एक उदारवादी की सीमा क्या है?

हर दौर की एक अस्वीकार्य सीमा होती है. यही प्रगतिशील योजना होती है.

WrittenBy:अभिनंदन सेखरी
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पिछले सप्ताह, उपमहाद्वीपों में दो ऐसे वाकये हुए जिसने उदारवाद और उसके मायनों पर बहस छेड़ दी. साराह हकबी सैंडर्स को वर्जिनिया के एक रेस्तरां से बाहर जाने को कहा गया. यह आलेख आपको सुस्पष्ट विचार देगा कि इस मुद्दे पर राजनीतिक गलियारों में क्या प्रतिक्रिया रही. इसी बीच, रूपा सुब्रमण्यम, स्तंभ लेखिका हैंं और सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहती हैं, उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री के लिए भी पहले कुछ लेख लिखा है. हाल ही में उन्होंने  द प्रिंट के लिए भी लिखा है. इसपर वेबसाइट की काफी आलोचना हुई कि वह एक ऐसे व्यक्ति को मंच प्रदान कर रहा है जो सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों का प्रसार करती हैं.

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वेबसाइट के संस्थापक ने आशा के अनुरूप ही अपने लेखक का बखूबी बचाव किया.

दोनों ही मामलों में, उदारवादियों, जिनसे ज्यादा से ज्यादा सहिष्णु होने की अपेक्षा की जाती है, उन पर कई आरोप लगाए गए हैं. उदारवादी कट्टरता से लेकर गौ से भी पवित्र होने की कोशिश और उदारवादी लक्ष्यों (यह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है) को कमजोर करने की कोशिश करने जैसे आक्षेप लगाए गए हैं.

इससे पहले कि मैं अपनी बात रखूं, दो चेतावनियां जरूरी है. उदारवादी प्रगतिशीलता क्या है और कौन रूढ़िवादी दक्षिणपंथी है, यह संदर्भ सहित तय होता है. मैं उदारवादियों के स्थान पर प्रगतिशील शब्द का इस्तेमाल करूंगा क्योंकि मेरे विचार बेहतर तरीके से व्यक्त होंगे.

समाज किसे सभ्य मानता है यही उस समय की सभ्यता का पहला सिद्धांत बन जाता है. यह कभी स्थिर नहीं रहता, यह परिवर्तनशील विचार है. वर्तमान डिजिटल युग में इन स्वीकार्य सामाजिक रीति-रिवाजों में बदलाव और चुनौतियां पहले के बरक्स ज्यादा और आसान हैं. चूंकि अब दुनिया माध्यम के स्तर पर जुड़ी है, असहमतियां और विचारों का अंतर पहले के मुकाबले ज्यादा झलकता है.

एक पल के लिए आप सैंडर्स का केस भूल जाइए जो पोटस के लिए काम करती हैं. क्या आप ऐसे किसी नग्न व्यक्ति को अपने रेस्तरां में बैठने की अनुमति देंगे जो खुद में मस्त हो? एक उम्र में यह स्वीकार्य होता जब हम लोग एक दूसरे के साथ क्लब में होते होंगे, पर अब? उसी तरह, क्या हम किसी ऐसे रेस्तरां में खाना स्वीकार करेंगे जहां बच्चे या बंधक मजदूरी कर रहे हैं, या उस रेस्तरां का बहिष्कार कर देंगे?

मेरा यकीन है आपको ट्विटर पर ऐसे समूह मिल जाएंगें जिन्हें लगता होगा कि ऐसे रेस्तरां जिसमें बाल मजदूरों से काम लिया जाता है, जहां हस्तमैथुन करना स्वीकार्य है, ऐसे व्यक्ति को टेबल न देने या कॉलम न देने को अनुदार कहा जाएगा. इससे आपको आइडिया मिल गया होगा. ये उदाहरण दो छोर पर हैं लेकिन जरूरी नहीं कि हमेशा ऐसा ही हो. बातचीत इसपर होनी चाहिए कि सामाजिक या पेशेवर तिरस्कार की भावना कहां तक होनी चाहिए.

हर उम्र में प्रगतिशील विचारों के पैरोकार होते हैं जो समाज को प्रगति के पथ पर ले जाना चाहते हैं. मेरे ख्याल में एक गैरबराबर और अमानवीय सामाजिक स्थिति जो अब तक स्वीकार्य है, उसे अस्वीकार्य बनाने की यह बुनियादी प्रगतिशील योजना होनी चाहिए.

जीवन में चुनाव और वरीयताओं के आधार पर दोस्तों, सहयोगियों व परिवार के बीच हमारा स्थान बनता है. समाज हमारे वरीयताओं के आधार पर विभिन्न तरह के लेबल चस्पां करता है. जीवन में हमारी वरीयताओं का सामाजिक प्रभाव हमेशा रहा है और रहेगा. कुछ चुनाव व वरीयताएं हमें ऐसे समूह में ला खड़ा करती हैं जहां अपने वक्त के बुनियादी मानवीय मूल्यों को चुनौती देना पड़ता है. कुछ लोग हमेशा उन मूल्यों को सबसे पहले अपनाने को तैयार होंगे (प्रगतिशील) और ऐसे भी होंगे जो यह बताएंगें कि 200 साल पहले क्या होता था. वे वर्तमान की किसी सामाजिक कुरीति के बारे में ‘नेहरू के बारे में क्या’ (1947 से 1964 तक भारत के प्रधानमंत्री) जैसे प्रश्न पूछेंगे.

