आंदोलन पवित्र है तो इसमें शामिल लोग अपवित्र कैसे हो सकते हैं?

सत्ता का वह मन अपवित्र है जो इस बात पर डंडा उठाता है कि विदेशी इस आंदोलन का समर्थन क्यों करते हैं.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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खतरा आंदोलनजीवियों से नहीं, सत्ताजीवियों से है. महात्मा गांधी से बड़ा आंदोलनजीवी तो संसार में दूसरा कोई है नहीं लेकिन यह सच्चाई भी हमें ह्रदयंगम कर लेनी चाहिए कि उन्होंने इस पूरे देश को जगाकर, आंदोलनजीवियों की एक बड़ी फौज ही तैयार कर दी जो ज्यादा नहीं तो कम-से-कम 1915 से 1947 तक लगातार, मरते-खपते आंदोलन ही जीती रही. दुष्यंत कुमार की जिस गजल का बड़ा ही फूहड़ इस्तेमाल लाल बुझक्कड़ साहब ने उस दिन लोकसभा में किया था, उसकी सही जगह यहां है. उन अमर आंदोलनजीवियों ने इस गजल को जी कर दिखाया: मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं/ वह गजल (आंदोलन) आपको सुनाता हूं. गांधी ने उन्हें यह गजल न सिखाई होती और उन्होंने यह गजल उर पर अंकित न कर ली होती तो आज हम आजाद हवा में सांस नहीं ले रहे होते.

आंदोलन की पवित्रता की दूसरी कसौटी यह है कि वह खुली किताब हो. जिसे जहां से, जब देखना हो देख सके- सारी दुनिया देख सके. सत्ता का वह मन अपवित्र है जो इस बात पर डंडा उठाता है कि विदेशी इस आंदोलन का समर्थन क्यों करते हैं. हर पवित्र आंदोलन धर्म-जाति-लिंग का भेद पाकर सारी दुनिया की न्याय-भावना को आवाज देता है. इतिहास पढ़ा ही न हो, या आपको पढ़ने की इजाजत न हो तो हम क्या करें कि महात्मा गांधी ने, 5 अप्रैल 1930 को नमक आंदोलनजीवियों की तरफ से वह मार्मिक, अमर अपील की थी जिसे दुनिया भर के आंदोलनजीवियों ने अपना सूत्र ही बना लिया है- “आइ वांट वर्ल्ड सिंपैथी इन दिस बैटल ऑफ राइट अगेंस्ट माइट- मैं न्याय बनाम लाठी के इस युद्ध में दुनिया की सहानुभूति मांगता हूं.” लाल बुझक्कड़ साहब, यह गांधी नाम का आंदोलनजीवी तो सारी दुनिया को हाथ उठा कर बुला रहा है कि अपनी सहानुभूति जाहिर करो, आ सको तो हमारे पवित्र आंदोलन में आ जाओ! आप इतने से ही बौखला गए कि किसी ने दुनिया में यहां से तो किसी ने वहां से इतना ही कहा कि अपने किसानों की बात सुनिए तो! यह अगर सत्ता के बहरेपन पर की गई निजी फब्ती न मान ली गई हो तो इससे मासूम बात भी कोई कह सकता है क्या?

सुनना हर लोकतांत्रिक सरकार का संवैधानिक धर्म है. सुनना-सुनाना, मानना-मनाना, नागरिकों में, मीडिया में, विशेषज्ञों में विमर्श पैदा करना, संसद में खुली व लंबी चर्चा बनने देना और फिर उभरती आम सहमति को कानून का रूप देना- यही एकमात्र लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. आपके लिए ही नहीं, आपसे पहले जो आए, आपके बाद जो आएंगे सबकी यही लोकतांत्रिक कसौटी है. आपसे पहले जो आए उन्होंने इसका पालन नहीं किया या बाद वाले नहीं करेंगे, इससे आपकी कसौटी नहीं होगी. आपकी कसौटी तो अभी और आज आप जो कर रहे हैं, उससे ही होगी. कसौटी की सबसे खास बात यह है कि आप चाहें तो खुद भी अपनी कसौटी कर सकते हैं.

