प्रधानमंत्रीजी से चीन के मसले पर संदेश की अपेक्षा थी

प्रधानमंत्री का देश के नाम संदेश दिशाहीन और अधूरा लगा.

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भारत सरकार के द्वारा 59 चाइनीस ऐप प्रतिबंधित किए जाने के बाद 30 जून, शाम 4:00 बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित किया. उन्होंने आने वाले त्योहारों के संदर्भ में गरीब कल्याण योजना को नवंबर तक बढ़ाए जाने की घोषणा की और इसके साथ वर्षों से प्रस्तावित लेकिन लंबित पड़ी हुई, पूरे देश में एक राशन कार्ड योजना को तेजी से लागू करने की सूचना दी.

प्रधानमंत्री ने जनता से चेहरे पर मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के लिए आग्रह किया और यह भी बताया कि मास्क न पहनने वालों को टोकना, रोकना और आगाह करना सबकी ज़िम्मेदारी है.

तेजी से फैलते कोरोना वायरस संक्रमण और गहराते हुए आर्थिक संकट के बीच सरकार का यह कदम सराहनीय है. परंतु परिस्थितियों को देखते हुए और भाजपा के कई नेताओं या समर्थकों द्वारा इस संदेश का जिस तरह से प्रचार किया गया, उस अनुपात में प्रधानमंत्री का यह संदेश महत्वहीन सा लगा.

आज की वस्तुस्थिति

आर्थिक संकट से गुज़र रहे, महीनों से घर में बंद नागरिकों की प्रधानमंत्री से कुछ और अपेक्षा थी.

भारत की संप्रभुता इस समय संकट में है, चीन लद्दाख में भारत की सीमा में घुस कर बैठ गया है और पीछे हटने से मना कर रहा है. कोरोना वायरस संक्रमण और उससे पैदा हुए आर्थिक संकट से देश अभी गुज़र ही रहा था कि चीन हमारी सीमा में आकर बैठ गया. ऐसे विषम समय में प्रधानमंत्री द्वारा देश को संबोधित करना मन को ढांढस बंधाता है. परंतु अगर प्रधानमंत्री देश पर आये इस संकट का जिक्र भी ना करें, उनके वक्तव्य में चीन के भारत में घुसपैठ की घटना जो ऐतिहासिक और सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है, उसका लेश मात्र भी जिक्र ना हो यह खेद की बात है.

एक राजनीतिक दल जो हर बात में पत्रकारों और अपने विपक्ष के नेताओं की राष्ट्र के प्रति निष्ठा पर सवाल खड़े करता है, उसकी सरकार के प्रधानमंत्री का ऐसा करना ‌विचारणीय बात है.

आज भारत में गरीबी और बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है, अमेरिकी कंपनी फिच ने इस वित्तीय वर्ष में भारत के जीडीपी में 5% तक गिरावट का अनुमान लगाया है. पिछले कुछ सालों से भारत की अर्थव्यवस्था ढलान पर ही थी. 2016 में नोटबंदी के लागू होने के समय से ही छोटे और बड़े उद्योग अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे. आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार मोदी सरकार के दौरान चीन से भारत में आने वाले निवेश का अनुपात संपूर्ण विश्व से होने वाले निवेश में काफी बढ़ा. यहां तक कि भारत के 30 सबसे कामयाब स्टार्टअप्स में 18 चीन से मिले मोटे निवेश के कारण उठे. इसके अलावा अमेरिका के बाद चीन ही भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक सहभागी देश है.

अब सीमा पर बढ़ते विवाद और दोनों देशों के बीच बढ़ती हुई शत्रुता के यथार्थ के बीच इन व्यापारिक रिश्तों का समान रह पाना मुश्किल लगता है, 59 एप्स पर लगने वाला प्रतिबंध इसी का उदाहरण है.

जनता में बढ़ती चिंता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक प्रभावशाली वक्ता माने जाते हैं. जनता से संवाद करने में वह भारतीय राजनेताओं में अग्रिम हैं और उनके विरोधी भी इस बात को झुठला नहीं सकते लेकिन उनके जनता को दिए गए पिछले कुछ संदेश बहुत हल्के और दिशाहीन से लगते हैं.

