (हिसार)

भूपिंदर सिंह मान समिति से हटने का फैसला यही बता रहा कि वह उग्र माहौल का नहीं कर सकते सामना (15.01.2021)

वाटरप्रूफ तंबुओं में बैठे समर्थक किसानों के अड़ियल तेवरों के बीच गुम हुए ‘छोटे किसानों’ के आवश्यक मुद्दे (15.01.2021)

किसानों के आईटी सेल के कनाडा कनेक्शन से सुरक्षा एजेंसी चौकस (17.01.2021) (दिल्ली)

यह कैसा शांति मार्च: पंजाब में बड़े पैमाने पर ट्रैक्टरों में लगवाए जा रहे हैं लोहे के रॉड (16.01.2021) (चंडीगढ़, पंजाब)

बर्बादी की ओर ले जा रहा है आंदोलन, क्या किसान ही किसान के दुश्मन हो गए? (6.03.2021) (नई दिल्ली)

कृषि कानूनों को रद्द करवाने की जिद पर अड़े हैं प्रदर्शनकारी (15.01.2021)

अलीगढ़ में सपा किसान पंचायत का सच, खेतों से सदन पहुंचने की राह तलाश रही सपा (6.03.2021) (अलीगढ़, उत्तर प्रदेश)

किसान नहीं दलाल कर रहे नए कृषि कानूनों का विरोध (3.03.2021) (भागलपुर, बिहार)

नारों से नहीं, अन्न से मिटती है पेट की भूख (9.12.2020) (गोरखपुर, उत्तर प्रदेश)

इस ख़बर के शीर्षक से ज्यादा रोचक होगा अंदर की ख़बर को देखना, जिसमें ‘ये हैं असली अन्नदाता’ लिखते हुए असली अन्नदाता को समझने की कोशिश की गई है. जागरण की ख़बर के अनुसार ये कौन हैं, उनके विश्लेषण से ही समझा जाए– आंदोलन में शामिल न होकर अपने खेतों की बुआई और फसल काटने में जुटे हैं गाजियाबाद के किसान. इसी प्रकार अखबार का मुख-पृष्ठ भी आंदोलन को लेकर सरकार के वक्तव्यों से भरा हुआ है, जैसे– दंगाइयों के पोस्टर ठीक नहीं. (12.12.2020)

रातों रात नहीं हुए कृषि सुधार: मोदी

प्रधानमंत्री ने कहा, 20-30 साल से किसानों व अन्य पक्षों से चल रहा विचार-विमर्श का सिलसिला (19.12.2020)

किसानों को प्रदर्शन का अधिकार, लेकिन दूसरों के मौलिक अधिकार बाधित न हों

किसान आंदोलन पर तीखी टिप्पणी के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा– नहीं देंगे दखल (18.12.2020)

खबरों के विश्लेषण के क्रम में अखबार में संपादकीय पृष्ठ पर स्तंभकारों के प्रकाशित लेखों के शीर्षकों पर गौर करना भी जरूरी है–

अड़ियल रवैये वाला आंदोलन: प्रदीप सिंह (10.10.2020)

राजनीतिक हथियार बनी पुरस्कार वापसी: हृदयनारायण दीक्षित (7.12.2020)

खतरनाक राह पर आंदोलन: संजय गुप्त (13.12.2020)

किसानों को मोहरा बनाते राजनीतिक दल: त्रिवेंद्र सिंह रावत (18.12.2020)

भूल सुधार हैं नए कृषि कानून: अरविन्द पानगणिया (19.12.2020)

घाटे का सौदा है एमएसपी: अभिनव प्रकाश (12.12.2020)

कृषि का कायाकल्प करने वाले कानून: अशोक गुलाटी (11.12.2020)

उपरोक्त शीर्षकों से ही आंदोलन के प्रति लेखकों का रुख साफ नजर आता है. यहां इन स्तंभकारों के बारे में भिज्ञता प्रासंगिक ही होगी. हृदयनारायण दीक्षित उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं, जबकि त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री. अभिनव प्रकाश दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं और खुद को राइट विंग का अम्बेडकरवादी कहते हैं. अरविन्द पानगड़िया का परिचय संपादकीय में अर्थशास्त्री और अमरीका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में ही किया गया है, जबकि वे नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष भी रहे हैं. अशोक गुलाटी वरिष्ठ कृषि-अर्थशास्त्री हैं और इन्हें हाल ही में कृषि कानूनों पर उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित समिति का सदस्य मनोनीत किया गया है. हालांकि किसान आंदोलन ने इस समिति की निष्पक्षता पर पहले ही संदेह ज़ाहिर किया है. संजय गुप्त दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं और हाल में ही उन्हें प्रसार भारती बोर्ड का अंशकालिक सदस्य नियुक्त किया गया है. यहां संपादकीय पृष्ठ पर छपे स्तंभकारों के संक्षिप्त परिचय के साथ उनके लेखों का संदर्भ और स्पष्ट हो जाता है. जागरण में कृषि कानूनों और किसान आंदोलन पर खबरों-लेखों का अवलोकन करने पर अखबार का एकांगी पक्ष साफ दिखता है.