खतरा आंदोलनजीवियों से नहीं, सत्ताजीवियों से है. महात्मा गांधी से बड़ा आंदोलनजीवी तो संसार में दूसरा कोई है नहीं लेकिन यह सच्चाई भी हमें ह्रदयंगम कर लेनी चाहिए कि उन्होंने इस पूरे देश को जगाकर, आंदोलनजीवियों की एक बड़ी फौज ही तैयार कर दी जो ज्यादा नहीं तो कम-से-कम 1915 से 1947 तक लगातार, मरते-खपते आंदोलन ही जीती रही. दुष्यंत कुमार की जिस गजल का बड़ा ही फूहड़ इस्तेमाल लाल बुझक्कड़ साहब ने उस दिन लोकसभा में किया था, उसकी सही जगह यहां है. उन अमर आंदोलनजीवियों ने इस गजल को जी कर दिखाया: मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं/ वह गजल (आंदोलन) आपको सुनाता हूं. गांधी ने उन्हें यह गजल न सिखाई होती और उन्होंने यह गजल उर पर अंकित न कर ली होती तो आज हम आजाद हवा में सांस नहीं ले रहे होते.

आंदोलन की पवित्रता की दूसरी कसौटी यह है कि वह खुली किताब हो. जिसे जहां से, जब देखना हो देख सके- सारी दुनिया देख सके. सत्ता का वह मन अपवित्र है जो इस बात पर डंडा उठाता है कि विदेशी इस आंदोलन का समर्थन क्यों करते हैं. हर पवित्र आंदोलन धर्म-जाति-लिंग का भेद पाकर सारी दुनिया की न्याय-भावना को आवाज देता है. इतिहास पढ़ा ही न हो, या आपको पढ़ने की इजाजत न हो तो हम क्या करें कि महात्मा गांधी ने, 5 अप्रैल 1930 को नमक आंदोलनजीवियों की तरफ से वह मार्मिक, अमर अपील की थी जिसे दुनिया भर के आंदोलनजीवियों ने अपना सूत्र ही बना लिया है- “आइ वांट वर्ल्ड सिंपैथी इन दिस बैटल ऑफ राइट अगेंस्ट माइट- मैं न्याय बनाम लाठी के इस युद्ध में दुनिया की सहानुभूति मांगता हूं.” लाल बुझक्कड़ साहब, यह गांधी नाम का आंदोलनजीवी तो सारी दुनिया को हाथ उठा कर बुला रहा है कि अपनी सहानुभूति जाहिर करो, आ सको तो हमारे पवित्र आंदोलन में आ जाओ! आप इतने से ही बौखला गए कि किसी ने दुनिया में यहां से तो किसी ने वहां से इतना ही कहा कि अपने किसानों की बात सुनिए तो! यह अगर सत्ता के बहरेपन पर की गई निजी फब्ती न मान ली गई हो तो इससे मासूम बात भी कोई कह सकता है क्या?

सुनना हर लोकतांत्रिक सरकार का संवैधानिक धर्म है. सुनना-सुनाना, मानना-मनाना, नागरिकों में, मीडिया में, विशेषज्ञों में विमर्श पैदा करना, संसद में खुली व लंबी चर्चा बनने देना और फिर उभरती आम सहमति को कानून का रूप देना- यही एकमात्र लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. आपके लिए ही नहीं, आपसे पहले जो आए, आपके बाद जो आएंगे सबकी यही लोकतांत्रिक कसौटी है. आपसे पहले जो आए उन्होंने इसका पालन नहीं किया या बाद वाले नहीं करेंगे, इससे आपकी कसौटी नहीं होगी. आपकी कसौटी तो अभी और आज आप जो कर रहे हैं, उससे ही होगी. कसौटी की सबसे खास बात यह है कि आप चाहें तो खुद भी अपनी कसौटी कर सकते हैं.

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