तो जब हमारी वरीयताओं का मूल सभ्यता या मानवीय मूल्यों से सामना होता है, तब व्यक्ति क्या करता है? और जब उस व्यक्ति से सामना होता है जिसने एक खास तरह का जीवन चुना हो, उसे शर्मिंदा करना या सामाजिक रूप से बहिष्कृत करना स्वीकार्य है? यह एक जरूरी और महत्वपूर्ण सवाल है.

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि असहमत विचारों का एक बहुत बड़ा दायरा होना चाहिए जिससे वैचारिक और भौतिक बुद्धिमताओं का विस्तार हो. इसमें कोई संदेह नहीं कि छोटी और उत्पादक बहसों से समाज और लोकप्रिय विमर्श को एक दिशा मिलती है. लेकिन यह दायरा कितना व्यापक है? इसकी सीमा क्या है? कितनी सीमा बहुत है? अलग-अलग लोगों के लिए यह अलग-अलग हो सकता है लेकिन समाज की मौजूदा वैचारिकी इसकी सीमा को निर्धारित करेगी. इतिहास ने यह साबित किया है कि लंबे दौर में अच्छे विचार ही टिक सके हैं.

विचार समय की परीक्षा लेते हैं. मैं यहां कुछ चरम सीमा वाले उदाहरण लूंगा और कुछ उनसे कम. याद रहे संदर्भ ही सब कुछ है. 1930 और 40 की दुनिया 21वीं शताब्दी जैसी नहीं थी और न ही उस दौर के स्वीकार्य मानवीय मूल्य आज उसी तरह मौजूद हैं. सभ्य, असभ्य, तार्किक, प्राथमिक या बर्बर, यह समझ वक्त के साथ बदलती जाती है. हर दौर की एक सीमा होती है.

आपके रेस्तरां में कु क्लुल्स क्लान के जिला प्रतिनिधि लंच करना चाहते हैं. उन्हें घुसने से मना करना सही होगा या उन्हें रेस्तरां छोड़कर जाने को कहना? क्या लोगों को क्रॉस पर जलाना उचित है? आपकी लाइन क्या होगी?

या अगर राम सेने का प्रमोद मुथालिक आपके शाकाहारी मद्धपान वर्जित रेस्तरां में नाश्ता करना चाहे? क्या आप उसे जाने को कहेंगे? क्या पब में महिला ग्राहकों को आने की मनाही होगी, यह आपकी लाइन होगी?

उस पार्टी प्रवक्ता के बारे में क्या कहेंगे जो एक मौलाना को कठमुल्लाह कहकर लाइव टीवी पर संबोधित कर रहा है? क्या यह काफी है कि इसके आधार पर उसे कभी मंच न दिया जाए? लाइन खींच दी गई?

क्या ईवीएम की जगह पेपर बैलेट या पेपर बैलेट की जगह ईवीएम की मांग करना, सीमा पार करना है?

क्या किसी राजनीतिक दल की पहचान पहनना, सीमा पार करना है?

महिला के चेहरे पर रसायन पदार्थ फेंककर घायल कर दिया गया है और एक व्यक्ति उस महिला का माखौल उड़ा रहा है, ऐसे व्यक्ति के बारे में क्या कहेंगे?

कुछ पुलिसवालों ने भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति की हत्या को अनदेखा कर दिया या कोई व्यक्ति जातिवाद को सही ठहराता हो, क्या आप उसे टेबल पर आमंत्रित करेंगे?

धार्मिक ग्रंथ, संविधान, राजकीय या राष्ट्रीय ध्वज जलाना एक लाइन होगी?

हर दौर की एक सीमा होती है. यही प्रगतिशील योजना है.

तकनीक और सोशल मीडिया का शुक्रिया जिसके बदौलत उन मानवीय मूल्यों पर चर्चा संभव हो सकी है जिसे एक वक्त पर स्वीकार्य कर लिया गया था. अनसुलझे बहसों पर समझ बनाने की कोशिश हो रही है. कट्टरता को गंभीर लोगों के बीच स्थान प्राप्त हो गया है जो बिना किसी झिझक के इसका प्रसार करते हैं और आदिम व्यवहारों का सामान्यीकरण करते हैं. इसलिए किसी के धरातल की खुदाई करना और कट्टरपंथियों और आततायियों से संवाद न करने को मजबूत पैरोकार मिले हैं. वे दायरा इतना बड़ा बना देना चाहते हैं जहां अनसुलझे और घृणास्पद व्यवहारों को भी समाहित कर लिया जाए.

कुछ के लिए, मेरे रेस्तरां से बाहर निकल जाओ या मेरे न्यूज़ पोर्टल से बाहर जाओ एक सीमा हो सकती है. किसी के लिए बच्चों को जेलों में भरने वाले व्यक्ति का प्रवक्ता होना या जातिसूचक संबोधनों का सामान्यीकरण करना सीमा हो सकती है. किसी के लिए पब में महिलाओं को मारना और रेस्तरां में हस्तमैथुन करने वाले, सीमा हो सकती है. आपकी सीमा क्या है?

मैं उन लोगों के साथ खाना नहीं खा सकता जो उल्टी करने जैसी स्थिति पैदा करते हैं.

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