यहां कृषि कानूनों के पहले दैनिक जागरण पर काउन्टर करंट में छपे एक विश्लेषण की बानगी बेहद प्रासंगिक होगी. पत्रकार सैयद अली मुजतबा ने लॉकडाउन के दौरान जागरण में 28 मार्च से लेकर 11 अप्रैल, 2020 के बीच तबलीगी जमात से जुड़ी खबरों का एक विश्लेषण किया है, जिसके अनुसार इस मुद्दे पर कुल 171 खबरें, 8 संपादकीय, 5 संपादकीय कार्टून, दो स्तम्भ लेखों के साथ-साथ एक संस्करण में ‘वायरस की जमात’ शीर्षक से पूरा एक पृष्ठ इस ख़बर को दिया गया था. इनमें से कई लेखों में देशद्रोही, पाकिस्तान जैसे उद्बोधनों का बाकायदा इस्तेमाल हुआ था.

तबलीगी जमात के मामले में बाद में उच्चतम न्यायालय ने कोरोना महामारी की शुरुआत के समय जमात के आयोजन को लेकर मीडिया के एक वर्ग द्वारा मुस्लिमों के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाये जाने को लेकर दाखिल याचिका पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि हाल के समय में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का ‘सबसे ज्यादा’ दुरूपयोग हुआ है. कहना न होगा कि मीडिया के इस वर्ग में दैनिक जागरण भी शामिल था, जिनके बचाव में केंद्र की ओर से याचिकाकर्ताओं पर ही बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलना चाहते हैं जैसा आरोप लगा दिया गया.

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ज़ाहिर ही है कि संविधान कि धारा 19(1)(अ) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार बकौल सरकार सिर्फ उसके और उसके दुभाषिए मीडिया संस्थानों के पास ही रह गया है. फिर वह तबलीगी जमात के लोग हों या फिर किसान आंदोलन में शरीक हो रहे अन्नदाता, ‘अधिकार’ का संबंध अब हासिल होने से नहीं, सिर्फ प्रदत्त होने से रह गया है. नागरिक अधिकार अब संस्थानिक जामा पहनने वालों के शक्ति-कौशल और कृपा पर आश्रित है. बहरहाल! सवाल यह है कि जागरण जैसे मीडिया संस्थानों का सरकार के साथ इस रिश्ते की बुनियाद क्या है?

सेवन्ती निनन की एक किताब है– हेडलाइन्स फ्रॉम द हार्ट्लैन्ड: रीइंवेनटिंग द हिन्दी पब्लिक स्फीयर. किताब में उन्होंने विस्तार से हिन्दी जगत में विचार और वैचारिकी के निर्माण की यात्रा का कालक्रमबद्ध विश्लेषण किया है. दैनिक जागरण के बारे में उनकी राय स्पष्ट है– जागरण का सम्बद्ध शुरुआत से ही दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी-विचारधारा के साथ रहा है. यानी जागरण के संपादक पूरन चंद्र गुप्ता की जनता की स्वतंत्र आवाज़ बनने की प्रस्तावना अपनी शुरुआत के साथ ही एकांगी निहितार्थों के बीच पोषित हुई है. गुप्ता परिवार के ही संजय गुप्त हैं, जिनका ब्यौरा ऊपर दिया जा चुका है. जागरण के पूर्व प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन भारतीय जनता पार्टी द्वारा मनोनीत राज्य सभा सांसद रहे हैं.