संदेश पर आने से पहले मैं अपना संदर्भ समझा देना चाहता हूं।

भारत में कोरोना वायरस संक्रमण अभी भी तेजी से फैल रहा है. जनता परेशान और असहाय महसूस कर रही है. लाखों लोग बेरोज़गार हुए हैं और इनमें सभी कामकाजी वर्गों के लोग शामिल हैं. सरकार के द्वारा उठाए हुए कदमों में लगातार लापरवाही और भ्रष्टाचार की ख़बरें विभिन्न माध्यमों से जनता के बीच पहुंच रही हैं. सभी चिकित्सक, चिकित्सा कर्मी और अस्पतालों में सहायक कर्मचारी रोज़ाना अपनी जान हथेली पर लेकर काम कर रहे हैं. अन्य क्षेत्रों में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके बारे में यह बात सत्य है.

इन सभी नागरिकों के परिवारों में इस अतिरिक्त खतरे और उसके आभास से बढ़ती हुई चिंता और तनाव, अपने चरम पर है. बेरोज़गार हुए लोग या वे लोग जिन्हें अपने घरों को वापस जाना पड़ा, उनका तनाव भी कुछ कम नहीं है.

इस सबके बीच चीन का भारत की सीमा में घुस आना सभी के लिए गहरी चिंता का विषय है.

कुछ ही दिन पहले जब मैं अपने एक प्रिय जन को उनकी कोविड ड्यूटी के लिए छोड़ने जा रहा था तो उस समय मुझे जो भय महसूस हुआ वह पहले नहीं हुआ था. हर कोई जानता है कि जब डर या चिंता के कारण आपके पेट के अंदर तितलियां से उड़ती है तो कैसा लगता है. ऐसा नहीं है कि यह ड्यूटी पहले नहीं थी लेकिन अनिश्चितता से भरा हुआ डर पहली बार महसूस हुआ.

मुझे उस समय पूर्व अमेरिकी कॉमेडियन जॉन स्टीवर्ट की कही एक बात याद आई. पिछले कुछ दिनों पहले ही अपने एक इंटरव्यू में जॉन स्टीवर्ट ने एक छोटी सी घटना का विवरण किया जिसमें वह अपने एक पूर्व सैनिक मित्र को कोरोनावायरस संक्रमण के द्वारा पैदा हुए डर की बात बता रहे थे. जॉन कहते हैं कि उन्होंने अपने दोस्त को बताया कि कैसे उन्हें अब हर समय अपने या अपने परिवार के किसी सदस्य के बाहर जाने से एक अनजाना डर सा लगा रहता है, ऐसा डर जिसके बारे में आपको ठीक ठीक पता नहीं लेकिन आप जानते हैं कि अगर कुछ हुआ तो जान पर बन सकती है. उनके मित्र ने जवाब दिया तुम अब जानते हो कि, हर समय दुश्मन की बंदूक के निशाने और पहुंच में रहना कैसा लगता है.

हर वह व्यक्ति जो इस संक्रमण के बीच में जनता के बीच जाकर जरूरी सेवाओं के क्षेत्रों में काम कर रहा है, मेरे विचार में उनके लिए इससे अच्छी उपमा कोई नहीं हो सकती. उसी क्षण एहसास हुआ कि चीन भारत में घुस आया है और हमारे सभी सैनिकों और उनके परिवारों के मन में चिंता दोगुनी होगी.

संदेश का असमंजस

हम में से जो लोग नियमित रूप से विश्व में हो रहे सामरिक दांव-पेंच और विभिन्न देशों के बीच होने वाले वाद-विवाद पर नजर रखते रहते हैं, वह जानते हैं कि चीन का लद्दाख में घुस कर बैठ जाना कोई छोटी बात नहीं है. ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा देश पर आए इस बहुत बड़े संकट का उल्लेख किया जाना अति आवश्यक था.

इसका मतलब यह नहीं कि जो प्रधानमंत्री ने घोषणाएँ की वह निरर्थक हैं या उनका महत्व कुछ कम हो जाता है, ऐसा बिल्कुल नहीं है. हर बात का और हर घटना का अपना संदर्भ और महत्व है, उस संदर्भ को समझे बिना बात का विश्लेषण आधारहीन होता है. कोई महत्व की बात अगर समय पर न की जाए तो वह अपना महत्व खो देती है.

यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केवल इस संदेश ही नहीं बल्कि उनके पिछले कुछ संदेशों पर भी लागू होती है.