अखबार के साथ-साथ जागरण समूह का कारोबार सीमेंट से लेकर रियल एस्टेट तक फैला, जिसको बचाने के लिए गुप्ता परिवार के ही एक अन्य सदस्य और दैनिक जागरण के प्रबंध निदेशक महेंद्र मोहन गुप्ता का तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार से करीबी रिश्ता बना और उन्हें समाजवादी पार्टी ने राज्य सभा में सांसद मनोनीत किया. फिलहाल जागरण प्रकाशन कंपनी ने दैनिक जागरण के साथ-साथ मिड-डे, नई दुनिया, पंजाबी जागरण, जागरण कोश, इंक़लाब, इनेक्स्ट जैसे प्रकाशनों के साथ अपने कारोबार को काफी आगे बढ़ा लिया है. यहां न्यूजलॉन्ड्री में प्रकाशित आयुष तिवारी और वसंत कुमार की एक रिपोर्ट का उल्लेख प्रासंगिक होगा, जिसके अनुसार मात्र पांच साल के भीतर (वर्ष 2015 से 2019 के बीच) जागरण समूह के प्रकाशनों दैनिक जागरण, मिड-डे, इंक़लाब को कुल 88 करोड़, 77लाख, 26हजार दो सौ छप्पन हजार का विज्ञापन सिर्फ केंद्र सरकार द्वारा दिया गया है.

मार्च 2018 में कोबरा पोस्ट के एक स्टिंग ऑपरेशन में कोबरा पोस्ट के एक पत्रकार ने दैनिक जागरण के बिहार, झारखंड, उड़ीसा के एरिया मैनेजर से पश्चिम बंगाल में हिन्दुत्व के प्रसार के लिए एक अभियान चलाने की बात की. जागरण के अधिकारी ने कोबरा पोस्ट के पत्रकार के साथ कैश-डील के बीच बताया कि वैसे भी उनका अखबार पहले ही हिन्दुत्व के पैरोकार के लिए जाना जाता है. कोबरा पोस्ट की यह स्टिंग रिपोर्ट खबरों के कारोबार को समझने के लिए रोचक है.

रिपोर्ट में संपादकीय के प्रबंधन से लेकर खबरों के खरीद-फरोख्त के साथ आम समझ बनाने और उसके लिए बंगाल में नेटवर्क के पहले ही मौजूद होने, भड़काऊ खबरों के प्रचार-प्रसार के साथ वर्तमान पश्चिम बंगाल सरकार की छवि धूमिल करने संबंधी बातचीत के विवरण मौजूद हैं. कोबरा पोस्ट के ही एक अन्य स्टिंग रिपोर्ट के मुताबिक जागरण के विज्ञापन प्रभारी और विपणन (मार्केटिंग) प्रबंधक से कोबरा पोस्ट के पत्रकार के साथ खबरों में फेरबदल करने को लेकर 2.09 करोड़ की कैश-डील करते वक़्त जागरण के दोनों ही अधिकारियों ने यह कहा कि ‘वैसे भी उनका अखबार भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में खबरें देता रहा है और अखबार ने कभी भी पार्टी के खिलाफ जाकर काम नहीं किया है. विज्ञापन प्रभारी ने यह भी माना कि उनके मुख्य संपादक मनोज गुप्ता अपने साप्ताहिक कॉलम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम को उभारते रहे हैं.

वर्ष 2012 में चुनाव आयोग ने दैनिक जागरण और अमर उजाला में राष्ट्रीय परिवर्तन दल के एक सदस्य के नामांकन को दैनिक जागरण और अमर उजाला में खबरों के खरीद-फरोख्त के आरोप को खारिज कर दिया था. हाथरस घटना हो या कठुआ रेप पर अखबार में प्रकाशित खबरों का मामला, दैनिक जागरण का नाम विवादित ही रहा है. अखबार ने दोनों ही मामलों में पीड़िता के परिवार पर ही आरोप लगा दिया था. बाद में विवाद होने पर अखबार को दोनों घटनाओं पर अपना रुख बदलना पड़ा था. पहले भी दैनिक जागरण पत्रकारिता के मानदंडों के उल्लंघन और झूठी खबरों के प्रकाशन के आरोप में एडिटर्स गिल्ड के जांच के दायरे में आ चुका है. हालांकि जांच समिति के अखबार के दफ्तर पहुंचने से पहले ही मामला कोर्ट से बाहर ही निपटा लिया गया था.

भारतीय प्रेस परिषद (प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया) द्वारा जारी पत्रकारिता-संबंधी आचरण के मानदंड (नॉर्मस ऑफ जर्नलिस्टिक कंडक्ट) के अनुसार तथ्यात्मकता और निष्पक्षता पत्रकारिता के सबसे महत्वपूर्ण मूल्य हैं. कहना न होगा जागरण प्रकाशन की खबरें पत्रकारिता के मूल मानदंडों से कोसों दूर हैं. दैनिक जागरण ने लंबे समय से एक ही विचारधारा के मुखपृष्ठ के रूप में काम किया है और अपने कारोबार को आगे बढ़ते हुए आज सबसे ज्यादा बिकने वाले दैनिक समाचार पत्र की तर्ज़ पर स्थापित है.