देशव्यापी लॉकडाउन के चौथे चरण के समय 12 मई को उनके राष्ट्र के नाम संदेश के बारे में भी यही कहा जा सकता है. उस लंबे वक्तव्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “आपदा को अवसर” बनाने की बात कही थी, लॉकडाउन के समय जो सरकार ने जनता के लिए काम किए उनकी बात की थी, किस तरह उन्होंने भारत के गरीब मज़दूरों के त्याग और तपस्या की बात करते हुए सबको शुभकामनाएं दी थी. जैसा कि उन्होंने कल भी किया. शायद उन्होंने बताना जरूरी नहीं समझा लेकिन त्याग और तपस्या स्वेच्छा से करी जाती है. नौकरी जाने के बाद भूखे मरना, बाहर निकलने पर पुलिस के डंडे खाना और हजारों किलोमीटर बिना किसी मदद के पैदल ही जिस भी हाल में है उसमें घर को निकल लेना त्याग और तपस्या नहीं, एक मानवीय त्रासदी है.

पर उन्होंने जो नहीं कहा वह भी उतना ही महत्वपूर्ण और मानवीय अर्थों में कहीं ज्यादा उल्लेखनीय था. उस समय लॉकडाउन चरम पर था. विभिन्न पत्रकारों ने अलग-अलग राज्यों से अपने घरों की ओर पैदल चलते हुए गरीब परिवारों की व्यथा और उनकी इस बेचारी का फायदा उठाने वाले लोगों का भरपूर प्रसारण किया था. प्रधानमंत्री ने अपने वक्तव्य में इन गरीबों की व्यथा, मृतकों के लिए शोक और जनता का विवेक बांधने के लिए कुछ नहीं कहा था. जितनी भी योजनाएं बाद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 5 दिनों में अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बताईं उनमें से एक का भी जिक्र प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए नहीं किया.

यहां तक कि उनके कल के संदेश में जो घोषणाएँ उन्होंने की, उनमे से देशव्यापी एक राशन कार्ड की घोषणा 12 मई के बाद निर्मला सीतारमण की प्रेस कॉन्फ्रेंस में हो चुकी थी. इन योजनाओं का उल्लेख प्रधानमंत्री को अपने 12 मई के वक्तव्य में करना चाहिए था पर वह चूक गए. प्रधानमंत्री मोदी के घोर समर्थक भले ही इस बात से सहमत ना हो लेकिन वह इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि प्रधानमंत्री के संदेश में कुछ भी ठोस नहीं बताया गया था.

प्रधानमंत्री का कल का वक्तव्य बिहार के चुनाव और त्योहारों के लिए अधिक चिंतित लगता है. देश के नेतृत्व का बार-बार अपने वक्तव्य में किसी भी असहज घटना या त्रासदी को संबोधित ना करना लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है. या तो प्रधानमंत्री यह समझते हैं कि जनता के समक्ष अप्रिय बातों का उल्लेख जरूरी नहीं या वे समझते हैं आम जनता इन गहरे विषयों को समझने में असमर्थ है या फिर इससे उनकी लोकप्रियता पर कोई असर पड़ेगा.

अन्यथा देश पर आए हुए आर्थिक संकट की बात न करना,तड़प रही जनता को आश्वासन ना देना, उन्हें अपने देश की व्यवस्थाओं की सीमितता याद दिलाकर धैर्य रखने को कहना और सरकार का जितना हो सके सहयोग करने को कहना यही एक देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर बैठे हुए व्यक्ति का दायित्व है. आज के समय में जो राष्ट्राध्यक्ष अपनी जनता से ईमानदार और खुला संवाद रख रहे हैं वही इस संक्रमण से लड़ाई में सफल हो पा रहे हैं, भारत कितना सफल है इसका निर्णय आप स्वयं ले.

कल दिए गए देश को संबोधन में प्रधानमंत्री ने चीन के साथ बढ़ते हुए शत्रु भाव को जनता के सामने न रखकर, जनता को यह ना बता कर की चीन ने किस तरह से हमारे देश में घुसपैठ की है यह ना समझा कर, जनता के साथ अन्याय किया है. उनसे अपेक्षा किसी आक्रोशित या उत्तेजित बयान कि नहीं है. किसी भी सर्वोच्च पद पर बैठे हुए व्यक्ति को राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में किसी भी दबाव के बिना निर्णय लेने चाहिए. सामरिक और युद्ध नीति के मामलों में किसी भी समूह विशेष के दबाव के बिना देश के हित में निर्णय लेने चाहिए. यहां बात नीतिगत फैसलों की नहीं बल्कि संकट के समय देश का नेतृत्व करने की है, अपने सम्बोधन में बिहार चुनावों को ध्यान में रखकर बार-बार छठ और छठी मैया के उल्लेख कि नहीं.