सन् 2002 में उच्चतम न्यायालय ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के एक केस में रेखांकित किया था कि एक तरफा सूचना, दुष्प्रचार, गलत सूचना और गैर-जानकारी, सभी समान रूप से अनभिज्ञ नागरिकता का निर्माण करते हैं और इस तरह लोकतंत्र को बेहद कमजोर करते हैं. ‘दैनिक जागरण’ की अब तक की यात्रा में ‘राइज़ एंड शाइन’ का अर्थ-विन्यास इसके शाब्दिक संरचना के प्रतिकूल स्थापित होता है नए अर्थ प्रक्षेपित करते हुए– जहां केंद्र में कारोबार है, एकपक्षीय दृष्टिकोण है. जो ‘मोम के बंधनों से’ पूरी तरह बंधा हुआ है, जिसके लिए ‘तितलियों के रंगीले पर’ ही केंद्र हैं. व्याकरणिक दृष्टि से ‘सजग’ बहुव्रीहि समास के अंतर्गत आता है जहां दोनों पद मिलकर किसी तीसरे पद की ओर संकेत करते हैं.

जागरण ने सजगता, जागरूकता जैसे शब्दों का एक चौथा ही अर्थ निकाल लिया है. सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले इस अखबार ने लंबे समय में अपना अलग पाठक-वर्ग तैयार कर लिया है– जिसका मानस बेहद संकुचित, एकांगी खबरों-जानकारियों के साथ बना है, जो हिंसक भी है और वैचारिकी के अभाव में भीरु भी. सजगता के प्रति जागरण की यह प्रतिकूल यात्रा अभी लंबे समय तक जारी रहने वाली है. और यह लाजिमी भी है कि जहां चौकीदार, वहीं उसका अखबार!

जागरण यानी वह अवस्था जिसमें सब वृत्तियां जाग्रत हो जाएं. ऐसा कहा जाता है कि जो जाग्रत (जागरण अवस्था में) है, वह ही सजग है. यानी जागरण शब्द का सजगता के साथ घनिष्ठ संबंध है. नागार्जुन ने केदारनाथ अग्रवाल के ‘जनगण-मन के जाग्रत शिल्प’ के सम्मान में ही अपनी कविता ‘ओ जन मन के सजग चितेरे’ की रचना की थी. महादेवी वर्मा जब ‘चिर सजग आंखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना, जाग तुझको दूर जाना’ रचते हुए ‘जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले’ का आह्वान करती हैं, तो वह भी उन्हीं वृत्तियों को जाग्रत करने की बात करती हैं, जहां ‘मोम के बंधनों से मुक्त’ हो ‘तितलियों के रंगीले पर’ फिर पथ की बाधा नहीं बनते.

दैनिक जागरण अखबार की शुरुआत सन 1942 में पूरन चंद्र गुप्ता ने की थी. अखबार का टैगलाइन है –‘राइज़ एण्ड शाइन विद दैनिक जागरण’ यानी दैनिक जागरण के साथ जागरूक हों और आगे बढ़ें. ज़ाहिर ही है कि दैनिक जागरण की शाब्दिक स्थापना में ही जागरूकता के अर्थ-संयोजन का समावेश है. लेकिन क्या जागरूकता का काम पक्षपात के साथ संभव है?

दैनिक जागरण का प्रकाशन जागरण प्रकाशन कंपनी के अंतर्गत होता है, जिसमें पूरन चंद्र गुप्ता के परिवार का कुल शेयर 60.63% का है. जागरण कंपनी की वेबसाइट के अनुसार दैनिक जागरण की शुरुआत भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जनता की स्वतंत्र आवाज़ बनने की प्रस्तावना के साथ हुई थी. स्वतंत्र यानी किसी पक्ष, दबाव, भय से मुक्त. जागरण के प्रसार की शाब्दिक-संरचना बेहद सुरुचिपूर्ण है. आखिर जनता को और क्या चाहिए. एक ऐसा अखबार जो उसकी स्वतंत्र आवाज़ को पूरी निर्भीकता के साथ आगे ले जाए और अपनी निष्पक्ष खबरों के साथ जनता की जागरूकता बढ़ाए. सवाल यह है कि अखबार के प्रसार को शोभायमान करती यह शाब्दिक-संरचना दैनिक जागरण के लिए कितनी प्रासंगिक है?

तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली के बॉर्डर पर किसानों के आंदोलन को सौ दिन बीत चुके हैं. इस बीच किसान नेताओं और सरकार के बीच 11 दौर की बातचीत के बाद नतीजा सिफ़र ही रहा है. इस बीच बॉर्डर पर बैठे किसानों में 200 से ज्यादा की जानें जा चुकी हैं. बॉर्डर पर हो रही किसानों की मौतों के बरक्स सरकार ने बॉर्डर पर ही कीलें ठुकवाने, नेटवर्क जैमर लगाने, सीमेंट के विशाल पत्थरों से बैरिकेटिंग लगवाने का काम किया है. लोकतान्त्रिक देश में आन्दोलनरत किसानों को शौचालय, पानी, बिजली जैसी मूलभूत ज़रूरतों से भी बार-बार वंचित किया गया है. कई किसान नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज किये गए हैं. न सिर्फ आन्दोलनरत किसानों में से कइयों को गिरफ्तार किया गया है, बल्कि किसान आंदोलन की ख़बर का कवरेज करते कुछ पत्रकारों के खिलाफ भी मामले दर्ज किये गए हैं. किसान आंदोलन पर सरकार के इस रवैये के प्रति किसानों के आक्रोश ने देश भर में आंदोलन को व्यापक समर्थन के साथ तीव्रता दी है. लाखों की संख्या में अपनी उपस्थिति के साथ किसान महापंचायतों के आयोजन इसका उदाहरण हैं. किसान आंदोलन की व्यापकता को तमाम विदेशी मीडिया संस्थानों ने भी अपनी खबरों, प्रकाशनों में प्रमुखता के साथ छापा और प्रसारित किया है.

इन सबके बीच राइज़ एण्ड शाइन विद दैनिक जागरण के टैग लाइन के साथ अखबार में प्रकाशित खबरें विचारणीय हैं. किसी भी ख़बर का सार उसके शीर्षक से ही पता चल जाता है. यहां विश्लेषण के लिए अखबार के विभिन्न प्रदेशों के संस्करणो में आंदोलन से संबंधित छपी खबरों के शीर्षक दिए जा रहे हैं –

कृषि मंत्री बोले– सरकार बातचीत को तैयार, लेकिन किसान कानून हटाने पर अड़े (17.01.2021) (राष्ट्रीय)

पंजाब के कांग्रेस नेता ने कहा– किसान आंदोलन में खालिस्तानी आतंकी भी घुसे, पहचान कर इन्हें खदेड़ें (18.01.2021) (हिसार)

भूपिंदर सिंह मान समिति से हटने का फैसला यही बता रहा कि वह उग्र माहौल का नहीं कर सकते सामना (15.01.2021)

वाटरप्रूफ तंबुओं में बैठे समर्थक किसानों के अड़ियल तेवरों के बीच गुम हुए ‘छोटे किसानों’ के आवश्यक मुद्दे (15.01.2021)

किसानों के आईटी सेल के कनाडा कनेक्शन से सुरक्षा एजेंसी चौकस (17.01.2021) (दिल्ली)

यह कैसा शांति मार्च: पंजाब में बड़े पैमाने पर ट्रैक्टरों में लगवाए जा रहे हैं लोहे के रॉड (16.01.2021) (चंडीगढ़, पंजाब)

बर्बादी की ओर ले जा रहा है आंदोलन, क्या किसान ही किसान के दुश्मन हो गए? (6.03.2021) (नई दिल्ली)

कृषि कानूनों को रद्द करवाने की जिद पर अड़े हैं प्रदर्शनकारी (15.01.2021)

अलीगढ़ में सपा किसान पंचायत का सच, खेतों से सदन पहुंचने की राह तलाश रही सपा (6.03.2021) (अलीगढ़, उत्तर प्रदेश)

किसान नहीं दलाल कर रहे नए कृषि कानूनों का विरोध (3.03.2021) (भागलपुर, बिहार)

नारों से नहीं, अन्न से मिटती है पेट की भूख (9.12.2020) (गोरखपुर, उत्तर प्रदेश)

इस ख़बर के शीर्षक से ज्यादा रोचक होगा अंदर की ख़बर को देखना, जिसमें ‘ये हैं असली अन्नदाता’ लिखते हुए असली अन्नदाता को समझने की कोशिश की गई है. जागरण की ख़बर के अनुसार ये कौन हैं, उनके विश्लेषण से ही समझा जाए– आंदोलन में शामिल न होकर अपने खेतों की बुआई और फसल काटने में जुटे हैं गाजियाबाद के किसान. इसी प्रकार अखबार का मुख-पृष्ठ भी आंदोलन को लेकर सरकार के वक्तव्यों से भरा हुआ है, जैसे– दंगाइयों के पोस्टर ठीक नहीं. (12.12.2020)