अगर भारत के प्रधानमंत्री एक विश्वव्यापी संक्रमण और देश की सीमा पर हुई अभूतपूर्व घुसपैठ के उल्लेख से ज्यादा त्योहारों की चिंता करते हुए दिखाई देंगे तो एक नागरिक के तौर पर मैं कहूँगा कि यह एक निराशाजनक बात है. प्रधानमंत्री मोदी मेरे मित्र या दूर के रिश्तेदार नहीं जिन्हें त्योहारों पर चढ़ने वाले चढ़ावे और उसके खर्चे की चिंता करनी पड़े, उसके लिए घर पर माताएं और दादियां बहुत हैं. उनका काम हमारी सुरक्षा और हमारे जीवन की स्थिरता को सुचारू रूप से बनाए रखना है.

अंत में एक छोटी सी बात, कि क्या मैं अकेला हूं जिसे हर वक्तव्य के बाद प्रधानमंत्री के द्वारा दी गई शुभकामनाएं अजीब लगती हैं?

किस बात की शुभकामना, यह माना कि सरकार तन, मन और धन से संक्रमण से निपटने में लगी हुई है और जनता जितना हो सके उतना सरकार का और प्रशासन का सहयोग कर रही है. समय तब भी अभूतपूर्व संकटों का ही है, हजारों लोग प्रतिदिन संक्रमण का शिकार हो रहे हैं, देश की राजधानी तक की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा रही है और हमारे प्रधानमंत्री हमें शुभकामनाएं दे रहे हैं?

जिन पत्रकारों ने तंत्र की ख़ामियों को रिपोर्ट करने की हिम्मत की, उनके ऊपर अलग-अलग राज्यों में प्रशासन की तरफ से मुकदमे दर्ज किए गए. सोशल मीडिया में सरकार से मिलने वाले राशन और मदद की प्रक्रिया में होने वाले घोर भ्रष्टाचार और अन्याय की कहानियां भरी पड़ी हैं. पुलिस के द्वारा लॉकडाउन के दौरान निरीह लोगों पर हुए अत्याचार की कोई समीक्षा नहीं, कितने ही लोग पुलिस के डंडों से बुरी तरह चोटिल हुए उसकी कोई सुनवाई नहीं. इन सब के रहते हुए प्रधानमंत्री की शुभकामना और देश को संबोधन अधूरे हैं.

प्रधानमंत्री निसंदेह: सत्य तो बोल रहे हैं पर यह आधा सत्य है, आधा सत्य वह भी है जिसका प्रधानमंत्री ने उल्लेख नहीं किया. आधा सत्य अगर झूठ नहीं होता तो सच भी नहीं होता. जनता को विश्वास में लेकर उसे अपने देश की परिस्थिति और संसाधनों की सीमितता बता कर ही प्रधानमंत्री उनके सच्चे सहयोग की अपेक्षा कर सकते हैं.

अन्यथा उनके अलग-अलग समय पर देश को संबोधित करने का बस एक ही मतलब निकलेगा जिसको लेकर कल से सोशल मीडिया पर लगातार एक के बाद एक व्ययंग कसे जा रहे हैं कि कल प्रधानमंत्री ने कोई नया काम नहीं बताया. सोशल मीडिया पर कल प्रधानमंत्री के वक्तव्य के बाद दिए जाने वाले काम के ना होने से चुटकुलों की झड़ी लग गई.

चुटकुले अपनी जगह हैं और विश्वास करिए मुझे वह बड़े पसंद भी हैं. लेकिन अगर आपदा के समय, भारत के प्रधानमंत्री का देश को संबोधन किसी दी जाने वाली क्रिया के होने, जो थाली पीटना या दिये जलाना हो, या ना होने तक सीमित रह जाए, तो हर जागरूक नागरिक को चुटकुलों पर हंसते हुए सजग हो जाना चाहिए.

कोई कहे या न कहे, पर देश संकट में है.

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