रातों रात नहीं हुए कृषि सुधार: मोदी

प्रधानमंत्री ने कहा, 20-30 साल से किसानों व अन्य पक्षों से चल रहा विचार-विमर्श का सिलसिला (19.12.2020)

किसानों को प्रदर्शन का अधिकार, लेकिन दूसरों के मौलिक अधिकार बाधित न हों

किसान आंदोलन पर तीखी टिप्पणी के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा– नहीं देंगे दखल (18.12.2020)

खबरों के विश्लेषण के क्रम में अखबार में संपादकीय पृष्ठ पर स्तंभकारों के प्रकाशित लेखों के शीर्षकों पर गौर करना भी जरूरी है–

अड़ियल रवैये वाला आंदोलन: प्रदीप सिंह (10.10.2020)

राजनीतिक हथियार बनी पुरस्कार वापसी: हृदयनारायण दीक्षित (7.12.2020)

खतरनाक राह पर आंदोलन: संजय गुप्त (13.12.2020)

किसानों को मोहरा बनाते राजनीतिक दल: त्रिवेंद्र सिंह रावत (18.12.2020)

भूल सुधार हैं नए कृषि कानून: अरविन्द पानगणिया (19.12.2020)

घाटे का सौदा है एमएसपी: अभिनव प्रकाश (12.12.2020)

कृषि का कायाकल्प करने वाले कानून: अशोक गुलाटी (11.12.2020)

उपरोक्त शीर्षकों से ही आंदोलन के प्रति लेखकों का रुख साफ नजर आता है. यहां इन स्तंभकारों के बारे में भिज्ञता प्रासंगिक ही होगी. हृदयनारायण दीक्षित उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं, जबकि त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री. अभिनव प्रकाश दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं और खुद को राइट विंग का अम्बेडकरवादी कहते हैं. अरविन्द पानगड़िया का परिचय संपादकीय में अर्थशास्त्री और अमरीका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में ही किया गया है, जबकि वे नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष भी रहे हैं. अशोक गुलाटी वरिष्ठ कृषि-अर्थशास्त्री हैं और इन्हें हाल ही में कृषि कानूनों पर उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित समिति का सदस्य मनोनीत किया गया है. हालांकि किसान आंदोलन ने इस समिति की निष्पक्षता पर पहले ही संदेह ज़ाहिर किया है. संजय गुप्त दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं और हाल में ही उन्हें प्रसार भारती बोर्ड का अंशकालिक सदस्य नियुक्त किया गया है. यहां संपादकीय पृष्ठ पर छपे स्तंभकारों के संक्षिप्त परिचय के साथ उनके लेखों का संदर्भ और स्पष्ट हो जाता है. जागरण में कृषि कानूनों और किसान आंदोलन पर खबरों-लेखों का अवलोकन करने पर अखबार का एकांगी पक्ष साफ दिखता है.

यहां कृषि कानूनों के पहले दैनिक जागरण पर काउन्टर करंट में छपे एक विश्लेषण की बानगी बेहद प्रासंगिक होगी. पत्रकार सैयद अली मुजतबा ने लॉकडाउन के दौरान जागरण में 28 मार्च से लेकर 11 अप्रैल, 2020 के बीच तबलीगी जमात से जुड़ी खबरों का एक विश्लेषण किया है, जिसके अनुसार इस मुद्दे पर कुल 171 खबरें, 8 संपादकीय, 5 संपादकीय कार्टून, दो स्तम्भ लेखों के साथ-साथ एक संस्करण में ‘वायरस की जमात’ शीर्षक से पूरा एक पृष्ठ इस ख़बर को दिया गया था. इनमें से कई लेखों में देशद्रोही, पाकिस्तान जैसे उद्बोधनों का बाकायदा इस्तेमाल हुआ था.

तबलीगी जमात के मामले में बाद में उच्चतम न्यायालय ने कोरोना महामारी की शुरुआत के समय जमात के आयोजन को लेकर मीडिया के एक वर्ग द्वारा मुस्लिमों के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाये जाने को लेकर दाखिल याचिका पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि हाल के समय में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का ‘सबसे ज्यादा’ दुरूपयोग हुआ है. कहना न होगा कि मीडिया के इस वर्ग में दैनिक जागरण भी शामिल था, जिनके बचाव में केंद्र की ओर से याचिकाकर्ताओं पर ही बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलना चाहते हैं जैसा आरोप लगा दिया गया.

ज़ाहिर ही है कि संविधान कि धारा 19(1)(अ) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार बकौल सरकार सिर्फ उसके और उसके दुभाषिए मीडिया संस्थानों के पास ही रह गया है. फिर वह तबलीगी जमात के लोग हों या फिर किसान आंदोलन में शरीक हो रहे अन्नदाता, ‘अधिकार’ का संबंध अब हासिल होने से नहीं, सिर्फ प्रदत्त होने से रह गया है. नागरिक अधिकार अब संस्थानिक जामा पहनने वालों के शक्ति-कौशल और कृपा पर आश्रित है. बहरहाल! सवाल यह है कि जागरण जैसे मीडिया संस्थानों का सरकार के साथ इस रिश्ते की बुनियाद क्या है?

सेवन्ती निनन की एक किताब है– हेडलाइन्स फ्रॉम द हार्ट्लैन्ड: रीइंवेनटिंग द हिन्दी पब्लिक स्फीयर. किताब में उन्होंने विस्तार से हिन्दी जगत में विचार और वैचारिकी के निर्माण की यात्रा का कालक्रमबद्ध विश्लेषण किया है. दैनिक जागरण के बारे में उनकी राय स्पष्ट है– जागरण का सम्बद्ध शुरुआत से ही दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी-विचारधारा के साथ रहा है. यानी जागरण के संपादक पूरन चंद्र गुप्ता की जनता की स्वतंत्र आवाज़ बनने की प्रस्तावना अपनी शुरुआत के साथ ही एकांगी निहितार्थों के बीच पोषित हुई है. गुप्ता परिवार के ही संजय गुप्त हैं, जिनका ब्यौरा ऊपर दिया जा चुका है. जागरण के पूर्व प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन भारतीय जनता पार्टी द्वारा मनोनीत राज्य सभा सांसद रहे हैं.

अखबार के साथ-साथ जागरण समूह का कारोबार सीमेंट से लेकर रियल एस्टेट तक फैला, जिसको बचाने के लिए गुप्ता परिवार के ही एक अन्य सदस्य और दैनिक जागरण के प्रबंध निदेशक महेंद्र मोहन गुप्ता का तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार से करीबी रिश्ता बना और उन्हें समाजवादी पार्टी ने राज्य सभा में सांसद मनोनीत किया. फिलहाल जागरण प्रकाशन कंपनी ने दैनिक जागरण के साथ-साथ मिड-डे, नई दुनिया, पंजाबी जागरण, जागरण कोश, इंक़लाब, इनेक्स्ट जैसे प्रकाशनों के साथ अपने कारोबार को काफी आगे बढ़ा लिया है. यहां न्यूजलॉन्ड्री में प्रकाशित आयुष तिवारी और वसंत कुमार की एक रिपोर्ट का उल्लेख प्रासंगिक होगा, जिसके अनुसार मात्र पांच साल के भीतर (वर्ष 2015 से 2019 के बीच) जागरण समूह के प्रकाशनों दैनिक जागरण, मिड-डे, इंक़लाब को कुल 88 करोड़, 77लाख, 26हजार दो सौ छप्पन हजार का विज्ञापन सिर्फ केंद्र सरकार द्वारा दिया गया है.

मार्च 2018 में कोबरा पोस्ट के एक स्टिंग ऑपरेशन में कोबरा पोस्ट के एक पत्रकार ने दैनिक जागरण के बिहार, झारखंड, उड़ीसा के एरिया मैनेजर से पश्चिम बंगाल में हिन्दुत्व के प्रसार के लिए एक अभियान चलाने की बात की. जागरण के अधिकारी ने कोबरा पोस्ट के पत्रकार के साथ कैश-डील के बीच बताया कि वैसे भी उनका अखबार पहले ही हिन्दुत्व के पैरोकार के लिए जाना जाता है. कोबरा पोस्ट की यह स्टिंग रिपोर्ट खबरों के कारोबार को समझने के लिए रोचक है.

रिपोर्ट में संपादकीय के प्रबंधन से लेकर खबरों के खरीद-फरोख्त के साथ आम समझ बनाने और उसके लिए बंगाल में नेटवर्क के पहले ही मौजूद होने, भड़काऊ खबरों के प्रचार-प्रसार के साथ वर्तमान पश्चिम बंगाल सरकार की छवि धूमिल करने संबंधी बातचीत के विवरण मौजूद हैं. कोबरा पोस्ट के ही एक अन्य स्टिंग रिपोर्ट के मुताबिक जागरण के विज्ञापन प्रभारी और विपणन (मार्केटिंग) प्रबंधक से कोबरा पोस्ट के पत्रकार के साथ खबरों में फेरबदल करने को लेकर 2.09 करोड़ की कैश-डील करते वक़्त जागरण के दोनों ही अधिकारियों ने यह कहा कि ‘वैसे भी उनका अखबार भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में खबरें देता रहा है और अखबार ने कभी भी पार्टी के खिलाफ जाकर काम नहीं किया है. विज्ञापन प्रभारी ने यह भी माना कि उनके मुख्य संपादक मनोज गुप्ता अपने साप्ताहिक कॉलम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम को उभारते रहे हैं.

वर्ष 2012 में चुनाव आयोग ने दैनिक जागरण और अमर उजाला में राष्ट्रीय परिवर्तन दल के एक सदस्य के नामांकन को दैनिक जागरण और अमर उजाला में खबरों के खरीद-फरोख्त के आरोप को खारिज कर दिया था. हाथरस घटना हो या कठुआ रेप पर अखबार में प्रकाशित खबरों का मामला, दैनिक जागरण का नाम विवादित ही रहा है. अखबार ने दोनों ही मामलों में पीड़िता के परिवार पर ही आरोप लगा दिया था. बाद में विवाद होने पर अखबार को दोनों घटनाओं पर अपना रुख बदलना पड़ा था. पहले भी दैनिक जागरण पत्रकारिता के मानदंडों के उल्लंघन और झूठी खबरों के प्रकाशन के आरोप में एडिटर्स गिल्ड के जांच के दायरे में आ चुका है. हालांकि जांच समिति के अखबार के दफ्तर पहुंचने से पहले ही मामला कोर्ट से बाहर ही निपटा लिया गया था.

भारतीय प्रेस परिषद (प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया) द्वारा जारी पत्रकारिता-संबंधी आचरण के मानदंड (नॉर्मस ऑफ जर्नलिस्टिक कंडक्ट) के अनुसार तथ्यात्मकता और निष्पक्षता पत्रकारिता के सबसे महत्वपूर्ण मूल्य हैं. कहना न होगा जागरण प्रकाशन की खबरें पत्रकारिता के मूल मानदंडों से कोसों दूर हैं. दैनिक जागरण ने लंबे समय से एक ही विचारधारा के मुखपृष्ठ के रूप में काम किया है और अपने कारोबार को आगे बढ़ते हुए आज सबसे ज्यादा बिकने वाले दैनिक समाचार पत्र की तर्ज़ पर स्थापित है.

सन् 2002 में उच्चतम न्यायालय ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के एक केस में रेखांकित किया था कि एक तरफा सूचना, दुष्प्रचार, गलत सूचना और गैर-जानकारी, सभी समान रूप से अनभिज्ञ नागरिकता का निर्माण करते हैं और इस तरह लोकतंत्र को बेहद कमजोर करते हैं. ‘दैनिक जागरण’ की अब तक की यात्रा में ‘राइज़ एंड शाइन’ का अर्थ-विन्यास इसके शाब्दिक संरचना के प्रतिकूल स्थापित होता है नए अर्थ प्रक्षेपित करते हुए– जहां केंद्र में कारोबार है, एकपक्षीय दृष्टिकोण है. जो ‘मोम के बंधनों से’ पूरी तरह बंधा हुआ है, जिसके लिए ‘तितलियों के रंगीले पर’ ही केंद्र हैं. व्याकरणिक दृष्टि से ‘सजग’ बहुव्रीहि समास के अंतर्गत आता है जहां दोनों पद मिलकर किसी तीसरे पद की ओर संकेत करते हैं.

जागरण ने सजगता, जागरूकता जैसे शब्दों का एक चौथा ही अर्थ निकाल लिया है. सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले इस अखबार ने लंबे समय में अपना अलग पाठक-वर्ग तैयार कर लिया है– जिसका मानस बेहद संकुचित, एकांगी खबरों-जानकारियों के साथ बना है, जो हिंसक भी है और वैचारिकी के अभाव में भीरु भी. सजगता के प्रति जागरण की यह प्रतिकूल यात्रा अभी लंबे समय तक जारी रहने वाली है. और यह लाजिमी भी है कि जहां चौकीदार, वहीं उसका अखबार!

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